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शनिवार, 30 जुलाई 2011

गर्मी में सैर


आजकल घर की सफ़ाई का अभियान चल रहा है... दोनों बेटों की मदद से रुक रुक कर पूरे घर की सफ़ाई की जा रही है... दो तीन दिन में घर को रंग रोगन से नया रूप भी दे दिया जाएगा... इस बीच जाने क्या हुआ कि आँखें स्क्रीन पर टिक ही नहीं पातीं.... काली चाय को ठंडा करके उससे बार बार आँखें धोकर कभी काम तो कभी यहाँ उर्जा पाने आ बैठती हूँ कुछ पल के लिए लेकिन फिर लिखना पढ़ना न के बराबर ही है.....बस सैर को नियमित रखने की कोशिश जारी है ......... 

सैर के लिए तन्हा 
रात के पहले पहर निकलती हूँ
गर्मी के मौसम में
लाल ईंटों की पगडंडियों पर चलती हूँ 
जो लगती हैं धरती की माँग जैसी 
लेकिन बलखाती सी.. 
हरयाली दूब के आँचल पर 
टंके हैं छोटे बड़े पेड़ पौधे बूटेदार 
कभी वही लगते धरा के पहरेदार 
सीना ताने रक्षक से खड़े हुए 
कर्तव्य पालन के भाव से भरे हुए...
उमस घनेरी, घनघोर अन्धेरा  
अजब उदासी ने आ घेरा
फिर भी पग पग बढ़ती जाऊँ 
आस के जुगनू पथ में पाऊँ
मन्द मन्द मुस्काते फूल 
खिले हुए महकते फूल  
कहते पथ पर बढ़ते जाओ 
गर्म हवा को गले लगाओ !! 






बुधवार, 27 जुलाई 2011

सपने डराते भी हैं... .!

सपने अक्सर् सुहाने होते हैं लेकिन जब डराते हैं तो फिर भूलते नहीं.... कुछ् दिन से फिर शुरु हुए प्लेन क्रेश के सपने.... अच्छी तरह से जानती हूँ कि एक दिन हम सबने जाना है इसलिए मौत से भागना बेकार है.....

कभी बहुत पहले कनिष्का प्लेन क्रेश से भी पहले से हवाई दुर्घटना के सपने आते थे.... दूर आकाश में उड़ते जहाज़ों को क्रेश होते देखती हूँ .... कभी उनमें बैठी नहीं..... बीच बीच में ऐसे सपने आना बंद हो जाते हैं.... अब फिर से शुरु हुए वही सपने.... पिछले हफ्ते..... कल रात फिर ....... खड़ी हूँ धरती पर...नज़र है आकाश पर..... चाँद तारे क्यों नहीं दिखते.... सिर्फ हवाई जहाज़ ही क्यों दिखते हैं..... दिखते हैं तो दिखें...... लेकिन अचानक अपने रास्ते से भटकते.... तेज़ी से घूमते.. चक्कर लगाते.... धड़ाम से नीचे गिरते ही क्यों दिखाई देते हैं....... आजकल फिर से इन सपनों ने तंग करना शुरु कर दिया है.....

कुछ सपने दिल और दिमाग की डायरी में दर्ज हो जाते हैं और कुछ पल भर के लिए ही ज़िन्दा रह पाते हैं...

*बचपन का एक ही सपना याद रह जाता है .... ऊपर से नीचे की तरफ गिरना....

*समुद्र के किनारे एक किशोर लड़के को अजीब सी पोशाक में खड़े देखना... जो टकटकी लगाए मुझे देखता रहता है बिना कुछ बात किए.....सालों तक यह सपना आता रहा... फिर सच हो गया...

* एक बड़ा आलीशान घर हवेली जैसा.... ऊपर की ओर जाती लाल कालीन से ढकी सीढियाँ और उस पर चलता एक काले रंग का मकोड़ा......

*एक काला हाथ ...जबरन पकड़ कर अपनी ओर खींचता ......

*सफेद कपड़ों में लिपटी एक ममी को दरवाज़े की दहलीज पर खड़े मेरी तरफ देखना... चेहरा कभी दिखाई नहीं दिया....ऐसा लगता कि वह मेरी रक्षा के लिए दरवाज़े पर खड़ी है....

*सपनों में डैडी का आना.... हर सपने में मेरे करीबी दोस्त के साथ चिर परिचित मुस्कान के साथ बातें करना...असल ज़िन्दगी में एक बार मिले उस दोस्त को मम्मी डैडी अपना सा मानते जानते थे...

*रोते चाँद को देखना...फिर सपने में ही सोचना कि मुझे ही क्यों यह रोता चाँद दिखाई देता है....

*चाँद का पीला पड़ जाना..... उसके ऊपर काला जाला ....जिसे हटाने की पूरी कोशिश करना..... उसके बाद फीके चाँद का दिखना

* कई सपने आए और गए....लेकिन हवाई दुर्घटना के सपने हैं कि पीछा ही नहीं छोड़ते..... अनगिनत सपने हैं जिनमें प्लेन क्रेश होते हुए देखती हूँ और घबरा कर उठ जाती हूँ ... सभी सपनों में एक बात कॉमन है कि किसी भी हवाई जहाज़ में मैं कभी बैठी नहीं..... सभी को दूर से क्रेश होते देखती हूँ फिर भी मन बेचैन और अशांत हो जाता है....

इस वक्त मन शांत है.... मन कहता है मत घबरा.... हर हाल में खुश रहना है....ठान ले बस......
 मंज़िल तक जाने का रस्ता बदलेगा..... आसमान से...... आसमान में उड़ने की चाहत होगी पूरी ....
धरती पर..... धरती के आँचल में छिपने का सुख पाएगी..... जहाँ कहीं जैसे तैसे... जाना तो निश्चित है... !!


बुधवार, 13 जुलाई 2011

रूठी कविता


जाने क्यों आज सुबह से ....
मेरी 'कविता' रूठी है मुझसे
दूसरी कविताओं को देख कर
वैसा ही बनने की चाहत जागी है उसमें...
मेरे दिए शब्द और भाव अच्छे नहीं लगते उसे
दूसरे का रूप और रंग मोहते हैं उसे
मेरी 'कविता' नहीं जानती, समझती मुझे
मैं भी उसे उतना ही दुलारती सँवारती हूँ
जितना कोई और ............

जाने क्यों उसे भी आज के दौर की हवा लगी है...
अपने पास जो है उससे खुश नहीं....
दूसरे का रूप-रंग देख कर ललचाती है...
उन जैसा बनने की आस करने लगी है...
जो अपने पास है , वही बस अपना  है...
यह समझती ही नही....

जाने क्यों हीन-भावना से उबरती  नहीं ...
अपने स्वाभाविक गुणों  को  पहचानती नहीं
पालन-पोषण में क्या कमी रह गई...
कविता मेरी क्यों कमज़ोर हुई...
मैं हैरान हूँ , परेशान हूँ , उदास हूँ  !!


देख मुझे मेरी रूठी कविता ठिठकी
उतरी सूरत मेरी देख के  झिझकी
फिर सँभली....रुक रुक कर बोली....
"कुछ पल को कमज़ोर हुई...
नए शब्द औ' भाव देख के 
आसक्त हुई... 
तुम मेरी जननी हो...
मैं तुमसे ही जनमी हूँ ...
जो हूँ , जैसी हूँ ..
यही रूप  सलोना मेरा अपना है !!"





शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

कल रात मैं रात के संग थी...



कल रात मैं रात के संग थी
तन्हाँ सिसकती सी रात को ....
समझाना चाहा ...
हे रात ! तुम्हें ग़म किस बात का 
साए तो सदा साथ रहते हैं अंधेरों के... 
देखो तो दिवस को ... 
पहर दर पहर 
साए आते जाते हैं 
फिर साथ छोड़ जाते हैं... 
दिन ढलता जाता है 
और फिर मर जाता है...! 
हम भी कितने पागल है
यूँ ही बस किसी अंजान साए के पीछे भागते हैं... 

बुधवार, 6 जुलाई 2011

आज लाखों का नुक्सान हो जाता ग़र.....!

 मेरी नई चप्पल 

सच कहा गया है कि ईश्वर जो करता अच्छे के लिए ही करता है....हुआ यूँ कि कार की रजिस्ट्रेशन कराने के लिए एक कम्पनी से आए कर्मचारी को कार , पैसे और पेपर देने की जल्दी में बेटे के साथ हम अंडरग्राउंड पार्किंग  की तरफ जा रहे थे...पूरे साल का ज़ुर्माना लगभग 1,250 दरहम था....स्पीडिंग करने और  पार्किंग गलत करने या दस मिनट भी ऊपर हो जाने पर दुबारा टिकट न लगाने का हर्ज़ाना तो भरना ही था... रजिस्ट्रेशन की फीस भी देनी थी.....
पैसे कम पड़ गए थे इसलिए एटीएम मशीन से पैसे निकालने की जल्दी में ऊँची एड़ी की नई चप्पल पहन कर घर से निकले.......जाने क्या सोच कर ऊँची हील की चप्पल खरीद ली थी ...नए फैशन की नई चप्पल पहने हुए तेज़ गति से आगे बढ़ते जा रहे थे....एक पल के लिए भी नहीं लगा कि चप्पल कहीं धोखा दे जाएगी....दिखने में भी अच्छी और पहनने में भी सुविधाजनक.....पता नहीं क्यों हम ऊँचा होने की ललक नहीं छोड़ पाते.... पटक दिया उसने ज़मीन पर..... चप्पल ने ही सिखा दिया.....क्या ज़रूरत है ज़मीन से कुछ इंच भी ऊपर होने की...जहाँ हो, जैसे हो, वैसे ही रहो....!! 
जैसे हैं वैसे ही क्यों नहीं रह पाते, यह समझ आ जाए तो फिर कोई गिरता ही नहीं... गिर कर फिर उठने की कला से भी वंचित रहता......ख़ैर .दूसरों की नकल करने का अंजाम क्या होता है आज गिरने पर जाना...विद्वानों ने सही कहा है कि नकल करने में  भी अक्ल की ज़रूरत होती है.....मन ही मन ठान लिया कि हम जैसे हैं वैसे ही रहेंगे ...उसी रूप में जो स्वीकार ले वहीं अपना......... 
ज़मीन पर पड़े पड़े सोच रही थी कि अगर मैं वही पहले जैसी छरहरी , पतली सी टुथपिक जैसी होती तो लाखों का नुक्सान हो जाता.....गिरते ही झट से हड्डी टूट जाती ...क्या पता कंधे, कूल्हे या घुटने पर प्लास्टर चढ़वाना पड़ता.... अस्पताल का भारी खर्चा उठाना पड़ता..बिस्तर पर  पड़ जाते सो अलग......
मान भी लिया जाए कि पतले लोग सेहतमंद और मज़बूत होते हैं लेकिन धीरे धीरे पचास तक आते आते  हडियाँ तो  कमज़ोर  होने ही लगती हैं... उस पर अगर माँस मज्जा की कमी हो तो पूछो नहीं कितना पैसा डॉक्टरों की जेब में जाने को आतुर हो जाए......
अब हम खाते पीते घर के हैं....वैसे ही भरे पूरे परिवार के दिखने भी तो चाहिए...... लेकिन घरवालों की  रातों की नींद बेकार में ही ग़ायब हो जाती है....हमें देख देख कर दिन रात बस हमारी लम्बी उम्र की कामना करते हुए दिखते हैं...अब उन्हें कैसे समझाएँ कि हम जैसे सेहतमंद लोगों का दिल झट से चाबी की तरह शरीर से निकलता है और कार बन्द... :) होना भी यही चाहिए न.... सोते सोते ही निकल जाओ चुपके से... 
खैर इतनी लम्बी भूमिका के बाद असल कहानी पर आते हैं कि आज सुबह सुबह हम गिर गए...पैर फिसला नहीं (शुक्र है)अचानक से बायाँ पैर मुड़ गया... दाहिना पैर आगे निकल गया... अब दोनों पैरों को दिमाग क्या आदेश देता...वह भी कंफ्यूज़ हो गया..... हम धड़ाम से ज़मीन पर...... लेकिन गिरते ही  दिमाग ने दाएँ बाज़ू को संकेत दे दिया कि सहारा देकर गिरते हुए शरीर को सँभाल लेना .... बस दाईं बाज़ू के सहारे इतने ज़ोर से गिरे कि लगा जैसे भूचाल आ गया हो.... एक पल लेटे रहे...दो पल बैठे रहे.... इधर उधर देखने लगे कि कोई देख तो नहीं रहा....आज तक समझ नहीं आया कि गिरते हुए को देख कर लोग हँसते क्यों हैं.... मज़ा क्यों  लेते हैं जैसे वे तो कभी गिरते ही न हों....  
शुक्र  था कि अंडरग्राउंड पार्किंग में सिर्फ दो कर्मचारी काम कर रहे थे....दौड़े आए....फर्श पर लाल रंग के रोग़न की चमकती दो तीन बूँदें देख कर घबरा गए...बैठे बैठे ही हमने बड़ी सी मुस्कान बिखेरते हुए कहा...'आए एम एन इंडियन वुमैन' ...दोनो कर्मचारी यह सुनते ही मुस्कुराते हुए वापिस लौट गए..... भारतीय औरत ही क्यों पूरी दुनिया की औरत का इतिहास  किसी से छिपा नहीं........कभी कभी औरत लीची फल जैसी दिखती है...एक आवरण ओढ़े कोमल मन रसभरा फल जैसा.. जो अन्दर ही अन्दर सख़्त गुठली जैसे गज़ब का बल लिए रहती है... 
उसी पल अपनी कार की तरफ बढ़ता बेटा पीछे पलटा... उसे समझ नहीं आया कि क्या करे....भागता हुआ मुझे उठाने की कोशिश  करता उससे पहले ही हम आधे उठ चुके थे...(ऊपर के लिए नहीं...:) ) घुटनों के बल खड़े हुए तो बेटे ने हाथ देकर खड़ा कर दिया... वैसे वह न भी होता तो दो नहीं तो पाँच मिनट के बाद खुद ही खड़े हो जाते... वह तो सामने सुविधा देख कर हम कमज़ोर होने लगते हैं या दिखाने लगते हैं.... 
खैर खड़े हुए...चाहे हम  ज़िन्दगी का आधा सफ़र  पार कर चुके हैं फिर भी  इतना तो यकीन था कि हड्डियाँ ज़मीन से बहुत दूरी पर थी... उनके टूटने का तो सवाल ही नहीं था ...  बेटा परेशान देख रहा था... झट से कार की चाबी लेकर खुद ड्राइविंग सीट पर बैठ गया ..... काँपते हुए हम पेसेंजर सीट पर जा बैठे.....बार बार एक ही सवाल करता गया...  .. 'आप ठीक तो है..... हाथ हिलाइए...पैर हिला कर दिखाइए... ' अच्छी भली कसरत करवा निश्चिंत हुआ कि सब ठीक है लेकिन उसे समझ न आया कि शरीर अन्दर तक कैसे हिल गया.....
अब उसे समझाने के लिए उनके बचपन के दिनों के एक खिलौने की चर्चा करनी पड़ी.....पंचिंग टॉय जिसे पंच मार मार कर बच्चे  गिराते  लेकिन फिर से वह उठ खड़ा होता ...उसके तल में मिट्टी का बैग अगर टूट कर अन्दर ही बिखर जाए तो बेचारा एक पंच खाकर भी फिर उठ नहीं पाता...शरीर के अन्दर के दर्द के लिए दिए गए उदाहरण को सुन कर वह ज़ोर से हँसने लगा..... उसे देख मैं भी खिलखिला उठी....
पंच खाने के इंतज़ार में 

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

गुलमोहर और ताड़


मेरे घर के सामने

हर रोज़ ध्यान लगाने की कोशिश करती हूँ ....
आँखें खुलते ही शीशे की दीवार से पर्दा हटा देती हूँ ...
दिखता है विस्तार लिए नीला आसमान ... 
उस पर उसी के बच्चे से बादल
हँसते-रोते सफ़ेद रुई के फोहे से 
कभी कभी तो धुँए के तैरते छल्लों से लगते  ...
ध्यान हटाती हूँ ...
आँखें नीचे उतरने लगती हैं पेडों पर ....

गुलमोहर और ताड़ के पेड़
कैसे एक साथ खड़े हैं...बाँहों में बाँहें डाले...
गुलमोहर की नाज़ुक बाँहें नन्हें नन्हें 
हरे रोमकूप से पत्तों सी कोमल...
ताड़ की सूखी खुरदरी... 
तीखी नोकदार फैली हुई सी बाँहें.....
फिर भी शांत..ध्यानमग्न हो जैसे एक दूसरे में...
मेरा ही ध्यान क्यों टूट जाता है....!! 

अपनों के बीच भी हम कहाँ रह पाते हैं
अपना मान कर एक दूसरे को ...!!