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सोमवार, 12 मई 2014

सुबह का सूरज




ऊँची ऊँची दीवारों के उस पार से 
विशाल आसमान खुले दिल से 
मेरी तरफ सोने की गेंद उछाल देता है 
लपकना भूल जाती हूँ मैं 
 टकटकी लगाए देखती हूँ
नीले आसमान की सुनहरीं बाहें 
और सूरज की सुनहरी गेंद 
जो संतुलन बनाए टिका मेरी दीवार पर 
   पल में उछल जाता फिर से आसमान की ओर
छूने की चाहत में मन पंछी भी उड़ता
खिलखिलातीं दिशाएँ !!





3 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

ये गेंद उछलती रहे तभी मन भी चंचल हो के झूमता रहेगा ... जहाँ इसको पकड़ा गति रुक जायेगी ...

संजय भास्‍कर ने कहा…

वाह बेहतरीन..... जीवन के करीब से गुजरते शब्द ॥ एक एक शब्द ... .....बधाई

वाणी गीत ने कहा…

सूरज के लिए सोने की गेंद का बिम्ब अच्छा लगा. उगते सूरज से अधिक प्रेरणादायक कौन !!