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मंगलवार, 14 जून 2011

सुर्ख रंग लहू का कभी लुभाता तो कभी डराता





आज अचानक आटा गूँथने ही लगी थी कि तेज़ दर्द हुआ और हाथ बाहर खींच लिया... देखा छोटी उंगली से फिर ख़ून बहने लगा था....ज़ख़्म गहरा था...दर्द कम होने के बाद किचन में आने का सोच कर बाहर निकल आई...याद आने लगी कि रियाद में कैसे शीशे का गिलास धोते हुए दाएँ हाथ की छोटी उंगली कट गई थी और ख़ून इतनी तेज़ी से बह रहा था कि उसका सुर्ख रंग मन में एक अजीब सी हलचल पैदा करने लगा था... उंगली कुछ ज़्यादा ही कट गई थी लेकिन दर्द नहीं  हो रहा था.......
मैं बहते खून की खूबसूरती को निहार रही थी....चमकता लाला सुर्ख लहू.... फर्श पर गिरता भी खूबसूरत लग रहा था....अपनी ही उंगली के बहते ख़ून को अलग अलग एंगल से देखती आनन्द ले रही थी....
अचानक उस खूबसूरती को कैद करने के लिए बाएँ हाथ से दो चार तस्वीरें खींच ली....लेकिन अगले ही पल एक अंजाने डर से आँखों के आगे अँधेरा छा गया....भाग कर अपने कमरे में गई... सूखी रुई से उंगली को लपेट कर कस कर पकड़ लिया.... उसी दौरान जाने क्या क्या सोच लिया....
एक पल में ख़ून कैसे आँखों में चमक पैदा कर देता है और दूसरे ही पल मन को अन्दर तक कँपा देता है .... सोचने पर विवश हो गई कि दुनिया भर में होने वाले ख़ून ख़राबे के पीछे क्या यही कारण हो सकता है... 
बहते ख़ून की चमक...तेज़ चटकीला लाल रंग...उसका लुभावना रूप देखने की लालसा.... फिर दूसरे ही पल एक डर...गहरा  दुख घेर लेता हो .... मानव प्रकृति ऐसी ही है शायद...
पल में दानव बनता, पल मे देव बनता मानव शायद इंसान बनने की जद्दोजहद में लगा है...... 
क्या सिर्फ मैं ही ऐसा सोचती हूँ ......पता नहीं आप क्या सोचते हैं...  !!!!! 


मन भटका  
जंगली सोचें जन्मी
राह मिले न
*****
खोजे मानव  
दानव छिपा हुआ
देव दिखे न
*****
बँधी सीमाएँ
साँसें घुटती जाती
मुक्ति की चाह





रविवार, 12 जून 2011

एक पिता के कुछ यादगार पल बच्चों के नाम ...



शुक्रवार की रात रियाद से दुबई पहुँची...फ्लाइट एक घंटा लेट थी लेकिन छोटा बेटा जल्दी ही एयरपोर्ट आ गया था.. इसलिए घर पहुँचते पहुँचते 11.30 बज गए.....बड़े बेटे ने पास्ता बना कर रखा था..अभी वह परोसता कि एक दोस्त आ गई....उसका आना हमारे लिए 'अतिथि देवो भव:' जैसा ही था... स्वागत तो हमने वैसे ही किया जैसे तिथि बता कर आए मेहमानों का करते हैं...
मेरे मुस्कुराते चेहरे को देख कर उसे राहत हुई और फौरन अपने बेटे को भेज कर पति और माँ को बुलवा लिया.....बेटी भी बड़े गौर से देख रही थी कि कहीं मम्मी ने आकर कोई गलती तो नहीं कर दी...लेकिन यह सौ फीसदी सच है कि मुझे उनका इस तरह आना अच्छा ही लगा...सहेली का बेटा नानी को व्हील चेयर पर लेकर अन्दर आया तो सलाम दुआ करते हुए वे उसी चेयर पर  ही बैठी रहीं... कुछ देर मेरे कहने पर सोफे पर आ कर बैठ गई.....
पूरा परिवार बार बार यही कह रहा था कि आप थक गई है तो हम चले जाते हैं...लेकिन कुछ ही देर में उन्हें तसल्ली हो गई कि हम सभी ने उनका दिल से स्वागत किया... छोटे बेटे ने झट से चाय भी बना दी....अचानक मिलने के लिए आना....एक साथ बैठना....मिल कर अपनी खुशी ज़ाहिर करना......वे पल यादगार बन गए.
हमें तो सहेली की माँ बहुत प्यारी लग रही थीं....कमज़ोर नाज़ुक सा सिलवटों भरा चेहरा उस पर बच्चों जैसी मासूम मुस्कान...बड़े ध्यान से बातें सुनती आनन्द ले रही थीं... एक पल भी चेहरे पर शिकन नहीं आने दी कि आधी रात को सोने के वक्त पर कहाँ कहाँ भटकना पड़ रहा है....इकलौती बेटी है, उसी के साथ ही रहना है... दामाद प्यार आदर देने वाले.....न चाहते भी दो बजे के करीब अगले वीक एंड पर मिलने का वादा लेकर चले गए...
उसके बाद बच्चों के साथ हल्का डिनर किया...फिर बातों का दौर चले बिना नींद कैसे आती..विजय रियाद में अकेलापन महसूस कर रहे थे इसलिए वे भी लाइन पर आ गए..... सोते सोते तीन बज गए.... अगले दिन दस बजे नींद खुली...सुबह की दिनचर्या से निपट कर चाय नाश्ता करके घर के काम में लग गए...कल का पूरा दिन घर का काम करके आज लगा कि बस अब और नहीं...... अब कुछ देर अपने लिए....अपने लिए वक्त निकालना हम अक्सर भूल ही जाते हैं.... अपने लिए जीने की कला न सीखी तो फिर दूसरे के जीवन को कलात्मक कैसे बना पाएँग़े.....यही सोच कर घर के कामों को नज़रअन्दाज़ किया और आ बैठे यहाँ ...... 
पिछले दिनों अपने देश में जो हुआ या जो हो रहा है ...या जो होना चाहिए उसके लिए बस एक ही बात जो हमेशा मन में आती रही है कि मुझे देश और समाज के लिए कुछ करना है तो घर से ही शुरु करना होगा....अपने बच्चों को इंसान बना दिया तो वह भी समाज और देश के लिए ही कुछ करने जैसा है.....खुद को अपने परिवार को लेकर सही रास्ते पर चलना है...हम अगर इतना भी कर लें तो एक इकाई के दीपक जैसे जलने से हल्की रोशनी तो होगी ही....जीवन कर्म जो पहले से ही तय हैं उन्हें जी जान से करने में जुटे हैं.....
इसी दौरान कुछ पल ऐसे यादगार बन जाते हैं जिन्हें सबके साथ बाँटने का जी चाहता है..... 
ईंट पत्थरों में काम करने वाले पति विजय भी कुछ लिख पाएँगे यह मेरे लिए चौंकाने की बात थी...उड़नतश्तरी की एक कविता को पढ़ कर विजय के मन में कुछ भाव आए...जो इस तरह से यहाँ उतरे... 

बिछा देता हूँ कुछ पुरानी यादों के पत्र
चुनता हूँ एक एक करके खुशी के वो पल
लगा देता हूँ एक फ्रेम में चुन चुन कर...
वो गाँव की कच्ची गली में चलना सँभल कर
तोड़ना चोरी से कच्चे आम छुप छुप कर
नहाना मटमैले तालाब में टीले से कूद कर
वो गीले कपड़ों में आना छुप कर...
स्कूल छूटा और जवानी आई निकलना सज सँवर कर
इंतज़ार बस का करना लोगों से नज़र चुरा कर
पता नहीं कब जवानी उड़ गई पंख लगा कर
गृहस्थी में रखा पाँव जमा कर
जीने मरने की कसमें साथ खा कर
बच्चों की....! 

बच्चों का बचपन उनके नए नए खेल

फिर उनका किशोर जीवन, जवानी में क़दम 
बस यही ज़िन्दगी के कुछ पल जो रखे हैं संजो कर
बना दूँ उसकी तस्वीर टाँग दूँ दीवार पर
और निहारूँ उसे जिस पल
पाऊँ अपने चेहरे पर एक मुस्कान
निश्छल !!!  
काश कि
देखता रहूँ उसे हर पल...!  

माँ का स्नेह तो जग जाहिर है लेकिन एक पिता का प्यार बच्चो के प्रति.....
उन्हीं की पसन्द का एक वीडियो 'Save The Children by Marvin Gaye'



शनिवार, 4 जून 2011

टूटते देश के लोगों को बसाने का प्रयास



आजकल वरुण का कज़न साहिल (नाम बदला हुआ) दक्षिण सूडान में है सयुंक्त राष्ट्र की तरफ से शांति की बहाली के लिए वहाँ नियुक्त हुआ है... अक्सर रोज़ ही बात हो जाती है... एक दिन भी खबर न आए तो पूरा परिवार चिंता करने लगता है ...साहिल का कहना है “ यहाँ आकर मुझे लगा मेरा देश तो हज़ारो लाखों मे एक है... यहाँ के लोगो की हालत देख कर बहुत दुख होता है” याद आ जाती  हैं....विभाजन के दौर की सुनाई गई दादी की कहानियाँ “ साहिल की बातें मेरे लिए दुनिया के एक ऐसे कोने की जानकारी है जो रोचक भी है और बेहद भयानक भी
उतर और दक्षिण सूडान में सालों से गृहयुद्ध चल रहा था...अब जाकर कुछ आशा की किरण दिखाई दी है... पूरी दुनिया से स्वयंसेवी संस्थाएँ वहाँ काम कर रही हैं..सयुंक्त राष्ट्र तो है ही....सबकी अपनी अपनी कहानियों का सच और उनसे जुड़े अनुभव है...

जहाँ साहिल है वहाँ बिजली नहीं हैं..कोई बाज़ार नहीं है....वे लोग यू एन के कैम्पस में ही रहते हैं...खूबसूरत हरे भरे देश का मौसम भी अच्छा रहता है.... यहाँ शरिया का कानून भी नहीं है लेकिन कई सालों से हो रही लड़ाई के कारण रहने के लिए न घर है... न पेट भर खाना... औरतें और बच्चे सड़क के किनारे ही गुज़र बसर कर रहे हैं...उनकी हालत सबसे ज़्यादा खराब है....बच्चों को समय पर मेडिकल सुविधा न मिलने पर वे जल्दी ही दुनिया से कूच कर जाते हैं... उन्हें ज़िन्दा रखने की भरपूर कोशिश की जा रही है ...धीरे धीरे शिक्षा , मेडिकल सुविधाएँ , घर और खाने की ज़रूरतों को पूरा करने की कोशिश की जा रही है. झुग्गी झोपड़ी की तरह के घरों को टुकलू कहा जाता है उनमें रहने वालों के लिए अब घर बनाए जा रहे हैं..  
आजकल साहिल किसी दूसरे राज्य में  हैं जहाँ सब कुछ शांत था लेकिन फिर से वहाँ लड़ाई हुई और उस दौरान 4000 शरणार्थी और आ गए जिनके लिए खाने पीने और रहने की व्यवस्था की जा रही है..

आजकल बहुत बारिश हो रही है...ऊपर से कच्ची सड़कें , बार बार गाढ़ियाँ गड्ढों में फँस जाती हैं..लोगों के लिए खाने पीने का सामान पहुँचाना बहुत मुश्किल हो रहा है ...
 हैरानी वाली बात यह दिखी कि यहाँ के लगभग सभी लोगों के हाथ में AK47 गन दिखाई देती है.... भेड़ बकरियाँ चराने वाले चरवाहों के हाथ में भी लाठी की जगह गन होती है लेकिन उसे चलाना किसी एक को भी नहीं आता. एक नया देश बनेगा उसकी सुरक्षा के लिए वहाँ की सेना और पुलिस में अनपढ़ और अनट्रेंड लोग हैं जिन्हें कई कई दिनों तक खाना नसीब नहीं हुआ ... छोटे छोटे बच्चे भी वहाँ की सेना का हिस्सा हैं उनके हाथ में भी वही गन देख कर मन बहुत खराब हो होता है....
साहिल का कहना है “अच्छा लगता है जब आप यहाँ के हालातों के बारे में पूछती हैं...मानसिक बल मिलता है कि हम कुछ न कुछ तो कर ही पाएँगे इन लोगो के लिए....खासकर औरतों और बच्चों के लिए सब सुविधाएँ जुटाने की भरसक कोशिश होती है.... 

गृहयुद्ध के दौरान औरत की जो दुर्दशा होती है उसे शब्दों में ढाला ही नहीं जा सकता... किसी घटना के लिए  ‘रौंदी हुई ज़मीन’ शीर्षक सोच कर ही सिहर उठी थी.....उसे ‘ज़मीन और जूता’ नाम देकर अपनी कल्पना से ज़मीन जूते और नाख़ून के निशान सोचना भी तकलीफ़देह था...सोचती हूँ जो मुक्तभोगी हैं उनके दर्द का क्या.... कैसे वे अपना दर्द झेलतीं होंगी....!!!! 


गुरुवार, 2 जून 2011

बादलों का आंचल

 साँझ के वक्त आसमान से उतरते सूरज की कुछ तस्वीरें लीं....कुछ भाव भी मन में आ गए बस उन्हें इस तरह यहाँ उतार दिया.... चित्र को क्लिक करके देखिए...शायद अच्छा लगे..... 






बुधवार, 1 जून 2011

ज़मीन और जूता



एक मासूम सी उदास लड़की की खाली आँखों में रेगिस्तान का वीरानापन था
सूखे होंठों पर पपड़ी सी जमी थी पर उसने पानी का एक घूँट तक न पिया था
वह अपने ही  देश के गृहयुद्ध की विभीषिका से गुज़र कर आई थी
उसकी उदासी उसका दर्द उसके जख़्म नर-संहार की देन थी 
उसे चित्रकारी करने के लिए पेपर और रंगीन पेंसिलें दी गई थीं
कितनी ही देर काग़ज़ पेंसिल हाथ में लिए वह बैठी काँपती रही थी 
आहिस्ता से उसने सफ़ेद काग़ज़ पर काले रंग की पैंसिल चलाई थी
सफ़ेद काग़ज़ पर उसने काले से हैवान की तस्वीर बनाई थी
काले  हैवानों से भरे सफ़ेद काग़ज़ ज़मीन पर बिखराए थे
उसी ज़मीन के कई छोटे छोटे टुकड़े भी चित्रों मे उतार दिए थे
हर चित्र में ज़मीन का एक टुकड़ा, उस पर कई जूते बनाए थे
रौंदी हुई ज़मीन पर जूतों के हँसते हुए हैवानी चेहरे फैलाए थे
लम्बे नुकीले नाख़ून ख़ून में सने सने मिट्टी में छिपे हुए थे
बारिश की गीली मिट्टी में अनगिनत तीखे दाँत गढ़े हुए थे
स्तब्ध ठगी सी खड़ी खड़ी क्या बोलूँ बस सोच रही थी   
व्यथा कथा जो कह न पाई , तस्वीरें उसकी बोल रही थीं  



मंगलवार, 31 मई 2011

बाड़े में बन्द जीवन


गर्मियों के दिन हैं...सूरज डूबने पर ही बाहर निकलने की सोची जा सकती हैं...शाम होते ही बाहर निकले तो लगा जैसे सूरज हवाओं में घुल कर बह रहा हो .... बला की गर्मी लेकिन उस गर्मी को मारने के लिए ही निकले थे.... इन दिनों तरबूज़ और ख़रबूज़े जैसे फल अमृत समान लगते हैं...सालों से एक ख़ास जगह से ही फल खरीदते आए  हैं...शहर से कुछ दूरी पर एक वादी की तरफ़ जाते पक्की सड़क बन्द हो जाती है उसी के किनारे एक पिकअप गाड़ी में तरबूज़ों का ढेर लगा रहता है और नीचे छोटे छोटे बक्सों में ख़रबूज़े होते हैं....उसी गाड़ी के पीछे नज़र दौडाओ तो दूर एक टैंट हैं ,,,पानी का टैंक पड़ा है और कुछ दूरी पर शौचालय है.... एक तरफ बड़ा सा बाड़ा बना है भेड बकरियों को रखने का... ग़ौर करने पर देखा कि आजकल उनका मालिक आराम से बैठा रहता है ... झुंड का झुंड साँझ होते ही खुद ब खुद बाड़े में चली जाती हैं.... पहले यही भेड़ बकरियाँ बाड़े से बहुत दूर निकल जातीं... मालिक लाठी लेकर पीछे-पीछे भागता...ऊँची आवाज़ में गाली देता हुआ किसी एक को ज़ोर से मार देता....मार खाती भेड़ बकरी की तड़पती आवाज़ से पहले मेरे मुँह से चीख़ निकल जाती .... अक्सर ऐसा ही होता.. शाम ढलने का वक्त होता....लाठी से मार मार कर भेड- बकरियों को वह बाड़े के अन्दर कर रहा होता... हम कार में ही बैठे बैठे उसके आने का इंतज़ार करते...वह हाथ से बजा बजा कर तरबूज़ छाँट कर देता जो मिशरी सा मीठा निकलता....उसके उन्हीं हाथों से मुझे चिढ़ थी जिनमें हमेशा एक लाठी भी होती भेड़ बकरियों को हाँकने के लिए.... पति मेरे दुख को देख कर बड़े आराम से कह देते .... कुछ दिनों की बात है फिर वे अपने आप ही बाहर नहीं जाएँग़ी... उन्हें यही बाड़ा प्यारा लगने लगेगा... हुआ भी यही आज मालिक के हाथ में लाठी नहीं थी... वह आराम से पिकअप के पास एक कुर्सी पर बैठा था... सारी भेड़ बकरियाँ अपने आप ही बाड़े के अन्दर जा रही थीं ....शायद अब उन्हें लगने लगा है कि इससे बढ़िया जीवन और कहीं नहीं हो सकता या सोचती होंगी कि यही उनके जीवन की नियति है.....अचानक दिल से इक आह सी उठी .......!!!!  

सोमवार, 30 मई 2011

चिट्ठाकारों को शत-शत प्रणाम (बदलाव के साथ)

यह उन दिनों की पोस्ट है जब हमने अभी नया नया ब्लॉग ही बनाया था... 28 सितम्बर 2007 की लिखी इस पोस्ट में कई ब्लॉग मित्रों का ज़िक्र है लेकिन लिंक करने की तकनीक नहीं जानती थी...शुरुआती दौर की कुछ पोस्ट पढ़ते पढ़ते ख्याल आया कि क्यों न लिंक लगा कर इस पोस्ट को फिर से पब्लिश कर दिया जाए... लेकिन एक ब्लॉग  मेरे लिए पहेली बन गया..समझ नहीं आया कि किसका ब्लॉग होगा इसलिए लिंक करने में असमर्थ हूँ. संजीवजी का आवाज़.....अगर आपमें से कोई पहचान ले तो बहुत अच्छा हो.....

अनिल रघुराज जी का लेख "हिचकते क्यों हैं, लिखते रहिए' पढ़कर आशा की किरण जागी कि "ब्लॉगिंग मिसफिट लोगों का जमावड़ा" नहीं है। हाँ कुछ सीमा तक बात सत्य हो सकती है क्यों कि जो पहले से ही इस क्षेत्र में अनुभव प्राप्त किए हुए हैं, वे ज़्यादा जानकार हैं । अपने बारे में यह कह सकती हूँ कि आसपास मेरी बात सुनने वाला कोई नहीं, पति को शिकार बनाती , लेकिन उन पर भी प्रभू की बड़ी कृपा है। बच्चों की पढ़ाई के कारण या कहिए उनका सौभाग्य कि हम दोनों अलग- अलग देशों में हैं। अनुभव होने लगा कि सुपर वुमेन बनते बनते घर के प्रति बेरुखी बढ़ती जा रही है सो अध्यापन का मोह त्याग कर ईमानदारी से घर-गृहस्थी का काम सँभालने का निश्चय किया।
दोनो बेटे अपनी अपनी दुनिया में मगन , पति को काम का नशा , अब सोचिए नारी मन पर क्या बीतेगी जो बात करना चाहे , पर कोई सुनना न चाहे। नई पोशाकों पर , नए आभूषणों पर, नए नए पकवानों पर बात करने वालों की कमी नहीं पर मन का क्या जो अपनी मन-पसंद की बात करना चाहता है। डायरी पर लिखना ऐसा जैसे गूँगे से बात करना । न प्रशंसा , न आलोचना ।
मानव प्रकृति ऐसी है जो मरते दम तक कुछ नया जानने सीखने की इच्छा रखता है। "हमारी अंदर की दुनिया के साथ ही बाहर के संसार में हर पल परिवर्तन हो रहे हैं।" (अनिल रघुराज) हर पल की जानकारी पाना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है या कहिए अधिकार भी है। " तनावों से भरी आज की ज़िंदगी में लिखना अपने-आप में किसी थैरेपी से कम नहीं है।"(अनिल रघुराज) शत प्रतिशत सच है। कम से कम मेरे लिए तो ब्लॉगिंग सफल थैरेपी है।
ब्लॉगिंग से पहले मन विचलित रहता था। बीस साल पति के साथ रियाद में रही जहाँ बाहर के काम अक्सर घर के पुरुष ही करते हैं लेकिन दुबई आकर हर तरह से मुझे पति और बच्चों के पिता के उत्तरदायित्व भी निभाने पड़े ।अतीत की यादें पीछा न छोड़तीं। घर के काम अधूरे मन से होते तो अपराध बोध सताता । अब स्थिति अलग है। सुबह ६ बजे से रात ११ बजे तक के काम बँध गए। किस्सा कुर्सी का है कि बाकि काम खत्म करके शीघ्र ही कुर्सी पर आ जमो और लेखन लोक में आनन्द से विचरो। सच मानिए पहले कभी फुर्सत ही नहीं थी कि जाना जाए कि ब्लॉगिंग का सही अर्थ क्या है। पति वर्ड प्रेस पर एक ब्लॉग बनाकर बोले थे कि कुछ लिखो तब समय नहीं था या कहिए इस बारे में गंभीरता से सोचा भी नहीं था।
चिट्ठाजगत में हर दिन नए नए विषय उपलब्ध हैं। मेरे लिए तो ऐसा है जैसे बहुत से स्वादिष्ट व्यंजन एक साथ परोस दिए हों। समीर जी का लेख "गुणों की खान- मोटों के नाम" हास्य के साथ-साथ हौंसला दे देता है। "जाओ तो ज़रा स्टाईल से " पढ़ कर लगा कि हम अकेले ही नहीं है ऐसी बात करने वाले।
ईरान गए अपनी ईरानी सखी के पिता के चालीसवें पर , कब्रिस्तान की खूबसूरती देखकर अपनी विदाई का इंतज़ाम करने के लिए पूछ ही लिया कि क्या हम भी थोड़ी सी ज़मीन खरीद सकते हैं तो पता चला कि उनके पिताजी को उनकी बहन ने अपने नाम की जगह दी थी। सखी गुस्से से मेरी ओर देख कर बोली थी, 'तू बीशूर हस्त' । मैं सच में जानना चाहती थी लेकिन मुझे 'क़फेशोद' कह कर चुप करा दिया। जब इस बात की चर्चा परिवार और मित्रों में हुई तो हमें सनकी पुकारा गया। चिट्ठा जगत में कोई रोक-टोक नहीं , अपनी भावनाओं को दिखाने का पूरा अवसर मिलता है।
अब तो ऐसा लगता है जैसे अंर्तजाल आभासी दुनिया का दीवान-ए-आम है। जहाँ रोज़ सभा में कोई भी आकर बैठ सकता है । विचारों के आदान-प्रदान का स्वागत होता है। एक टिप्पणी मिलने की देर है आपको ढेरों रचनाएँ पढ़ने का अवसर मिल जाएगा।
अभी कुछ देर पहले मेरी रचना पर टिप्पणी करने वालों के चिट्ठे पर जाना हुआ। श्री हरे प्रसाद उपाध्याय के चिट्ठे में लेख 'कवि एथुदास' पढा , बस कुछ पंक्तियाँ मन को छू गईं - "मान-सम्मान और स्थापित होने की चिंता में तुम अमानवीय होकर रह गये हो। दिन-रात अपना झंडा गाड़ने की फिराक में लगे तुम कितने हास्यास्पद हो गये हो, इसका पता भी है तुझे! चिड़िया, फूल, पत्ते सबसे तुम जुड़े, लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा साथ लेकर। महत्वाकांक्षा लेकर प्यार नहीं किया जाता कवि। समर्पण के साथ प्यार होता है। खुद को मिटाना पड़ता है। और तुम हो कि दुनिया को मिटाना चाहते हो खुद के लिए।"


संजीँव जी के ब्लॉग 'आवाज़' में लेख "दुनिया को जीत लेने का जज्बा रखने वाला शख्स जिंदा लाश बन गया है" पढ़ा। उन्हें कैसे बताऊँ कि इस रोग के  कई मरीज़ देवेन्द्र जी से भी बुरी स्थिति में है।


 डिवाइन इंडिया ब्लॉग में दिनकर जी की एक सुंदर पंक्ति पढ़कर मन में कुछ करने की ललक जाग उठी।
"इच्छा है, मैं बार-बार कवि का जीवन लेकर आऊँ,
अपनी प्रतिभा के प्रदीप से जग की अमा मिटा जाऊँ॥"
संजीत जी 'आवारा बंजारा ब्लॉग में  'कुछ अपनी' में एक ही क्लिक से अपने देश के बारे में इतना कुछ पढ़ने को मिल गया कि आनन्द आ गया।
अभिनव जी की निनाद गाथा में रेडिया सलाम नमस्ते सुनकर तो हम दंग रह गए।  पारुल जी ने अपने लेखन से ही नहीं अपनी मधुर आवाज़ से भी मन जीत लिया। अर्बुदा की कविता में छायावाद का सुन्दर रूप दिखने पर युनिवर्सिटी के पुराने दिन याद आने लगे जब कवि जयशंकर प्रसाद की कविताओं का पाठ किया करते थे। देवाशीष जी की बुनो कहानी में जाकर कहानी लिखने का पुराना शौक जाग उठा। यही नहीं वहाँ सभी लिखने वालों को पढ़ा । लगा कि अभी बहुत कुछ जानना सीखना है।
संजय पटेल जी का लेख 'फब्तियाँ कसने वाले भूल जाते हैं कि जीत दिलाने वाला एक मुसलमान भी है' पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। "राजनीति से जितना दूर रहें..वही बेहतर है आज के माहौल में... लेकिन गर हर आदमी यही सोचेगा तो भी कुछ भला नहीं होने वाला है...कीचड़ साफ करने के लिए कीचड़ में उतरना ही होगा" राजीव तनेजा जी की टिप्पणी ने ही सोचने पर विवश कर दिया कि किसी हद तक हम भी दोषी हैं।
यतीष जैन जी का क़तरा-क़तरा में कई अच्छी कविताओं ने मन पर निशाँ छोड़ दिए उनमें से 'खाली है पोस्ट' अच्छा हास्य व्यंग्य है और हम सब को संदेश भी मिलता है कि ज़ीरो को चिड़ाने का अवसर नहीं देना चाहिए। शास्त्री जी का सारथी ही नहीं , उनसे जुड़े कई चिट्ठों से दुनिया भर की जानकारी मिलती है।
मन मेँ उठे भाव तो उन्हें आपके साथ बाँट लिया अगर बेकार लगें तो पढ़ना बन्द कर दें पर नाराज़ न हों।