कई दिनों तक कई जिम्मेंदारियां निभाते हुए चाह कर भी ब्लॉग पर लिखने का वक़्त ही नही मिला. सोचा था पतिदेव के घर जाकर मौका पाते ही जितने भी कागज़ रंगे हैं सब पोस्ट दर पोस्ट लिख दूँगी. जल्दी में अपने हिन्दी फोंट्स ले जाना भूल गयी. खैर ढूँढने पर कई लिंक्स मिले लेकिन सउदी सर्वर ऐसा की सब बेकार, इधर हम ठान चुके थे कि किसी भी तरह एक पोस्ट तो ज़रूर लिखेगे सो अब हिन्दी मीडिया की इस साइट में आकर ऐसा सम्भव हो पाया.
बस दुआ कर रही हूँ कि सर्वर डाउन न हो.
अभी अभी पतिदेव ऑफिस के लिए निकलें हैं और दोनों बच्चें सो रहें हैं. वरुण का लैपटॉप चुपचाप उसके कमरे से ले आए हैं और जो भी मन में आ रहा है लिख रहें हैं.
कई दिनों से चक्की रोई चूल्हा रहा उदास कि लय पर कुछ लिखने का मन कर रहा है ----
कई दिनों से चिट्टा रोया , चित्तचोर रहा उदास
कई दिनों से मैं भी रोई , हालत रही ख़राब ....
कई दिनों से काम कई थे, सौ सौ नही हज़ार
कई दिनों से जान अकेली, वक़्त बड़ा अज़ाब...
कई दिनों से काम किए, संवारा बच्चे - घरबार
कई दिनों की मेहनत रंग लाई, आधी नैया पार
कई दिनों की गिनती पूरी, बेटे दोनों पास ....
कई दिनों की सोई इच्छा पूरी हो गयी आज
बड़ा बेटा इंजिनियर बन गया ..... छोटे बेटे का स्कूल खत्म हुआ .... लेकिन जीवन रुकता कहाँ है.... नदिया की धारा जैसे आगे ही आगे बहता जाता है. आजकल सउदी अरब में हैं. छोटा बेटा १८ साल का होगा सो उसका परिचय कार्ड बनना है जिसे अरबी भाषा में इकामा कहते हैं. पूरे परिवार को ११ महीने बाहर रहने की इजाज़त मिलेगी.
दस दिन बाद दुबई लौटेंगे, दुबई के ही एक कॉलेज में छोटे बेटे का एंट्रेंस टेस्ट है. उसकी जिंदगी का एक नया अध्याय शुरू होगा. बड़े बेटे को दूसरी सफलता के लिए तैयार करना है.. लेकिन उससे पहले एक कहावत को चरितार्थ करना है.... सेहत हज़ार नियामत .....
अभी इतना ही ....हिन्दी लिखने का रास्ता मिल गया है ....
दम्माम की चारदीवारी में खाने पीने के बाद लिखना पढ़ना और संगीत सुनने का ही आनंद ले रहें हैं . बाहर जाने का मौका शाम को ही मिलता है सो.........
कई दिनों की चुप्पी टूटेगी, बातें होंगी हज़ार
कई दिनों की सिमटी यादें निकलेंगी हर बार ....
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सोमवार, 2 जून 2008
मंगलवार, 20 मई 2008
चिट्ठी न्यारी मेरे नाम ....
अन्धकार के गहरे सागर में
अकेलेपन की शांत लहरें
जिनमें हलचल सी हुई . .....
शायद सपनों की दुनिया
शायद कल्पना का लोक
ताना बाना बुना गया.....
प्यारी मीनू ,
आशा है सब कुशल मंगल होगा. यहाँ तो मैं नितांत अकेला तुम्हारे इंतज़ार में आँखें बिछाए खड़ा हूँ... एक एक पल भारी पड़ रहा है. बता नहीं सकता कि मेरे दिल पर क्या गुज़र रही है. पहली बार जब तुमने मुझे देखा था तो अपनी प्यारी मुस्कान के साथ दोनो बाँहें फैला कर मेरा स्वागत किया था. मुझे एक बार भी नहीं लगा था कि हम पहली बार मिल रहे हैं. लगा था जैसे हम सदियों से एक दूसरे को जानते हैं.
मीनू , मुझे देखकर तुम्हारे चेहरे पर चमक आ जाती थी. तुम्हारी मधुर आवाज़ में गाया प्रेम गीत आज भी मेरे कानों में गूँज रहा है -----
मेरा चिट्ठा मेरा चित्तचोर
चुराके चित्त को बना चित्तेरा
जादू से अपने मुझे लुभाए
बार-बार मुझे पास बुलाए
पहरों बैठके उसे निहारूँ
कलम से अपनी उसे रिझाऊँ !
अतीत के चित्र सजीव होकर आँखों के सामने हैं ... जैसे कल की ही बात हो.... अपनी सुन्दर सुन्दर रचनाओं से मेरे व्यक्तित्त्व को निखारतीं. मुझे तुष्ट करने के लिए बार बार देखतीं कि मुझे टिप्पणियों की खुराक मिल रही है या नहीं......
अब क्या हो गया है तुम्हें ?? क्यों तुम महसूस नहीं कर पातीं कि धीरे धीरे मेरी साँसें रुक रही हैं...मेरा दम घुट रहा है. ऐसे लग रहा है जैसे कभी भी मेरा वजूद मिट जाएगा...... मेरी प्यारी मीनू , मुझे जीवन का दान दे दो ...
मुझे पहले जैसा प्यार दे दो .. . ...
कभी कभी लगता है कि तुम मुझसे ऊब चुकी हो,,, शायद तुम्हें दूसरे चिट्ठे ज़्यादा अच्छे लगने लगे हैं ... जिनका मनमोहक रूप तुम्हें मुझसे दूर कर रहा है... फिर दूसरे ही पल एक विश्वास जागने लगता है .. आभासी दुनिया में कितने भी चिट्ठे तुम्हारे जीवन में आएँ, उनका रूप तुम्हारा मन मोह लें ... लेकिन तुम मुझे नहीं भुला सकतीं.... .
आशा की किरण जगमगाने लगती है .... मन पुकार उठता है......
मेरे आगोश में फिर से आओ
प्रेम गीत तुम फिर से गाओ .
नई रचना के तोहफे लाओ
सुख की नई अनुभूति पाओ.
कभी तो तुम्हारी नज़र फिर से मुझ पर पड़ेगी... फिर से पुराने दिन लौटेगे...
सदा तुम्हारे इंतज़ार में.....
सिर्फ तुम्हारा चिट्ठा चित्तेरा
'प्रेम ही सत्य है'
सोमवार, 12 मई 2008
हाइकु (त्रिपदम)
कैसे लिखूँ मैं
बुद्धि जड़ हो गई
मन बोझिल
सफ़रनामा न्यारा
दर्ज करूँगी
थम गए हैं शब्द
गला रुँधा है
कविता हो न
लेख लिख न पाऊँ
बात बने न
निपट अकेली माँ
दर्द गहरा
मन-पंछी व्याकुल
रोता ही जाए
माँ के अंतर्मन को
छटपटाऊँ
लिख पाना कुछ भी
हाल बेहाल
मैना जब चहकी
मन बहला
ठंडी सी आह भरी
नैनों में नीर
कर्म करे अपना
मोह न जाने
उड़ जाते हैं
चींचीं करते बच्चे
पाते ही पंख
खुश्बू बनके छाएँ
करती इच्छा
शनिवार, 10 मई 2008
दिल्ली की गर्मी में माँ के आँचल की शीतल छाया
दिल्ली से कल ही लौटे. टैक्सी घर के सामने रुकी तो छोटा बेटा विद्युत बाहर ही खड़ा था . सामान लेकर अन्दर पहुँचे तो घर साफ-सुथरा पाकर मन प्रसन्न हो गया. एकाध नुक्सान को नज़र अन्दाज़ करना ज़रूरी होता है सो हमने उस ओर ध्यान ही नहीं दिया. बेटे के हाथ की चाय और दिल्ली की मिठाई ने सारी थकान दूर कर दी फिर भी कुछ देर आराम करने बिस्तर पर गए तो चावल पकने की खुशबू से नींद खुली. विद्युत ने चावल बना लिए थे जिसे पिछ्ले दिन की करी मिला कर बिरयानी बना कर परोस दिया. शाम की चाय वरुण ने बनाई. चाय पीकर कितना आनन्द आया बता नही सकते.
फिर शुरु हुआ ब्लॉग जगत का सफ़र जिसमें हम बहुत पीछे छूट गए थे. लिखने की राह पर चलने का उतना मज़ा नहीं जितना पढने का आनन्द आता है. फिर भी लिखने की लहर मन में आते ही लिख भी डालते हैं.....
अभी अभी कुछ त्रिपदम मन की लहरों से जन्मे........
गर्म हवा में
माँ का स्नेहिल साया
शीतल छाया
भूली मातृत्त्व
माँ की ममता पाई
बस बेटी थी
आज मैं लौटी
फिर से माँ बनके
प्यार लुटाती
ब्लॉग जगत
लगे परिवार सा
पाया फिर से
पढ़ना भाए
लिखना भूली जैसे
अनोखी माया
दिल्ली सफ़र
दर्ज करूँगी फिर
मनमर्जी से
मनमौजी मैं
लिखूँ पढूँ इच्छा से
मदमस्ती में
रविवार, 20 अप्रैल 2008
फिर जन्मे कुछ हाइकु (त्रिपदम)
चिट्ठा चित्तेरा
पुकारे बार-बार
लौटी फिर से
मन मोहता
मधुशाला का साकी
बहके पग
गहरा नशा
डगमग पग हैं
बेसुध मन
कलम चली
शब्दों को पंख लगे
उड़ते भाव
लो आया ग्रीष्म
जला, तपा भभका
सन्नाटा छाया
बरसे आग
जले धरा की देह
दहका सूरज
लू का थपेड़ा
थप्पड़ सा लगता
बेहोशी छाती
प्यास बुझे न
जल है प्रेम बूँद
तरसे मन
खुश्क से पत्ते
पैरों तले चीखते
मिटे पल में
पुकारे बार-बार
लौटी फिर से
मन मोहता
मधुशाला का साकी
बहके पग
गहरा नशा
डगमग पग हैं
बेसुध मन
कलम चली
शब्दों को पंख लगे
उड़ते भाव
लो आया ग्रीष्म
जला, तपा भभका
सन्नाटा छाया
बरसे आग
जले धरा की देह
दहका सूरज
लू का थपेड़ा
थप्पड़ सा लगता
बेहोशी छाती
प्यास बुझे न
जल है प्रेम बूँद
तरसे मन
खुश्क से पत्ते
पैरों तले चीखते
मिटे पल में
बुधवार, 9 अप्रैल 2008
शैशव की स्मृति
स्मृतियाँ लौटीं , शैशव की याद आई
घुटनों के बल कितनी माटी खाई
चूड़ियाँ माँ की कानों में खनकी
भूली यादों से आँखें भर आईं
ममता की चक्की चलती चूल्हा जलता
स्नेह भरे हाथों से फिर खाना पकता
रोटी पर माखन साग को ढकता
दही छाछ जो पेट को फिर भरता
खोजते नन्हे पैर तपती धूप में छाया
धूल भरी राहों में डोलती वो काया
चोरी से बेर तोड़ना बेहद भाता था
मन-पंछी सैंकड़ों सपने लाता था
सन्ध्या का सूरज रक्तिम आभा को लाता
दीपक का प्रकाश घर-भर में छा जाता
बेटी की सुन पुकार टूट गया सपना
जैसे पीछे कोई छूट गया हो अपना
खट्टी मीठी यादों का टूटे सँग ना
फिर याद आ गया छूट गया अँगना
गुरुवार, 3 अप्रैल 2008
पर चलती क़लम को रोक लिया
पुरानी यादों की चाशनी में नई यादों का नमक डाल कर चखा तो एक अलग ही स्वाद महसूस किया. जो महसूस किया उसे कविता की प्लेट में परोस दिया. आप भी चखिए और बताइए कि कैसा स्वाद है !

पढ़ने-लिखने वाले नए नए दोस्त हमने कई बनाए
दोस्तों ने ज़िन्दगी आसान करने के कई गुर सिखाए
उन्हें झुक कर शुक्रिया अदा करना चाहा
पर उनके अपनेपन ने रोक लिया.
दोस्त या अजनबी सबको सुनते और अपनी कहते
देखी-सुनी बेतरतीब सोच को भी खामोशी से सुनते
पलट कर हमने भी वैसा ही कुछ करना चाहा
पर मेरी तहज़ीब ने रोक लिया.
नई सोच को नकारते बैठते कई संग-दिल आकर
हैरान होते उनकी सोच को तीखी तंगदिल पाकर
हमने भी उन जैसा ही कुछ सोचना चाहा
पर आती उस सोच को रोक लिया.
सीरत की सूरत का मजमून न जाना सबने
लोगों पर तारीजमूद को बेरुखी माना हमने
सबसे मिलकर हमने भी बेरुख होना चाहा
पर हमारी नर्मदिली ने रोक लिया.
साथ चलने वालों से दाद की ख्वाहिश नहीं थी
तल्ख़ तंज दिल में न होता यह चाहत बड़ी थी
मिलने पर यह अफसोस ज़ाहिर करना चाहा
पर आते ज़ज़्बात को रोक लिया.
सोचा था चुप रह जाते दिल न दुखाते सबका
पर खुशफहमी दूर करें समझा यह हक अपना
सर्द होकर कुछ सर्द सा ही क़लाम लिखना चाहा
पर चलती क़लम को रोक लिया.
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