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शनिवार, 4 मई 2013

सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (2)


(चित्र गूगल के सौजन्य से) 

सुधा अपने आप को अपनों में भी अकेला महसूस करती है इसलिए अपने परिचय को बेनामी के अँधेरों में छिपा रहने देना चाहती है....  मुझे दीदी कहती है...अपने मन की बात हर मुझसे बाँट कर मन हल्का कर लेती है लेकिन कहाँ हल्का हो पाता है उसका मन.... बार बार अतीत से अलविदा कहने पर भी वह पीछे लौट जाती है...भटकती है अकेली अपने अतीत के जंगल में ....ज़ख़्म खाकर लौटती है हर बार...
उसका आज तो खुशहाल है फिर भी कहीं दिल का एक कोना खालीपन से भरा है.... 'दीदी, क्या करूँ ...मेरे बस में नहीं... मैं अपना खोया वक्त वापिस चाहती हूँ .... वर्तमान की बड़ी बड़ी खुशियाँ भी उसे कुछ पल खुश कर पाती हैं फिर वह अपने अतीत में चली जाती है.....       सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी  (1) 

पिछले साल सुधा से मुलाकात दिल्ली में हुई थी... पश्चिमी दिल्ली में नया घर लिया था...नई जगह , नए पड़ोसी ...सुधा सबसे पहले मिलने आई थी.... गोल मटोल छोटे से कद की ..हँसते माथे पर बड़ी सी लाल बिन्दी चमक रही थी..  हँसती हुई अचानक सामने आ खड़ी हुई थी...'मेरा नाम सुधा है... आप... ' मैं कुछ कहती उससे पहले ही अपने आप कह उठी.... दीदी कहूँ आपको... दीदी आपको किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझसे कहना.. ' मैं अन्दर बुलाने के लिए उसे कहती उससे पहले ही उसके बेटे ने पीछे से आवाज़ दी कि पापा का फोन आया है और वह वापिस लौट गई लेकिन उसके बाद कुछ ही दिनों में उसने अपने स्वभाव से मेरा मन जीत लिया...घंटों आकर बैठती अपने सुख दुख कहानी की कह जाती....उन्हीं दिनों उसने मुझे अपनी डायरी भी पढ़ने को दी थी और मैंने वादा किया था कि एक दिन अपने ब्लॉग़ पर उसकी कहानी ज़रूर लिखूँगी...
आजकल रियाद लौटी हूँ जहाँ वक्त कुछ ज़्यादा मेहरबान होता है सो लिखने बैठी हूँ पूरा मन बना कर.... आजकल सुधा कुवैत में है और मैं यहाँ रियाद में हूँ ... तय हुआ कि हम दोनों स्काइप पर बात करते हुए कहानी को अंजाम देंगे...
नया नया स्मार्टफोन सुधा के हाथ में है....स्काइप पर मेरे से बात करते करते अपने बेटे बहू की तस्वीर दिखा रही है जो अभी अभी उसके फोन पर आई है...बार बार एक ही बात दोहराती है सुधा कि नन्हीं प्यारी सी बहू पाकर वह धन्य हो गई.... असल में बहू नहीं बेटी मानती है उसे... कोमल की बात करते ही खुद पिघलने लगती है ..... 'मेरे घर आई एक नन्हीं परी' गीत उसे मेल करते हुए रोती भी जा रही है..आँसू प्यार के हैं ...दुलार के हैं...
कोमल को मेल मिलता है तो वह फौरन टैंगो पर आ जाती है..स्काइप पर मेरे साथ है तो फोन पर बेटे बहू के साथ ...बीच बीच में छोटे बेटे के मैसेज भी देख रही है.... बेटे बहू को देख कर तो सुधा निहाल हो जाती है.... बेटे की बलाएँ लेती है तो कभी उसे  डाँट देती है ..'मेरी बेटी को कुछ खिलाया पिलाया कर... देख  कितनी कमज़ोर हो गई है... ' ... सुधा की बात सुनकर दोनों खिलखिला उठते......उनकी खिलखिलाहट उसे बच्ची बना देते... जाने कैसी कैसी बच्चों जैसी हरकतें शुरु कर देती कि बच्चों का हँसते हँसते बुरा हाल हो जाता.....कॉलेज के लिए निकलते बच्चों को बाय बाय करती है कि छोटा बेटा दिल्ली से मैसेज कर देता है कि आलू शिमलामिर्च की सब्ज़ी कैसे बनाए....उधर वह अपने बेटे से बात करती है ... इधर स्काइप खुला छोड़ कर मैं भी अपनी किचन में चली जाती हूँ... अभी आटा गूँद कर फ्रिज  में रखती हूँ कि आवाज़ आ जाती ... 'दीदी ... मैं फ्री हो गई...आ जाओ.. ' लेकिन मुझे लगता है कि अब किचन का काम खत्म करके ही लौटूँ इसलिए सॉरी कहकर कुछ देर बाद मिलने का वादा करती हूँ .......
 लेकिन सुधा यह सुनकर एकदम ही उदास हो जाती है ...मैं मूक सी उसे देखती रह जाती हूँ...पर क्या करूँ घर के काम भी करने ज़रूरी हैं.....उधर वह अकेली ही निकल पड़ती है फिर से अपने अतीत के जंगल में ...जहाँ काँटों के सिवा कुछ नहीं मिलता उसे .. शायद उसे बार बार उन जंगलों में लहूलुहान होकर भटकना भाने लगा है..... वापिस लौटती हूँ तो फिर अपनी कहानी कहने लगती है, 'दीदी आप मेरे अकेलेपन के दर्द को नहीं समझ सकतीं.....मुझे आजतक कोई नहीं समझ पाया',  कह कर रोने लगती... मुझे समझ न आता कि कैसे उसे हौंसला दूँ....कुछ ही पल में वह खुद ही सँभल जाती.....
सात भाई बहन में सबसे छोटी थी सुधा....पैदा हुई तो माँ पिताजी में से किसी ने उसे दुलार न दिया बल्कि होश सँभलने पर यही सुनती कि पता नहीं कैसे टपक पड़ी....मासूम बचपन सब से अलग कुछ और ही सोचता... भाग भाग कर माँ पिताजी का छोटा छोटा काम करके जबरदस्ती गले लग जाती... 'माताजी..देखो, मैंने सारा काम खत्म कर दिया, मैं अच्छी हूँ न...प्यार करो न मुझे...' और झट से माँ की गोद में बैठ जाती... माँ का थोड़ा सा दुलार ही उसके लिए बहुत होता...
पिताजी को देख कर तो सबके प्राण सूख जाते.... सुधा ही नहीं सभी भाई बहन घर के एक कोने में दुबक जाते... पिताजी काम के सिलसिले में सफ़र पर निकलते तो 3-4 दिन से पहले घर न लौटते और जब लौटते तो छोटी छोटी बातों पर कपड़े धोने वाले डंडे से खूब मारते....माँ भी कम न थी, गाय-भैंस को बाँधने वाली साँकल कमर में डालकर ताला लगा कर खिड़की की रॉड से बाँध देती....
सुधा स्काइप पर बात करते करते ही हिचकियों से रोने लगी....बड़े भाई याद आ गए जो कम उम्र में ही दुनिया छोड़ गए... रुँधी आवाज़ में ही बोलती चली गई थी वह.... कई दिनों का रुका यादों का तूफान आज जैसे दर्द की नदी में सब कुछ बहा कर अपने साथ ले जा रहा हो ..... मैंने भी उसे रोकना मुनासिब न समझा....
बड़े भाई की शादी हुई .... भरे पूरे परिवार में भी दुल्हन का मन नहीं लगा.... बड़ी बहू थी घर की लेकिन एक ही झटके में सब रिश्ते तोड़ कर वापिस अपने मायके चली गई.... सूरज भैया अकेले पड़ गए... घर वालों ने उन्हें भी बोरिया-बिस्तर बाँध कर घर से निकाल दिया कि वह भी अपनी पत्नी के साथ ही रहे चाहे घर दामाद ही क्यों न बनना पड़े... सुधा के भैया थे गैरतमन्द पत्नी के पास नहीं गए.. ...जब तक किसी छोटे से ठिकाने का इंतज़ाम होता तब तक के लिए वे दफ़्तर के ही एक कोने में सो जाया करते....
सुधा लाड़ली थी अपने भैया की.... दफ़्तर के लंच टाइम में उसके सूरज भैया स्कूल के गेट के बाहर वाले बैंच पर आकर बैठ जाया करते.... सुधा भी इंतज़ार करती कि कब आधी छुट्टी होगी और वह भैया से मिलेगी......दौड़ती हुई भाई के गले लग जाती और झट से अपना लंचबॉक्स खोलकर अपने हाथों से उन्हें खिलाने लगती....जानती थी कि भाई के रहने का ठिकाना नहीं तो खाने का कहाँ होगा....छुटकी बहन के आगे घर के सबसे बड़े बेटे की एक न चलती ..... भीगी आँखों से दोनों भाई बहन एक दूसरे को देखते खुश होते....
भाई से मिलने की सज़ा भी खूब मिलती....कपड़े धोने वाले डंडे से कमर नीली कर दी जाती और बाँध दिया जाता साँकल से ताला लगा कर ...बाकि भाई बहन को धमकी दे दी जाती कि खबरदार अगर किसी ने इसे खोला या खाना दिया....बाथरूम जाने के लिए भी ताला खुलता सिर्फ खिड़की से...कमर में तो साँकल बँधी रहती ... दरवाज़े की ओट में ही फारिग़ होना पड़ता और फिर से कैदी की तरह खिड़की के पास बाँध दिया जाता....खिड़की से बाहर नीला आसमान भी उचक उचक कर देखना पड़ता..... नीले आसमान का विस्तार उसे बहुत पसन्द था लेकिन उस खिड़की से दिखता था बहुत कम .....थक कर सो जाती तो  सपने लेती पंछी बन कर दूर तक उड़ान भरने के......
तीसरे दिन सुबह सुबह सुधा को अपनी बड़ी दीदी के रोने की आवाज़ आई.... माँ से रो रोकर कह रह थी कि अब तो उससे नहीं देखा जाता... रो रोकर कहने लगी, 'मुझे भी साथ बाँध दो या खाना खिलाने दो' ....जाने क्या सोच कर माँ ने साँकल खोल दी... माँ पिताजी से मार तो सब भाई बहन ने बहुत खाई था क्योंकि मार के मामले में खुला दिल था दोनों का ....लड़का लड़की का भी कोई भेदभाव नहीं था...छोटी छोटी बात पर मार मार कर नीला कर देते...घंटों बेहोशी छाई रहती.... .बात करते करते कभी सुधा खिलखिला देती तो कभी रो पड़ती.... मैं सोचती कैसे कहूँ कि कुछ पल रुको....साँस लो..... चाय की शौकीन सुधा के सामने जैसे ही चाय का नाम लिया तो तय हुआ कि चलो एक घंटे के बाद फिर मिलेंगे......
दुबारा मिलने पर बचपन के कुछ हँसी खुशी के पल बाँटने को कहा....दीवाली दशहरे पर माँ पिताजी पूरे साल की खुशी लुटा देते..पिताजी रामलीला में एक्टर हुआ करते थे जिस कारण पास मिलते थे...सभी सबसे आगे जाकर बैठते और रामलीला का आनन्द लेते.......होता यह कि एक ही रंग और प्रिंट के थान से सभी बच्चों के एक जैसे कपड़े घर ही सिल दिए जाते... दशहरे वाले दिन सभी एक जैसे नए कपड़े पहन कर बाहर निकलते...तरह तरह की मिठाइयाँ और जलेबी खाने का मज़ा उन दिनों ही आता....
इस मस्ती के अलावा सिनेमा या सरिता पत्रिका जैसे किसी भी किताब का ज़िक्र भी होता तो खूब पिटाई होती...उन दिनों सुधा की आँखों में सपने तैरते कि कब उसकी शादी होगी...कोई सुन्दर सा राजकुमार अपने साथ ले जाएगा.... नए नए कपड़े पहन कर सिनेमा देखने जाएगी... खूब घूमेगी फिरेगी...
बस ऐसे ही कुछ छोटे छोटे सपने लेकर एक आम लड़की जीना चाहती है यह मुझे महसूस हुआ सुधा से मिलने के बाद....सदियों से चली आ रहीं पुरानी परम्पराएँ , अच्छे बुरे रीति-रिवाज़ , अन्धविश्वास और जाने कैसी कैसी विचारधाराएँ  हमारे रहन-सहन में  रच बस गईं कि उन्हें किसी के भी दिल और दिमाग से निकालना आसान नहीं....
खुशी के पल कम बयाँ होते .....घूम फिर कर सुधा फिर से उदासियों के जंगल में खींच कर ले जाती... जहाँ दुख के झाड़-खँखार ज़्यादा होते...दर्द के काँटों में उलझ कर ज़िन्दगी तार तार हो ...उधर जाने से मुझे कोफ़्त होती है.... दुख और दर्द हर किसी के जीवन में होते हैं लेकिन उनका असर कम हो इसके उपाय जुटाना ज़रूरी है न कि उन्हीं में डूब कर छोटी सी अनमोल ज़िन्दगी को बेकार कर देना.... !
फिर मिलने का वादा करके हमने सुधा से अलविदा ली ....
(कहानी सच के एक अंश से शुरु होती है लेकिन अनायास ही कल्पना के कई रंगों से सजने लगती है)

क्रमश:

7 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

ab to aage ki kahani ka intzaar hai

रश्मि प्रभा... ने कहा…

सुधा मेरी आँखों से बहती रही शुरू से अंत तक ,,,,, आगे ?

अरुन अनन्त ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (05-05-2013) के चर्चा मंच 1235 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

rashmi ravija ने कहा…

सुधा का हाल पढ़ दुःख तो बहुत हुआ पर आश्चर्य नहीं हुआ, होते हैं दुनिया में ऐसे सैडिस्ट लोग भी

कहानी अच्छी जा रही है, आगे का इंतज़ार

रचना दीक्षित ने कहा…

रिश्ते निभाना भी आसान नहीं. बहुत बढ़िया लगी कहानी. अगले भाग का इंतज़ार रहेगा..

वाणी गीत ने कहा…


किसी ज़माने में माता पिता अक्सर ऐसे ही हुआ करते थे .
कहानी के अगले हिस्से का इन्तजार है !

Asha Joglekar ने कहा…

माता पिता कपडे धोने के डंडे से ...........

माँ सांकल से बांध कर बंद कर दे..............

क्या कहें...................

कहानी का अगला भाग कल पढूंगी.....