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शनिवार, 27 अगस्त 2011

ज़िन्दगी एक बुलबुला है !

ज़िन्दगी एक बुलबुला है 


  आज के दिन ........ 
"  प्रेम ही सत्य है"  ब्लॉग जन्मा था .... हमेशा ज़िन्दा रहेगा अंर्तजाल पर  डॉ अमर कुमार की तरह ..... 
ब्लॉग को जन्म देने वाला न रहेगा....  कभी अचानक वह भी चल देगा डॉ अमर की तरह ..... 


Dr.Amar Favorite Quotation on Facebook : "  मुझे पढ़ लो, हज़ार कोटेशन पर भारी पड़ूँगा"  


चेतन जगत को लेकर कुछ ऎसे ही ख़्यालात मेरे भी हैं.. पर मृत्यु के बाद क्या और कैसे होगा.. यह नहीं सोचता । 
मूँदहू आँख कतऊ कछु नाहीं... कौन अपना जिया जलाये जिस तरह परिजन चाहें.. क़फ़न दफ़न करेंकुछ तो करेंगे हीदुनिया को दिखाना होता है... वैसे न भी कुछ करें मृत प्राणी को क्या फ़र्क़ पड़ता हैजिन्दा में घात प्रतिघात.. मरने पर दूध भात !  on आख़िरी नींद की तैयारी


नहीं जी, कम से कम मैंने तो आपकी पिछली पोस्ट का कोई अनर्थ न लिया. बरसों पहले (शायद 1982 में) एक अठन्नी के बदले किसी अनाम फ़क़ीर ने दुआ दी कि, “ज़िन्दगी में हमेशा मालिक को, और मौत को याद रखा करो, ताउम्र बिना कोई गलती किए सुखी रहोगे.” यह सूत्र मैंने अपना लिया है, मुझे किसी बात से कोई भय नहीं लगता. एक दूसरा सूत्र और भी...लेकिन वह यहाँ उतना प्रासंगिक नहीं है. आपके होनहार द्वय के चित्र व संगीत सँयोजन उत्कृष्ट के आस कहीं पर ठहरे हुए हैं...किंतु चीकने पात दिख गए. on यही तो सच है......


शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

जीवन का ज्वार-भाटा


नर और नारी

सागर किनारे बैठे थे 
झगड़ा करके ऐंठे थे 
रेत पर नर नारी लिखते 
लम्बे वक्त से मौन थे
नर ने मौन तोड़ा
नारी को लगा चिढ़ाने
दो मात्राओं की बैसाखियाँ
लिए हर दम चलती नारी
मै बिन मात्रा के हूँ नर
बिना सहारे चलता हरदम
नारी कहाँ कम थी
झट से बोल उठी
दो मात्राओं से ग़रीब
बिन आ-ई के फक़ीर
कमज़ोर हो तुम
बलशाली होने का
नाटक करते हो 
सुन कर नर भड़का
नारी का दिल धड़का
तभी अचानक लहरें आईं
रेत पर लिखे नर नारी को
ले गई अपने साथ बहा कर
गुम हो गए दोनों सागर में
जीवन का ज्वार-भाटा भी
ऐसा ही तो होता है .... !! 


मंगलवार, 2 अगस्त 2011

सूरज, साया और सैर

नियमित सैर के लिए किसी गंभीर बीमारी का होना ज़रूरी नहीं है...बस यूँ ही नियम से चलने की कोशिश है एक. आजकल सुबह सवेरे भी निकलते हैं सैर के लिए... सुबह सवेरे मतलब साढ़े सात आठ बजे......दोष हमारा नहीं...सूरज का है..(दूसरों पर दोष डालना आसान है सो कह रहे हैं) ... उसे ही जल्दी रहती है निकलने की... जाने क्यों कभी आलस नहीं करता.... निकलता भी है तो खूब गर्मजोशी से .... हम भी उसी गर्मजोशी से उसका स्वागत करते हुए सैर करते हैं लेकिन साया बेचारा....बस उसे देखा और कुछ लिखा दिया कविता जैसा..... 

सुबह सवेरे सूरज निकला
मैं और मेरा साया भी निकला
सूरज पीछे....साया आगे
हम सब मिल कर सैर को भागे
देखूँ साए को आगे चलता
पीछे मेरे सूरज है चलता
ज्यों ज्यों मेरी दिशा बदलती
त्यों त्यों साए की छाया चलती
आगे सूरज पीछे साया
पीछे सूरज आगे साया
आते जाते पेड़ों की छाया में
छिपता उनमें मेरा साया
आगे पीछे मेरे होता
सूरज की गर्मी से बचता
लुकाछिपी का खेल था न्यारा
साया मेरा मुझको प्यारा 


शनिवार, 30 जुलाई 2011

गर्मी में सैर


आजकल घर की सफ़ाई का अभियान चल रहा है... दोनों बेटों की मदद से रुक रुक कर पूरे घर की सफ़ाई की जा रही है... दो तीन दिन में घर को रंग रोगन से नया रूप भी दे दिया जाएगा... इस बीच जाने क्या हुआ कि आँखें स्क्रीन पर टिक ही नहीं पातीं.... काली चाय को ठंडा करके उससे बार बार आँखें धोकर कभी काम तो कभी यहाँ उर्जा पाने आ बैठती हूँ कुछ पल के लिए लेकिन फिर लिखना पढ़ना न के बराबर ही है.....बस सैर को नियमित रखने की कोशिश जारी है ......... 

सैर के लिए तन्हा 
रात के पहले पहर निकलती हूँ
गर्मी के मौसम में
लाल ईंटों की पगडंडियों पर चलती हूँ 
जो लगती हैं धरती की माँग जैसी 
लेकिन बलखाती सी.. 
हरयाली दूब के आँचल पर 
टंके हैं छोटे बड़े पेड़ पौधे बूटेदार 
कभी वही लगते धरा के पहरेदार 
सीना ताने रक्षक से खड़े हुए 
कर्तव्य पालन के भाव से भरे हुए...
उमस घनेरी, घनघोर अन्धेरा  
अजब उदासी ने आ घेरा
फिर भी पग पग बढ़ती जाऊँ 
आस के जुगनू पथ में पाऊँ
मन्द मन्द मुस्काते फूल 
खिले हुए महकते फूल  
कहते पथ पर बढ़ते जाओ 
गर्म हवा को गले लगाओ !! 






बुधवार, 27 जुलाई 2011

सपने डराते भी हैं... .!

सपने अक्सर् सुहाने होते हैं लेकिन जब डराते हैं तो फिर भूलते नहीं.... कुछ् दिन से फिर शुरु हुए प्लेन क्रेश के सपने.... अच्छी तरह से जानती हूँ कि एक दिन हम सबने जाना है इसलिए मौत से भागना बेकार है.....

कभी बहुत पहले कनिष्का प्लेन क्रेश से भी पहले से हवाई दुर्घटना के सपने आते थे.... दूर आकाश में उड़ते जहाज़ों को क्रेश होते देखती हूँ .... कभी उनमें बैठी नहीं..... बीच बीच में ऐसे सपने आना बंद हो जाते हैं.... अब फिर से शुरु हुए वही सपने.... पिछले हफ्ते..... कल रात फिर ....... खड़ी हूँ धरती पर...नज़र है आकाश पर..... चाँद तारे क्यों नहीं दिखते.... सिर्फ हवाई जहाज़ ही क्यों दिखते हैं..... दिखते हैं तो दिखें...... लेकिन अचानक अपने रास्ते से भटकते.... तेज़ी से घूमते.. चक्कर लगाते.... धड़ाम से नीचे गिरते ही क्यों दिखाई देते हैं....... आजकल फिर से इन सपनों ने तंग करना शुरु कर दिया है.....

कुछ सपने दिल और दिमाग की डायरी में दर्ज हो जाते हैं और कुछ पल भर के लिए ही ज़िन्दा रह पाते हैं...

*बचपन का एक ही सपना याद रह जाता है .... ऊपर से नीचे की तरफ गिरना....

*समुद्र के किनारे एक किशोर लड़के को अजीब सी पोशाक में खड़े देखना... जो टकटकी लगाए मुझे देखता रहता है बिना कुछ बात किए.....सालों तक यह सपना आता रहा... फिर सच हो गया...

* एक बड़ा आलीशान घर हवेली जैसा.... ऊपर की ओर जाती लाल कालीन से ढकी सीढियाँ और उस पर चलता एक काले रंग का मकोड़ा......

*एक काला हाथ ...जबरन पकड़ कर अपनी ओर खींचता ......

*सफेद कपड़ों में लिपटी एक ममी को दरवाज़े की दहलीज पर खड़े मेरी तरफ देखना... चेहरा कभी दिखाई नहीं दिया....ऐसा लगता कि वह मेरी रक्षा के लिए दरवाज़े पर खड़ी है....

*सपनों में डैडी का आना.... हर सपने में मेरे करीबी दोस्त के साथ चिर परिचित मुस्कान के साथ बातें करना...असल ज़िन्दगी में एक बार मिले उस दोस्त को मम्मी डैडी अपना सा मानते जानते थे...

*रोते चाँद को देखना...फिर सपने में ही सोचना कि मुझे ही क्यों यह रोता चाँद दिखाई देता है....

*चाँद का पीला पड़ जाना..... उसके ऊपर काला जाला ....जिसे हटाने की पूरी कोशिश करना..... उसके बाद फीके चाँद का दिखना

* कई सपने आए और गए....लेकिन हवाई दुर्घटना के सपने हैं कि पीछा ही नहीं छोड़ते..... अनगिनत सपने हैं जिनमें प्लेन क्रेश होते हुए देखती हूँ और घबरा कर उठ जाती हूँ ... सभी सपनों में एक बात कॉमन है कि किसी भी हवाई जहाज़ में मैं कभी बैठी नहीं..... सभी को दूर से क्रेश होते देखती हूँ फिर भी मन बेचैन और अशांत हो जाता है....

इस वक्त मन शांत है.... मन कहता है मत घबरा.... हर हाल में खुश रहना है....ठान ले बस......
 मंज़िल तक जाने का रस्ता बदलेगा..... आसमान से...... आसमान में उड़ने की चाहत होगी पूरी ....
धरती पर..... धरती के आँचल में छिपने का सुख पाएगी..... जहाँ कहीं जैसे तैसे... जाना तो निश्चित है... !!


बुधवार, 13 जुलाई 2011

रूठी कविता


जाने क्यों आज सुबह से ....
मेरी 'कविता' रूठी है मुझसे
दूसरी कविताओं को देख कर
वैसा ही बनने की चाहत जागी है उसमें...
मेरे दिए शब्द और भाव अच्छे नहीं लगते उसे
दूसरे का रूप और रंग मोहते हैं उसे
मेरी 'कविता' नहीं जानती, समझती मुझे
मैं भी उसे उतना ही दुलारती सँवारती हूँ
जितना कोई और ............

जाने क्यों उसे भी आज के दौर की हवा लगी है...
अपने पास जो है उससे खुश नहीं....
दूसरे का रूप-रंग देख कर ललचाती है...
उन जैसा बनने की आस करने लगी है...
जो अपने पास है , वही बस अपना  है...
यह समझती ही नही....

जाने क्यों हीन-भावना से उबरती  नहीं ...
अपने स्वाभाविक गुणों  को  पहचानती नहीं
पालन-पोषण में क्या कमी रह गई...
कविता मेरी क्यों कमज़ोर हुई...
मैं हैरान हूँ , परेशान हूँ , उदास हूँ  !!


देख मुझे मेरी रूठी कविता ठिठकी
उतरी सूरत मेरी देख के  झिझकी
फिर सँभली....रुक रुक कर बोली....
"कुछ पल को कमज़ोर हुई...
नए शब्द औ' भाव देख के 
आसक्त हुई... 
तुम मेरी जननी हो...
मैं तुमसे ही जनमी हूँ ...
जो हूँ , जैसी हूँ ..
यही रूप  सलोना मेरा अपना है !!"





शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

कल रात मैं रात के संग थी...



कल रात मैं रात के संग थी
तन्हाँ सिसकती सी रात को ....
समझाना चाहा ...
हे रात ! तुम्हें ग़म किस बात का 
साए तो सदा साथ रहते हैं अंधेरों के... 
देखो तो दिवस को ... 
पहर दर पहर 
साए आते जाते हैं 
फिर साथ छोड़ जाते हैं... 
दिन ढलता जाता है 
और फिर मर जाता है...! 
हम भी कितने पागल है
यूँ ही बस किसी अंजान साए के पीछे भागते हैं...