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शनिवार, 25 अप्रैल 2009

फिर से मिलने की ललक

याद आई अपने बोंजाई पौधे की जो पिछली बार आखिरी साँसें ले रहा था.....पूरा पौधा सूख कर कंकाल सा लग रहा था....मरते हुए पत्ते की अंतिम साँस जैसे अटकी हुई थी हमसे मिलने को .... जिसे देखते ही दिल दहल गया..... चाह कर भी बेटे को कुछ न कह पाई ...हमारी भीगी आँखों को देख कर ही वह समझ गया था...अपराधी की तरह सामने खड़ा होकर बस माफी माँगने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं था...





पत्ते की लटकी गर्दन को देख कर भी मन हारा नहीं ..... पानी के हल्के छींटे दिए.... कंकाल सी सूखी शाखाएँ थरथरा उठी.... बिना परिणाम की चिंता किए हर रोज़ पानी देने लगे....











दो दिन बाद सुबह पानी पीने रसोईघर की ओर गए तो पत्ते की उठी गर्दन को देखकर मंत्रमुग्ध से खड़े रह गए.... टकटकी लगाए देखते हुए सोचने लगे...जड़े सूखी थीं... शाखाएँ बेज़ान सी बाँहों जैसी आसमान में उठी थीं प्राण पाने की प्रार्थना करती हुई... हरे पत्ते ने सिर उठा कर साबित कर दिया कि जीवन की आखिरी साँस तक संघर्ष ही जीवन लौटा सकता है.





हमारा जीवन भी कुछ ऐसा ही है.... आशाएँ रूठ जाती हैं..... खुशियाँ आखिरी साँसे लेती दिखाई देने लगती हैं... निराशा और उदासी की हज़ारों रेखाएँ शाखाओं सी आसमान की ओर बढने लगती हैं....थका हारा सा जीवन सूखे पत्ते सा कर्म करने की चाह में जैसे ही सक्रिय होता है ... जीवन फिर से हरा भरा हो जाता है... बेटे को कुछ समझाने की ज़रूरत नही पड़ी...... फिर से साँस लेते पत्ते को देखते ही उसके चेहरे पर आई चमक को देख कर हम तो असीम सुख पा गए.... !

( फिर से उस पत्ते से मिलने की ललक ने यह पोस्ट लिखवा डाली.. )

18 टिप्‍पणियां:

anurag ने कहा…

रचना जीवन से लबालब है , अत्यंत सुंदर

अजित वडनेरकर ने कहा…

ये पोस्ट पढ़ते हुए मुझे सिर्फ मीनू दी और उनका वात्सल्य नज़र आता रहा...भिगोता रहा। यही सकारात्मकता संबल है आपके पूरे परिवार के लिए...हम सबके लिए...आपने खुद अनुभव किया कि प्रकृति तो खुद ही नया रचने के लिए जैसे तैयार ही है।

बहुत सुंदर पोस्ट ...फिर पढ़ूंगा इसे...कुछ पलों बाद...तब तक कुछ पल्लव और खिल जाएंगे...

श्यामल सुमन ने कहा…

सच कहा आपने। पेड़ पौधे भी मानवीय सम्वेदनाओं से प्रभावित होते हैं। शब्द और चित्र के संयोग से आपने अपनी बात सफलतापूर्वक कह दिया। बधाई।

सब करते हैं अपने ढ़ंग से जीवन में संघर्ष।
ये भी सच कि उसी से मिलता जीवन को उत्कर्ष।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

एक मशहूर गजल याद आ गई,
कोंपलें फिर फूट आईं, कहना उसे....

Arvind Mishra ने कहा…

सचमुच जीवन ऐसा ही है !

Abhishek Ojha ने कहा…

जीवन भी ऐसा ही है... पर शायद हम संघर्ष के सामने इससे पहले घुटने टेक देते हैं !

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

सालों से बने ठूंठ में भी पत्तियां आते और उसके जीवन्त होते देखा है।
जीजीविषा बहुत अद्भुत चीज है। जाने किन किन अवगुण्ठनों में भी कायम रहती है।

ghughutibasuti ने कहा…

चलिए आपके पौधे का जीवन बच गया। एक बार मैनने भी बिल्कुल मृत इमली के पौधे की बन्साई के पुन: जीवित होने का आश्चर्य जिया है। आपकी खुशी समझ सकती हूँ।
घुघूती बासूती

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

मिनाक्षी जी,
पाबला जी के ज़िक्र पर आने के लिए शुक्रिया .......!!

"मरते हुए पत्ते कि अंतिम साँस जैसे हुई अटकी थी ...."

एक तो आपकी लेखनी कमाल की है ...दूसरे एक ममतामई माँ का वात्सल्य भी झलक रहा है पौधे के प्रति ....और आपने जिस तरह चित्र के माध्यम से इस पोस्ट को लिखा ....., इसके ज़रिये सीख दी काबिले-तारीफ है ....!
अपनी जरा सी लापरवाही से हम किसी को मौत के मुंह में धकेल देते हैं ...खास कर घर के बुजुर्गों को जिन्हें हमारी सेवा की जरुरत होती है ....आपकी पोस्ट बहुत बड़ी सीख देती है......!!

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत प्रेरक प्रसंग है।

डॉ .अनुराग ने कहा…

उम्मीद ओर सिर्फ उम्मीद इस जीवन को गतिमान रखती है ओर हौसला भी...आज आपसे एक बात शेयर करूँगा जब मई ८ वी क्लास में था तो देहरादून में पढता था ,स्कूल से घर तक पैदल जाता था रास्ते में कई पेड़ मिलते थे ,पता नहीं क्यों उन दिनों हर पेड़ पौधे को शुक्रिया देता ...सच मानिए उस दौरान ओर उसके बाद के कई साल स्वास्थ्य की दृष्टि से मेरे वे बेहतरीन साल थे ....जिजिविषा ओर उसके साथ मानवीय संवेदना दोनों होना जरूरी है.

गौतम राजऋषि ने कहा…

इस अद्‍भुत अनुभव को हमारे साथ साझा करने का शुक्रिया मैम...

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

मीनाक्षी जी
"आशा नाम मनुष्याणाँ काशिच्धाच्र्य षृँखला "
आशा रुपी पल्लव सी अनुभूति है ये ..हरियाली खिली रहे जीवन मेँ यही सद्` आशा सहित,
स स्नेह,
- लावण्या

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

सुना था जियो और जीने दो,

पर इस पर शायद ही कोई अमल करता मिले, किन्तु आपने तो मरणासन्न बोंजाई को भी जीवन दान दिया, निश्चित ही यह प्रकृति प्रेम का सन्देश है, काश ऐसा ही कुछ मरणासन्न मानवता रूपी बोंजाई के लिए प्रारंभ हो, तो जियो और जीने दो का सिद्धांत पुनः अपनी जीवन में खुशियों की खुशबू तो बिखेर ही देगा.

सुन्दर सन्देश देती इस रचना प्रस्तुति पर बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

मुरदे भी जीवित हो जाते,
अमृतरूपी जल पाकर।
सूखी कलियाँ खिल जाती हैं,
प्रेम-प्रीत के पल पाकर।

Krishna Kumar Mishra ने कहा…

क्या बात है

शाकिर खान ने कहा…

walekum asslam

Varun ने कहा…

True. Life tries its best to prevail over death. Thanks for sharing