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सोमवार, 19 मई 2014

मेरे पढ़ने-लिखने का लेखा-जोखा 2 (वाजिब है हमरे लिए दफा 302)

समाज से जुड़ी पोस्ट को लेकर अक्सर हम दोनों पति-पत्नी में बहस और कभी तल्खी हो जाती है, जिसके लिए समय चुनते हैं शाम की सैर का...पति जितनी शांति से बात करते हैं मुझे उतना ही गुस्सा आता है. जैसे कि विभाजी की पोस्ट को पढ़ने के बाद हुआ.. सुबह पोस्ट पढ़ने के बाद दोनों ही जड़ से हो गए थे..

विजय चुपचाप ऑफिस चले गए और मैं काम में लग कर उस कहानी को भुलाने की कोशिश करने लगी. जीवन से जुड़ी किसी घटना को कहानी का चोगा पहना दिया जाता है. असल में किसी न किसी सच से ही उपजती है कहानी.. तभी दिल तड़प उठता है क्योंकि कहानी का सच हमें जीने नहीं देता. कहानी के पात्र हवाओं में घुल कर साँसों में उतरने लगते हैं और दम घुटने लगता है .. 

चाहकर भी अपने आप को रोक न पाई. दुबारा उस कहानी को पढ़ने लगी... अपनी गर्भवती बहन लल्ली का खून करने वाला बड़ा भाई और उसकी दलीलें नश्तर की तरह चुभने लगीं..जो इंसान ज़रा से ख़ून को देख कर चक्कर खाकर गिर जाए उसे समाज की ज़हर बुझी बातें कितना ताकतवर बना देती हैं कि वह कुछ भी कर गुज़रता है.

इस देस में सबको एतना बोलने का आजादी काहे है जज साहेब?  

हम बड़ी डरपोक किसम के हैं। खून देख के हमको उल्‍टी-चक्‍कर आने लगता है। 

कहियो मेढक का डिसेक्‍शन नहीं कर सके। हमरा साथी सब मेढक को उल्‍टा करके उसका चारो टंगड़ी कील से ठोक देता। चारो पैर तना हुआ आ बीच में उसका फूला पेट, जिसके ऊपर से कैंची चलनेवाला था उसका पेट फाड़ने के लिए। जिंदा मेढक- छटपटाए नहीं, छटपटाकर भागे नहीं, इसके लिए कील में ठोका मेढक- माफ कीजिएगा जज साहेब, हमको जाने क्‍यों ईसा मसीह याद आ गए। हमको चक्‍कर आ गया। हम बेहोश हो गए। पैंट भी गीला हो गया।

मोहल्‍ले की दादी-चाची-फुआ से उनके घरों की बाकी सभी औरतों और वहां से उनके मरद और मरद से बच्‍चों तक को हमरी ई बीमारी का पता लग गया। जनी-जात हमको देख पूछ बैठती -'बउआ, मन ठीक है न अब?' मर्द कहते -'काहे रे? एतना बड़ा हो गया, अखनी तक पैजामा में मूतता है!' और बच्‍चे तो हमको देखते ही ताली पीट-पीटकर चिल्‍लाने लगते -'मूतना, मूतना।' हमरा तो नामे जज साहेब मूतना पड़ गया। 

बाकिर ई समाज जज साहेब! एकदमे चौपट निकला। चौपट से बेसी बदमाश, जिसको दूसरे के घर में आग लगाकर हाथ सेंकने में बहुते मजा आता है।

पढ़ाई और नौकरी का ऊंच-नीच लल्‍ली बूझ गई, मगर जिनगी के ऊंच-नीच में तनिक गड़बड़ा गई। हालांकि हमरे हिसाब से ऊ कोनो गड़बड़ नहीं था जज साहेब। मगर ई समाज, जो ऊपरवाले की बनाई चीज पर भी अपनी जबान चलाने से बाज नहीं आता, ऊ इंसान के उस काम को कैसे सह लेता, जिसमें उसकी रज़ामन्दी ना हो?

जो कोई जिधर टकरा जाता, एके सवाल पूछता -'रे मूतना, तेरी बहिन का कुछ पता चला?... अब तो ऊ पूरी चमइन हो गई होगी? राम-राम, मुर्दा खाती होगी। चमड़ा निकालती होगी।हमारा मन करता, सबको चीर कर रख दें. मगर हम तो एक ठो चींटी भी नहीं मार सकते थे, आदमी को क्या मारते?

लोग-बाग हमको देखते और बोलने लगते -'रे मूतना, रे तुम्‍हारे जीजा का क्‍या हाल है? आदमी को चीर रहा है कि मरी गइया का खाल उतार रहा है? उसके साथ गाय खाया कि नहीं? चमड़ा उतारा कि नहीं?' 

     एक दिन फिर हमको बुलउआ आया- मोहल्‍लावाला का। सामने एक ठो कुत्ता मरा पड़ा था। सब बोले -'रे मूतना, देखता क्‍या है?ई कुतवा को उठा ईहां से। मर्जी तो इसकी खाल खीच, चाहे तो इसका मांस पका। हमको भी बताना, कइसा लगता है इसका स्‍वाद! सुने हैं कुत्ते का मांस बड़ा गरम होता है। गरमी ज्‍यादा चढ़े तो मेहरारू पर उतार लेना।'

हम, गणेश तिवारी, जिसकी पैंट चार कील पर उल्‍टे टांगे मेढ़क को देखकर गीली हो गई थी, वही गणेश तिवारी यानी मूतना अपने टोले-मोहल्‍ले की बात से इतना ताक‍तवर हो गया कि उसको लल्‍ली और जयचंद का खून देखकर न पसीना आया, न बेहोशी छाई, न उसकी पैंट गीली हुई। 

मन की व्‍यथा का सबूत कइसे दिखाया जाए? हाथ गोर काट-पीट अधमुआ कर दिया तो दफा 307 लगा दिया। शीलहरण किया तो 376 लगा दिया। मार दिया तो 302 लगा दिया. लेकिन हमरे मन के हाथ पैर को दिन-रात काटा जाता रहामन को बार-बार मारा जाता रहाहमरे शील सुभाव को बीच चौराहे पर नंगा किया जाता रहाउसके लिए कौन सा दफा लगेगा जज साहेब?

शाम छह बजे ऑफिस से लौट कर विजय कपड़े बदलकर मुँह हाथ धोकर फौरन ही सैर के जूते कस लेते हैं , मैं पहले ही तैयार रहती हूँ.... सैर करते हुए फोन पर गज़लें सुनने की इच्छा हम दोनों की नहीं थी क्योंकि  विजय के दिल और दिमाग में भी लल्ली जयचन्द और गणेस घूम रहे थे..."लल्ली और जयचंद कितने खुश थे , गणेश भी अपनी बहन बहनोई से मिलकर खुश था फिर उसने ऐसा क्यों किया.... " मैंने दुखी मन से बात शुरु की जिसके जवाब में ठंडी साँस लेते हुए पति बोले, "हम समाज में रहते हैं जहाँ कुछ भी लीक से हट कर हो तो ऐसा ही होता है'  मुझे सुनकर इतना गुस्सा आया कि चिल्ला उठी कि समाज क्या है... उसका वजूद हमसे ही है...हम सबसे मिलकर बना है समाज फिर क्या मुश्किल है कि हम एक दूसरे की सोच को सहन नहीं कर पाते. मैं जाने क्या क्या बोले जा रही थी और विजय चुपचाप सुन रहे थे. 

उनके पास मेरे सवालों का एक ही जवाब था शिक्षा..लल्ली की सोच में बदलाव शिक्षा के कारण था.... खुद ब खुद समझ आने लगा कि किसी भी बदलाव के लिए कुछ भी सहने के लिए अगर हम तैयार नहीं हैं तो गणेश तिवारी जैसे कई पैदा होते रहेंगे. देश के कोने कोने में अगर ज्ञान की ज्योति जलने लगे तो घर परिवार में बेटा बेटी को बराबर का प्यार और मान-सम्मान मिलेगा. फिर किसी लल्ली को घर से भागना नहीं पड़ेगा... कोई गणेश तिवारी टोले मुहल्ले की बातें सुनकर कसाई नहीं बनेगा.....शिक्षा ही एक ऐसा मूलमंत्र  है जो अमीरी ग़रीबी और ऊँच नीच के भेदभाव को भुलाकर सबको एक सूत्र में बाँधता है. 

हँसती खिलखिलाती लल्ली भूलती नहीं....जाने कितनी और हैं जिन्हें ऐसा अंजाम न मिले इस दुआ के साथ एक गीत.... फिल्में भी हमारे समाज का आईना हैं...वक्त हो तो ज़रूर देखिएगा -- बनारस : ए मिस्टिक लव स्टोरी  



रविवार, 18 मई 2014

Beautiful words run through my veins 1 (हथकढ़ में अमित)


सुबह उठते ही हम पति-पत्नी में से कोई न कोई लैपटॉप ऑन कर देता है. सवेरे के संगीत में या तो श्लोक-मंत्र होते हैं या कोई वाद्य यंत्र, हर रोज़ के मूड के साथ यह भी बदलता रहता है.

उसके बाद ही दिनचर्या शुरु होती है जिसके साथ-साथ लैपटॉप पर जीमेल, फेसबुक, यूटयूब और टिवटर के चार पन्ने खुल जाते हैं. 6 से 7 बजे तक विजय तैयार होने के साथ साथ फेसबुक या टिवटर के ज़रिए किसी न किसी पोस्ट को पढ़ते हैं जिस पर कभी बहस तो कभी बातचीत होती है.

कई बार परिवार के संदेश पढ़कर ही मन खुश हो जाता है  और उन्हीं की बातें करते हुए सुबह बीत जाती है.. विजय ऑफिस निकल जाते हैं और मैं फिर से अपने घर की दुनिया में तन्हा हो जाती हूँ ..सोचती हूँ अगर इंटरनेट न होता तो क्या होता. किताबें अगर पहुँच के बाहर हों तो नेट पर पढ़ने के लिए बहुत कुछ है....लिखने से ज़्यादा पढ़ना मेरी कमज़ोरी है. पढ़ते वक्त जो सीधे सीधे दिल में उतर कर दिमाग़  को बेसुध कर देता है वही लेखन मुझे अपनी ओर आकर्षित करता है. 

अचानक एक ख़्याल आया कि शब्द और उनके भाव मन में जो तूफ़ान पैदा करने लगते हैं उनकी लहरों को बहने के लिए एक नई राह मिले इसके लिए मुझे अपने ब्लॉग़ पर वह सब उतार देना चाहिए...उस वक्त जो महसूस हो उसे ईमानदारी से दर्ज किया जाए तो मन शान्त हो. पहली बार अंग्रेज़ी का शीर्षक इस्तेमाल करने से भी अपने  को रोक नहीं पा रही... Beautiful words run through my veins..हालाँकि हिन्दी में भी लिखा जा सकता है "खूबसूरत शब्द मेरी रग़ों में दौड़ते हैं" इस विषय पर अगर कोई पाठक कुछ कहे तो आसान हो जाए. 
(कुछ दिन पहले हथकढ़  में अमित के  बारे में पढ़ा और लिखा  था लेकिन आज शांत मन से पोस्ट कर पा रही हूँ  ) 
पहली बार जब हथकढ़ ब्लॉग पर गई थी तो नीचे लिखी पंक्तियों को पढ़कर  लगा कि जैसे मैं एक ऐसी जगह पहुँच गई हूँ जहाँ कच्ची शराब जैसे विचारों की खुशबू  से एक अजब सी मदहोशी छा रही हो...एक एक शब्द शराब के घूँट सा दिल में उतरता है..कभी तीखा कसैला तो कभी फीका और कभी शहद सी मिठास लिए ....दूसरी तरफ अरब के रेगिस्तान ने अपने देश के रेगिस्तान को भूलने नहीं दिया उसका खुमार अलग था... फिर तो एक के बाद एक कितने ही पड़ाव उस नशे में पार कर लिए... 
हथकढ़, कच्ची शराब को कहते हैं. कच्ची शराब एक विचार की तरह है. जिसका राज्य तिरस्कार करता है और उसे अपराध की श्रेणी में रखता है. वह अपने जड़ होते विचारों के साथ जीने की शर्तें लागू करता है. मेरे पास भी विचार व्यक्त करने का कोई अनुज्ञापत्र नहीं है. इस ब्लॉग पर जो लिखता हूँ, वह एकदम कच्चा और अनधिकृत है. मेरे लिए ये नमक का कानून तोड़ने या खूबसूरत स्त्री को इरादतन चूमने जितना ही अवैध है.
 रेत के समंदर में बेनिशाँ मंज़िलों का सफ़र है. अतीत के शिकस्त इरादों के बचे हुए टुकड़ों पर अब भी उम्मीद का एक हौसला रखा है. नौजवान दिनों की केंचुलियाँ, अख़बारों और रेडियो के दफ्तरों में टंगी हुई है. जाने-अनजाने, बरसों से लफ़्ज़ों की पनाह में रहता आया हूँ. कुछ बेवजह की बातें और कुछ कहानियां कहने में सुकून है. कुल जमा ज़िन्दगी, रेत का बिछावन है और लोकगीतों की खुशबू है.

 पिछले दिनों अमित की कहानी पढ़कर सारा नशा हिरन हो गया... एक के बाद एक पोस्ट पढ़ते हुए दिन से शाम हो गई ... शब्द ज़िन्दा होकर जैसे  मुझे कभी राजस्थान तो कभी मुम्बई ले जाते...सब कुछ जैसे मेरे सामने ही घटित हो रहा था.... अमित और किशोर के साथ मैं भी उनके पीछे पीछे स्कूल  से कॉलेज  फिर राजस्थान से मुम्बई  की ज़िन्दगी की कठोर सच्चाई का सामना कर रही थी मूक और जड़ सी होकर... 


हम सब कुछ नहीं हैं. ये दुनिया फ़ानी है. 
मेरा मन कच्ची शराब का कारखाना है. तेज़ गंध वालीतीखी और गले की नसों को चीरने की तरह चूमती हुई उतरती शराब बुनता है. ये शराब उदासी के सीले रूई पर तेज़ाब की तरह गिरती है. एक धुआँ सा उठता है. इस कोरे ख़याल में मन खो जाता है कि उदासी खत्म हो रही है. जल रहा है सब कुछ जो ठहरा हुआ और भारी था. जिसके बोझ तले सांस नहीं आती थी----

(एक एक शब्द कच्ची शराब के तीखे घूँट सा दिल को चीर रहा है...)

मेरा मन एक जादूगर का थैला है. मैं उसमें से शराबी खरगोश निकालता हूँ. शराबी खरगोश के फर से बन जाती है एक नन्ही बुगची. उसमें रखा जा सकता है इस भुलावे को कि खरगोश ज़िंदा है. 
अमित की लिखावट सबसे खराब थी मगर उसकी लेखनी में जीवन बसता था वह सबसे अधिक सुन्दर था.
ये कहानी जहाँ छपेगी उसके साथ मुझे मानू की तस्वीर चाहिए. तुम्हारा प्रेम जो बेलिबास था उसे सब पागलपन समझते थे.   (अमित की नन्हीं बिटिया की याद आ गई...)

दुकान के आगे बबूल के नीचे एक घड़ा मिटटी में दबा रहता था. ये लोकल फ्रीज़ का काम करता था. जो भी आता दो रुपये देकर एक लोटा शराब पी सकता था. बच्चन की मधुशाला जो भेद मिटाती हैवही पावन कार्य उगम जी के यहाँ हुआ करता था.
गफ़ूर एक निहायत शरीफ और सीधा सादा लड़का हुआ करता था. उसका खाना पीना रहना सब एक जैनी के यहाँ होता था. जबकि तीस साल बाद आज भी रुढियों और बेड़ियों में जकड़े हुए समाज मेंये किसी जैनी के बस की बात न होगी कि वह किसी मुस्लिम को अपने घर में बच्चे की तरह रख सके. धारीवाल सर मेरे लिए ज़िंदा भगत सिंह थे.  
(काश ऐसी कोई जादुई शक्ति सारी दुनिया को उन जैसा बना दे)

ये सख्त बापों का ज़माना था. सारे बाप इस होड़ में थे कि वे सख्ती में एक दूसरे से आगे निकल सकें. सारी औलादें इस धरती पर उपलब्ध अतुलनीय ज्ञान से जानबूझकर वंचित रखी जा रही थी. जो बाप पीटते नहीं थे वे इस तरह देखते थे जैसे पीट रहे हों. 
( ऐसे पिता की संतान या तो बन जाती है या पूरी तरह से बिगड़ जाती है)

ऐसा लगता था कि जिस तरह सामंतों ने मंगणियारों जैसी जिप्सी गायक कौमों का संरक्षण किया उसी तरह अमित आगे चलकर साहित्य का संरक्षक बनेगा. वह मेरा दुष्यंत कुमार था और वही दिनकर भी. लेकिन इस सब से बढ़कर वह सिनेमा का अद्भुत स्क्रिप्ट रायटर स्टीव मार्टिन और एडम मैके लगता था.

मगजी माडसाब को प्रिंसिपल साहब ने किसी बात पर कहा कि मिठाई खिलाओ. वे बाहर आए और महिला चपड़ासी को कहा कि बाई जी आपको प्रिंसिपल साहब बुला रहे हैं. बाई जी अंदर गयी. प्रिंसिपल साहब ने कहा कि मैंने तो नहीं बुलाया है. वास्तव में उन बाई जी का नाम था इमरती देवी. लेकिन मगजी इमारती देवी को प्रिंसिपल साहब को और बच्चों को खूब प्रिय थे.
 (स्कूल की ऐसी अनगिनत मीठी यादें हमेशा साथ रहती हैं) 

उसने बस के रवाना होने से पहले मेरे हाथ में एक पर्ची रखी. जब बस चली गयी और मैं घर आया तब मैंने उसे पढ़ा. उसमें लिखा था- क़यामत से कम यार ये ग़म नहीं/ कि मैं और तूँ रह गए हम नहीं. 
(कितने दूर हो जाएँ लेकिन स्कूल की दोस्ती ताउम्र साथ रहती है) 

अपने जिले के कई गांवों में किसानों के साथ रात बिताता और समझना चाहता कि असल माजरा क्या है. रोटी उगाने वाला खुद भूखा क्यों है?  
(इस सोच के लिए आपको ढेरों शुभकामनाएँ )

लाखों सपने देश के कोनों से चलकर आते हैं और बोम्बे में आखिरी सांस लेते हैं. 
अमित स्वेच्छा से चक्रव्यूह में अपने पाँव रख चुका था और उसके लौटने का खेल शुरू होने से पहले ही उसके अपनों ने घेरा कसना शुरू कर दिया था. 
(काश इंसान पंछियों से सीख पाता कि कोमल पंखों के होने पर भी जन्मदाता उन्हें उड़ान भरने के लिए हौंसला देते हैं न कि अपने डैनों में उम्र भर के लिए छिपा कर रखते हैं)

मेरा प्रेम मेरे जन आंदोलन ही थी. अमित का प्रेम था फ़िल्मी संसार. 
( पसन्द अलग होने पर भी दो लोग साथ रह सकते हैं )

अमित जिस माँ कि कहानी लिखता थाउसी को खो देने के डर से बाड़मेर आया. आते ही गिरफ्तार कर लिया गया. 
इसी दबाव में अमित मर गया. उसने नींद की गोलियाँ खाकर आत्मा हत्या कर ली. 
पन्द्रह दिन बाद मुझसे मिला. कहने लगा- मौत ने धोखा दिया. माँ का रोना देखा नहीं जाता. भाइयों की बेरुखी पर अफ़सोस होता है. पिताजी बात करते नहीं. मैं अब कारखाने में रणदा लगाऊंगा. ट्रकों की बॉडी बनाऊंगा.  
 (इतना पढ़ते ही कलेजा मुँह को आ गया...ऐसी बेबसी जीना मुहाल कर देती है ..इस घुटन को कोई नहीं समझ सकता)

एक ही फ्लेट में आठ दस कामगारयुद्ध बंदियों की तरह काल कोठारी सा जीवन बिता रहे थे. उनके जीवन का ध्येय लकड़ियाँ छीलते जाना ही बचा रह गया था. वे सुथार कभी कभी अपना रणदा और आरी छोड़ कर अपनी देह की भूख मिटाने के लिए गणिकाओं की चौखट पर रोमांच तलाश आते थे. 
(खाड़ी के देशों के अनगिनत कामगार याद आ गए, उनकी हालत और भी बदतर है क्योंकि वे विदेश में होते हैं)

अट्टालिकाओं के शहर से बिछड़ कर अमित एक बार फिर रेगिस्तान की गलियों में था. 

हुनर के कत्लखाने बोम्बे में वह कितना कामयाब होता ये नहीं मालूम मगर वह अपनी पसंद का जीवन जीते हुए आधे सच्चे आधे बाकी ख्वाबों के साथ अंतिम साँस ले सकता था.  – 
(जन्मदाताओं को यह बात अगर समझ आ जाए तो कई जीवन नष्ट होने से बच जाएँ)

इस तरह अट्टालिकाओं के ख्वाब देखने वाला आदमी एक चार गुणा छः की जगह में स्वेच्छा से खुद को कैद कर चुका था. 
 ( अमित को जीवन के इस मोड़ पर खड़े देख कर दिल डूब गया)

अमित ने ग्राम सेवक के रूप में जो ग्रामीण जीवन अपनाया था वह उसी ग्राम्य जीवन की चालबाजियों का शिकार हो गया. जिस गाँव में उसकी पोस्टिंग थी वहाँ के सरपंच ने अमित को अफीम की लत लगा दी. 
( शहर हो या गाँव हर जगह ऐसे दुष्ट लोग मिल जाएँगें)


दो नाम है सिर्फ इस दुनिया में एक साक़ी का एक यज़दां का 
एक नाम परेशा करता है एक नाम सहारा देता है.

मुझसे कभी नहीं कहता था कि तुम पियोगेइसलिए कि वह बरसों से जानता था कि मैं इस तरह राह चलते हुए कभी शराब न पी सकूंगा. मेरे घर में शराब टेबू नहीं रही. मेरे पुरखे शराब को बड़े कायदे से पीते थे.

 (इस बात को अगर आज के अभिवावक भी समझ लें तो अपने बच्चों की ज़िन्दगी को और भी आसान बना सकते हैं..)

अमित के पास से लौटते हुए हम दोनों बेहद उदास और चुप थे. हमारे अंदर उसके इस हाल के प्रति जिनती सहानुभूति थी उतना ही गुस्सा भी था. जिन तीन साल उसने ज़िन्दगी को संवारने की लड़ाई लड़ी थी. वे तीन साल कहीं दिख नहीं रहे थे. एक बियाबां उग रहा था. सपनों के दरख़्त तल्ख़ सच्चाई की कड़ी धूप तले झुलस चुके थे. 
वो कुछ नहीं था. मैं कुछ नहीं हूँ. हम सब कुछ नहीं हैं. ये दुनिया फ़ानी है. ये फ़ानी होना ही ज़िंदगी होना है. ये ज़िंदगी एक तमाशा है. ये तमाशा एक धोखा है. ये धोखा एक भ्रम है. ये भ्रम एक अचेतन का देखा हुआ दृश्य है. इस दृश्य मेंइस इल्यूजन में मगर मेरी आँख से ये जो आंसू अभी टपक पड़ा हैये क्या है?
एक तड़पएक गहरी डूबी आहएक साबुत रुदन कितना होता है?  --


( तड़प, आह और रुदन से जन्में आँसू तेज़ाब से कम नहीं जो मेरी आँखों और गालों को जला रहे हैं...आज जाने कैसे पहुँची उस रेगिस्तान में जहाँ हथकड़ की कच्ची शराब दबी थी ज़मीन के नीचे कच्चे घड़े में जिसे पूरे का पूरा एक ही बार में खतम कर दिया....नशा नहीं हुआ लेकिन उसका तीखापन जलन और गंध कई दिनों तक अन्दर तक जलाती और सताती रहेगी...काश कि आने वाली संतानें अपनी इच्छा से जीवन की राह चुन सकें.. ईश्वर से विनती है कि अमित की संगिनी और संतान को इस असीम दुख को सहने की शक्ति मिले..)

क़ैद ए हयात ओ बंद ए ग़म असल में दोनों एक है 
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों 





शुक्रवार, 16 मई 2014

कजरी बंजारन


 ट्रैफिक लाइट पर रुक कर अजनबी बंजारन से नज़र मिलना और उसकी मुस्कान से सुकून पा जाना...ऐसे अनुभव याद रह जाते हैं. सड़क के किनारे टिशुबॉक्स एक तरफ किए बैठी उस खूबसूरती को देखती रह गई थी, फौरन कैमरा निकाल कर क्लिक किया ही था कि उसकी नज़र मुझसे मिली....

पल भर के लिए मैं डर गई लगा जैसे रियाद में हूँ जहाँ सार्वजनिक स्थान पर फोटो खींचना मना है.. दूसरे ही पल  हम दोनों की नज़रें मिलीं और मुस्कान का आदान प्रदान हुआ तो चैन की साँस आई कि मैं अपने ही देश में  हूँ ...फिर भी बिना इजाज़त फोटो लेने की झेंप दूर करने के लिए चिल्लाई, " क्या नाम है तुम्हारा.....एक फोटो खींच लूँ?" सिर हिला कर वह भी वहीं से चिल्ला के कुछ बोली और फिर से मुस्कुरा दी.. बस 'ईईईईई' इतना ही सुनाई दिया....उसकी पोशाक और रंग देखकर ईईई से कजरी नाम का ही अनुमान लगाया...वह अपनी मासूम मुस्कान के साथ  मेरे दिल में उतर गई..

फोटो तो मैं पहले ही खींच चुकी थी लेकिन दिल किया कि कार एक साइड पर रोक कर उसीकी बगल में बैठ जाऊँ लेकिन उस वक्त ऐसा करना मुमकिन नहीं था. दुबारा उसी रास्ते से कई बार गुज़री लेकिन मुलाकात न हो पाई. कभी कभी ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर किसी अजनबी से पल भर के लिए हुई एक मुलाकात भी भुलाए नहीं भूलती.

कमली(पागल) ही थी जो उसकी बगल में बैठने की चाह जगी थी... अचानक एक दिन पुरानी तस्वीरें देखते हुए अपनी एक तस्वीर पर नज़र गई. दमाम से रियाद लौटते वक्त कार खराब हो गई थी..पति वर्कशॉप गए और मैं घर के नीचे ही फुटपाथ पर बैठ गई थी. सामान के साथ फिर से ऊपर जाने की हिम्मत नहीं थी. उस तौबा की गर्मी में इंतज़ार आसान नहीं थी लेकिन हालात ऐसे थे कि चारा भी नहीं था. उसी दौरान न जाने कब छोटे बेटे ने तस्वीर उतार ली थी..

दुबारा उस तस्वीर को देखते ही कजरी बंजारन की याद आ गई. मुझमें और उसमें ज़्यादा फ़र्क नहीं लगा...
बच्चों जैसे खुश होकर दोनों तस्वीरों को मिला कर देखने लगी...तस्वीरों की समानता ने ही खुश कर दिया...
कितनी ही ऐसी छोटी छोटी खुशियाँ ज़िन्दगी को खुशगवार बना देती हैं..


मेरे देश का रेतीला रंगीला राजस्थान---वहाँ  के प्यारे लोग और उनका मनमोहक रहनसहन ...





बुधवार, 14 मई 2014

बेटे का मुबारक जन्मदिन

  

भूली बिसरी यादों की महक के साथ बेटे का जन्मदिन मनाना भी अपने आप में एक अलग ही अनुभव है...जैसे माँ पर लिखते वक्त कुछ नहीं सूझता वैसे ही बच्चों पर लिखना भी आसान नहीं... माँ और बच्चे का प्यार बस महसूस किया जा सकता है.

 जैसे अभी कल की ही बात हो , नन्हा सा गोद में था फिर उंगली पकड़ चलना सीखा, फिर दौड़ने लगा 


वक्त ने सख्त इम्तिहान लिया जिसमें अव्वल आया. जद्दोजहद स्कूल से शुरु हुई , दर्द ने जकड़ा तो बैसाखी का सहारा लिया जिसने स्कूल से लेकर कॉलेज तक साथ दिया.


2008 में डिग्री लेने के बाद एक नई ज़िन्दगी जीने की राह चुनी. 2009 में दर्द से निजात पाने के लिए अपने दोनों हिप जोएंटस एक साथ बदलवा दिए. सर्जरी के दो महीने बाद ही अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के लिए तैयार था. बस उसके बाद तो फिर रुकने का नाम नहीं. 
फिर तो टीन एज के सपने, जवानी की मस्ती, बेफिक्री का जीना सब कुछ करते हुए अब भी एक ही जुमला सुनने को मिलता है कि अभी तो मस्ती शुरु हुई है.


बेटे की आत्मशक्ति पर जितना यकीन है उतना ही यकीन दुआओं के जादुई असर पर है. रियाद, दुबई ईरान और अपने देश के परिवार , मित्रजन ..खासकर ब्लॉग जगत के कई मित्र जिन्हें भुलाना मुमकिन नहीं. उनकी दुआओं का असर है तभी आज बेटा ज़िन्दगी के अलग अलग पड़ावों का आनन्द लेता हुआ आगे बढ़ रहा है. 



सोमवार, 12 मई 2014

सुबह का सूरज




ऊँची ऊँची दीवारों के उस पार से 
विशाल आसमान खुले दिल से 
मेरी तरफ सोने की गेंद उछाल देता है 
लपकना भूल जाती हूँ मैं 
 टकटकी लगाए देखती हूँ
नीले आसमान की सुनहरीं बाहें 
और सूरज की सुनहरी गेंद 
जो संतुलन बनाए टिका मेरी दीवार पर 
   पल में उछल जाता फिर से आसमान की ओर
छूने की चाहत में मन पंछी भी उड़ता
खिलखिलातीं दिशाएँ !!





गुरुवार, 8 मई 2014

नो वुमेन नो क्राई..नो नो...वुमेन नो ड्राइव

तुम बहुत नाज़ुक हो कोमल हो
बला की खूबसूरत हो तुम
चेहरा ढक कर रखो हमेशा
बुर्के में रहो बिना मेकअप के
आँखों पर भी हो जालीदार पर्दा
काजरारी आँखें लुभाती हैं ............
मर्द मद में अंधा हो जाता है
ग़र कोई मर्द फिसल गया
अपराधी कहलाओगी

तुम बहुत नाज़ुक हो कोमल हो
तुम घर के अंदर महफ़ूज़ हो
तुम्हारे पैर बेहद नाज़ुक हैं
दुनिया की राहें हैं काँटों भरी
मैं हूँ न तुम्हारा रक्षक
बाकि सारी दुनिया है भक्षक ..........
घर की चारदीवारी में रहो
पति परिवार की प्यारी बनकर
मेरे वारिस पैदा करो बस

तुम बहुत नाज़ुक हो कोमल हो
मैं शौहर हूँ और शोफ़र भी
कार की पिछली सीट पर बैठी
राजरानी पटरानी हो तुम मेरी
औरत के लिए ड्राइविंग सही नहीं ...........
डिम्बाशय गर्भाशय रहेंगे स्वस्थ
मुश्किलें और भी कई टलेगीं
ड्राइव करना ही आज़ादी नहीं
मर्द ही निकलते हैं सड़कों पर

ऐ औरत ! ख़ामोश रहो !
आज़ादी की बेकार बातें न करो
सौ दस कोड़े खाकर क्या होगा
जेल जाकर फिर बाहर आओगी
फिर आज़ादी का सपना लोगी
हज़ारों हक पाने को मचलोगी ............
हसरतों की  रंगबिरंगी पर्चियाँ
बनाओ दफ़नाओ,बनाओ दफ़नाओ
बस यही लिखा है तुम्हारे नसीब में

आख़िरी साँस तक लड़ने की ठानी .........
क्या है आज़ादी  समझ गई औरत !





सोमवार, 5 मई 2014

अपनापा




रोज़ की तरह पति को विदा किया
दफ़तर के बैग के साथ कचरे का थैला भी दिया
दरवाज़े को ताला लगाया
फिर देखा आसमान को लम्बी साँस लेकर
सूरज की बाँहें गर्मजोशी से फैली हैं
बैठ जाती हूँ वहीं उसके आग़ोश में..  
जलती झुलसती है देह
फिर भी सुकूनदेह है यूँ बाहर बैठना
चारदीवारी की कैद से बाहर 
ऊँची दीवारों के बीच 
नीला आकाश, लाल सूरज, पीली किरणें 
बेरंग हवा बहती बरसाती रेत का नेह 
गुटरगूँ करते कबूतर, बुदबुदाती घुघुती 
चहचहाती गौरया 

यही तो है अपनापा !!