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सोमवार, 21 जुलाई 2008

यादों का दर्द .... बैंग बैंग ... !

दो दिन पहले मम्मी का फोन आया तो अब तक उनकी सिसकियाँ भूलतीं नहीं..... जीवन साथी के बिना रहने का दर्द... तीनों बच्चों की ममता... छटपटाती माँ समझ नहीं पाती कैसे उड़ कर जब जी चाहे अपने साथी से मिले और कोसे कि क्यों अचानक छोड़ चला गया.... मरहम से बच्चे दूर दूर ...कैसे उन्हें एक साथ मिल पाए... एक बेटी दिल्ली में...एक बेटी दुबई में..एक बेटे सा दामाद साउदी अरब में.. . और खुद सात समुन्दर पार बेटे के साथ जिससे दूर होना भी आसान नहीं... चाह कर वहाँ से निकलना आसान नहीं... पोता दादी का दीवाना.... जितने दिन दादी दूर..उतने दिन पोता बीमार....
बड़ी बेटी ही नहीं मैं माँ की दोस्त भी हूँ.... .... कई बार पुरानी यादों का पिटारा खोल खोल कर दिखा चुकी मम्मी की एक याद आज फिर ताज़ा हो गई.... पिछले दिनों एक अंग्रेज़ी फिल्म 'किल बिल' देखी... जिसमें ज़रूरत से ज़्यादा मारकाट थी लेकिन फिर भी हमें उस मारकाट के नीचे दबा भावात्मक पक्ष भी देखने को मिला ... यहाँ फिल्म की समीक्षा करने की बजाय बात उस फिल्म के एक गीत की है जो हमें बेहद पसन्द है... और मम्मी की यादों से कहीं जुड़ा सा पाती हूँ......
बात उन दिनों की है जब मम्मी पाँच साल की थी तब छह सात के डैडी अपने पिताजी के साथ उनके घर गए थे मिलने.... दूर के रिश्तों का तो हमें पता नहीं लेकिन कुछ ऐसा ही था और अक्सर दोनो परिवार एक दूसरे से मिलते जुलते थे। उस दिन कुछ अनोखा हुआ था... कुछ बच्चे एक साथ मिल कर गुल्ली डंडा खेल रहे थे.... छह सात साल के एक लड़के से उसके पिता ने पूछा , "बेटा ,,, तुम्हें 'अ' या 'ब' में कौन ज़्यादा अच्छी लगती है ? " लड़के ने पहले पिता को फिर उन दोनों लड़कियों को देखा ... अचानक अपने हाथ का डंडा 'अ' के सिर पर रख दिया... बस बात पक्की हो गई... लड़के के पिता ने कहा ....आज से यह 'अ' बिटिया हमारी अमानत आपके पास.... जल्दी ही हम अपनी बहू बना कर ले जाएँगे......रानी बिटिया को राजा बेटा राज कराएगा.... 'अ' से अम्मी बन गई हमारी प्यारी सी...

'किल बिल' फिल्म का 'बैंग बैंग' गीत सुनकर पता नहीं क्यों डैडी की याद आ गई जो मम्मी को अचानक कुछ कहे बिना सदा के लिए छोड़ कर चले गए.... बचपन की यादों से लेकर आखिरी पल की यादें...पल-पल एक-एक याद गोली की तरह सीधा सीने को चीरती सी निकल जाती हैं.... और मैं चाह कर भी कुछ नहीं पाती....




I was five and he was six
We rode on horses made of sticks
He wore black and I wore white
He would always win the fight

Bang bang, he shot me down
Bang bang, I hit the ground
Bang bang, that awful sound
Bang bang, my baby shot me down.

Seasons came and changed the time
When I grew up, I called him mine
He would always laugh and say
"Remember when we used to play?"

Bang bang, I shot you down
Bang bang, you hit the ground
Bang bang, that awful sound
Bang bang, I used to shoot you down.

Music played, and people sang
Just for me, the church bells rang.

Now he's gone, I don't know why
And till this day, sometimes I cry
He didn't even say goodbye
He didn't take the time to lie.

Bang bang, he shot me down
Bang bang, I hit the ground
Bang bang, that awful sound
Bang bang, my baby shot me down...

रविवार, 20 जुलाई 2008

ब्लॉग अल्मारी में पोस्ट की सजी पोशाकें .....

कल बेटे वरुण ने पूछा कि इतने दिन से आपने अपने ब्लॉग पर कुछ लिखा क्यों नहीं... ? हम बस मुस्कुरा कर रह गए...सच में हम खुद
नहीं जानते कि क्यों ऐसा हो रहा है... क्यों हम कुछ लिख कर भी पब्लिश का बटन नहीं दबा पाते... हरे रंग की डायरी के कितने ही पन्ने नीले रंग की स्याही से रंग गए लेकिन उन्हें टाइप करके कोई भी रंग नहीं दे पा रहे.....


सुबह की कॉफी पीते समय कुश की कलम से लिखी कहानी एक पतंग की पढ़ी ,,,उसमें समीर जी की उड़ती पतंग पर भी नज़र गई ... सोचा काश हम लाल रंग की पतंग हो जाएँ... सूरज के लाल अँगारे सा रंग उधार लेकर ...या फिर लाल लहू के सुर्ख रंग में डूब जाएँ .....एक ऊर्जा लिए हुए... ऐसी ऊर्जा जो अपने को ही नहीं ...अपने आस पास के वातावरण में भी असीम शक्ति भर दे.... फिर कोई पतंग काले माझे से लहू-लुहान होकर अपना वजूद न खो सके... या फिर नीले आसमान में अपने आसपास उड़ती रंग-बिरंगी पतंगों को देखकर सिर्फ सपने न देखे बल्कि उन सपनो को पा ले....

आधी अधूरी कहानियाँ ...कविताएँ और लेख...ऐसे जैसे बिना इस्तरी
किए सिलवटों वाली पोशाकें...जिन्हें अपने ब्लॉग और डायरी की अल्मारी में
ठूँस ठूँस कर भर दिया हो... उधर से आँख बन्द करके दूसरे की अल्मारी को खोल
खोल कर देखते है तो सलीके से सजी हुई अलग अलग रंग की पोशाकें देख कर मन
भरमा जाता है....बस उन्हें देखने के मोह में सब भूल जाते हैं....


बस उसी मोह जाल में जकड़े खड़े थे कि घुघुती जी की अल्मारी पर नज़र गई.... मृतकों के लिए.... यहाँ तो पंचभूत के एक तत्व मिट्टी की नश्वर पोशाक दिखी... जो कभी हमें भी त्यागनी पड़ेगी... मिट्टी की पोशाक में सिलवटें आते ही उसे त्यागना पड़ेगा.... मन ही मन हम मुस्कुरा रहे थे कि हम ऐसे ही अपने आधे अधूरे लेखन की सलवटो पर शरमा रहे थे... हम खुद भी तो ऐसी ही पोशाक हैं.... आत्मा तो निकल जाएगी किसी नई पोशाक की खोज में.....

हम भी निकले एक नई अल्मारी की खोज में...नई पोशाकों को देखने की लालसा में....
कुछ अल्मारियों की पोशाकें इतनी आकर्षक हैं कि उन्हें देखे बिना
नहीं रहा जाता.... बनावट ...रंगों का चयन... नए ज़माने के नए डिज़ाइन....
मानसिक हलचल होने लगती है कि काश हम भी ऐसा ज्ञान पा सकते.
लेकिन होता कुछ और है..जिस विषय पर हम चिंतन करते रह जाते हैं...उस पर कोई और कारीगर अपना हुनर दिखा जाता है...

मम्मी का पर्स , उनकी अल्मारी, उनके दहेज का पुराना लोहे का ट्रंक... आज भी उन्हें बार बार खोल कर देखने का जी चाहता है...ठीक वैसे ही ब्लॉग जगत की ऐसी अल्मारियाँ हैं जो हम बार बार खोलने से बाज़ नहीं आते... किसी पोशाक को झाड़ते ही धूल के कण धूप में चमकने लगते हैं तो किसी पोशाक में वही कण जुगनू से जगमग करने लगते हैं....


एक अल्मारी ऐसी है जिसे खोलते ही लगता है कि उसकी एक एक पोशाक सिर्फ मेरे लिए है... जिसमें प्रेम के सुन्दर भाव से बनी हर पोशाक की अपनी ही खूबसूरती दिखाई देती है....

कुछ अल्मारियों को खोलते ही....लहराती पोशाकों के पीछे से संगीत के लहराते स्वर सुनाई देने लगे .... दिल और दिमाग को सुकून देने वाला मधुर संगीत स्वर..... और कहीं आत्मा को बेचैन कर देने वाली स्वर लहरी सुनाई देने लगी.....

जाने से पहले ओशो का चिंतन में आज की पोस्ट 'सहनशीलता' पढ़ कर बच्चो को सुना रहे हैं ....

और भी कई ब्लॉग्ज़ हैं जो परिवार में पढ़े जाते हैं और उन पर चर्चा भी होती है... उन पर फिर कभी बात करेंगे....


मन ही मन बेटे वरुण को शुक्रिया अदा कर रहे हैं कि उसके एक सवाल ने ब्लॉग जगत में नई पोस्ट को जन्म दिया...




गुरुवार, 10 जुलाई 2008

दिल कुछ कहना चाहता है लेकिन कह नहीं पाता....

आज अनिलजी के ब्लॉग़ पर गीत सुना.. " माई री,,,, मैं कासे कहूँ अपने जिया की बात" ..... सच में कभी कभी हम समझ नहीं पाते कि दिल की बातें किससे कहें...और कभी कभी तो हम चाह कर कुछ कह नही पाते...मन की बातें मन में ही रह जाती हैं... चाहते हैं कि अनकही को कोई समझ ले... इसके लिए कभी हम शब्दों का चक्रव्यूह रचते हैं तो कभी किसी चित्र...किसी गीत...किसी चलचित्र के माध्यम से अपने मन की बात करते हैं...
सोचते है कि कोई भटकते मन की खामोशी और बेचैनी समझ पाएगा .... लेकिन ऐसा कम ही होता है.... हमारे दिल ने भी एक गीत के माध्यम से कुछ कहना चाहा था.. जिसे शायद किसी ने सुना ही नहीं... कुछ दिल ने कहा .... कुछ भी नही..............

मन को समझाने के लिए मन ही मन यह गीत गुनगुनाते हैं...

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

बादलों की शरारत

खिलखिलाती धूप से
बादलों ने छेड़ाखानी की
धरा की ओर दौड़ती किरणों का
रास्ता रोक लिया ....
इधर उधर से मौका पाकर
बादलों को धक्का देकर
भागी किरणें...
कोई सागर पर गिरी
तो कोई गीली रेत पर
हाँफते हाँफते किरणों ने
आकुल होकर छिपना चाहा ....
बादलों की शरारत देख
लाल पीली धूप तमतमा उठी
अब बादलों की बारी थी
दुम दबा कर भागने छिपने की
चिलचिलाती धूप से छेड़ाखानी
मँहगी पड़ी
अपने ही वजूद को बचाने की
नौबत आ पड़ी.... !

रविवार, 6 जुलाई 2008

जीत की मुस्कान








एक बार फिर मध्य प्रदेश जिसे हम भारत का दिल कहते हैं, ने दिल मोह लिया...पहले भी हमने मध्य प्रदेश पर एक कविता लिखी थी...आज फिर कुछ लिखने को जी चाह रहा है.. सुबह सुबह गल्फ न्यूज़ के पन्ने खोलते ही एक प्यारी सी मुस्कान में शारजाह की एयरलाइन 'एयर अरेबिया' की एयर होस्टेस खड़ी दिखाई दी. रंजिता कोठाल जो मध्य प्रदेश के जबलपुर की ट्राइब से है उसके सपनों को पंख मिल गए....

21 साल की रंजिता एक महीने में एक लाख रुपया (Dhs 8,573) वेतन तो पाती ही है लेकिन उसके साथ साथ जो उसके व्यक्तित्त्व में निखार आया वह देखते ही बनता है. माता पिता को यकीन ही नही कि उनकी बेटी जिसने बी ए भी नहीं किया इतना पैसा कमा सकती है.

उसी तरह से दक्षिण भोपाल की 17 साल की सोनम ने अपने किसान पिता को जब एक विज्ञापन पढ़ कर सुनाया तो एक बार उन्हें भी यकीन नहीं आया कि एयर होस्टेस की ट्रेनिंग पर एक भी पैसा खर्च नहीं करना पड़ेगा. उसी पल पिता ने अपनी बेटी को ट्रेनिंग के लिए रवाना कर दिया.

राज्य सरकार द्वारा एयर होस्टेस की मुफ्त ट्रेनिंग एक सराहनीय कदम है जिससे दूर दराज की उपजातियों और दलित वर्ग की लड़कियों को दुनिया देखने का अवसर तो मिलेगा ही , घर परिवार का जीवन स्तर भी उन्नत होगा. समाज में उनकी एक नई पहचान बनेगी.

पूरी खबर पढ़ने के लिए आप भी गल्फ न्यूज़ के पन्ने पर जाइए....

शनिवार, 5 जुलाई 2008

तोड़ दो सारे बन्धन और अपने बल पर मुक्ति पाओ..!

गन्दे लोगों से छुड़वाओ... पापा मुझको तुम ले जाओ...
खत पढ़कर घर भर में छाया था मातम....

पापा की आँखों से आँसू रुकते थे....
माँ की ममता माँ को जीते जी मार रही थी ....

मैं दीदी का खत पढ़कर जड़ सी बैठी थी...
मन में धधक रही थी आग, आँखें थी जलती...
क्यों मेरी दीदी इतनी लाचार हुई...
क्यों अपने बल पर लड़ पाई...

माँ ने हम दोनों बहनों को प्यार दिया ..
पापा ने बेटा मान हमें दुलार दिया....
जूडो कराटे की क्लास में दीदी अव्वल आती...
रोती जब दीदी से हर वार में हार मैं पाती...

मेरी दीदी इतनी कमज़ोर हुई क्यों....
सोच सोच मेरी बुद्धि थक जाती...

छोटी बहन नहीं दीदी की दीदी बन बैठी...
दीदी को खत लिखने मैं बैठी..

"मेरी प्यारी दीदी.... पहले तो आँसू पोछों...
फिर छोटी की खातिर लम्बी साँस तो खीचों..
फिर सोचो...
क्या तुम मेरी दीदी हो...
जो कहती थी..
अत्याचार जो सहता , वह भी पापी कहलाता...
फिर तुम.....
अत्याचार सहोगी और मरोगी...
क्यों .... क्यों तुम कमज़ोर हुई...
क्यों... अत्याचारी को बल देती हो....
क्यों.... क्यों... क्यों...

क्यों का उत्तर नहीं तुम्हारे पास...
क्यों का उत्तर तो है मेरे पास....

तोड़ दो सारे बन्धन और अपने बल पर मुक्ति पाओ..
अपने मन की आवाज़ सुनो फिर राह चुनो नई तुम..
ऊँची शिक्षा जो पाई उसके अर्थ ढूँढ कर लाओ ..
अपने पैरों पर खड़े होकर दिखलाओ तुम ....

दीदी बनके खत लिखा है दीदी तुमको...
छोटी जानके क्षमा करो तुम मुझको....

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

अपने हिस्से की छोटी सी खुशी....

आज फ़िर उसकी आंखें नम थी... आँसू के दो मोती दोनों आंखों के किनारे अटके पड़े थे..गिरते तो टूट कर बिखर जाते लेकिन मैं ऐसा कभी न होने दूँगी.... . मैं चाहती तो क्लास टीचर होने के नाते उसके घर फ़ोन कर सकती थी कि स्कूल के फन फेयर में शीमा की ज़रूरत है लेकिन ऐसा करने का मतलब था शीमा को अपने घर में अजनबी बन कर रहने देना... अपने हिस्से की छोटी छोटी खुशियों को चुनने का मौका न देना.... आजकल वह अपने कमरे में ही बैठी रहती है.. दसवीं क्लास की पढ़ाई के बहाने ... न अम्मी के काम हाथ बंटाने की चाहत , ना अब्बा को सलाम का होश... छोटे भाई बहनों से खेलना तो वह कब का भूल चुकी थी... शायद इस उम्र में हर बच्चे का आक्रोश बढ़ जाता है...किशोर उम्र...पल में गुस्सा पल में हँसी... पल में सारा जहान दुश्मन सा दिखता और पल में सारी दुनिया अपनी सी लगती........ भाई अकबर शाम की मग़रिब के बाद खेलने जाता है तो देर रात तक लौटता है.... उस पर ही क्यों इतनी पाबंदी.सोच सोच कर शीमा थक जाती लेकिन उसे कोई जवाब न मिलता..... आज भी वह अम्मी अब्बू से बात करने की हिम्मत नही जुटा पायी थी ...
'मैम्म ,,, नही होता मुझसे... मैं बात नही कर पाउंगी...आप ही फोन कर दीजेये न...प्लीज़ ....' इतना कहते ही शीमा की आंखों से दोनों मोती गालों से लुढ़कते हुए कहीं गुम हो गए .... मेरा कलेजा मुंह को आ गया... अपने आप को सयंत करते हुए बोली... 'देखो शीमा ,, अपने पैरेंट्स से तुम्हें ही बात करनी होगी,,,,अगर अभी तुम अपने मन की बात न कह सकीं तो फिर कभी न कह पाओगी... अम्मी के काम में हाथ बँटाओ...सभी कामों में हाथ बँटाती हूँ, शीमा ने फौरन कहा... .. अब्बू से कभी कभी बात करो... चाहे अपनी पढ़ाई की ही....यह सुनते ही उसका चेहरा सफेद पड़ गया... अब्बू से सलाम के बाद हम सब भाई बहन अपने अपने कमरों में चले जाते हैं...यह सुनकर भी हर रोज़ क्लास में आने के बाद मुझे शीमा से बात करके उसे साहस देना होता... हर सुबह मैं सोचती कि आज शीमा दौड़ी दौड़ी आएगी और खिलखिलाते हुए कहेगी.... ''मैम्म.... अम्मी अब्बू ने फन फेयर में आने की इजाज़त दे दी.... " ऐसा करना ज़रूरी था...घर से स्कूल ..स्कूल से घर...बस यही उसकी दिनचर्या थी... कभी कभार कुछ सहेलियाँ घर आ जातीं लेकिन हर किसी में कोई न कोई खामी बता कर अगली बार से उससे मिलने की मनाही हो जाती... उसका किसी सहेली के घर जाना तो वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी.... मैं चाहती थी कि किसी तरह से कभी कभी वह अपने मन की बात अपने माता-पिता से कर पाए... कहीं न कहीं एक उम्मीद कायम थी कि कभी कुछ पलों की आज़ादी....कभी कुछ पलों के लिए पँख फैलाने की चाहत पूरी हो सके.... मन को मज़बूत करके उसमें अपने लिए थोड़ी आज़ादी खुद हासिल करने की चाहत भरने की कोशिश मेरी थी....सोचती थी शायद एक दिन शीमा कह पाएगी कि अपने हिस्से की थोड़ी सी खुशी लेने मे वह सफल हुई......
फन फेयर का दिन भी आ गया...प्रवेश द्वार पर ड्यूटी होने पर भी मन शीमा की ओर था... आँखें उसी को खोज रही थीं... ..मेरी शिफ्ट खत्म होते ही गेम्स एरिया की ओर बढ़ते हुए क्लास की दूसरी लड़कियों से शीमा के बारे में पूछा लेकिन किसी को कुछ पता नही था....
अचानक पीछे से किसी ने आकर मुझे अपनी बाँहों में ले लिया.... मैम्ममममममम ....मैं आ गई.... अम्मी अब्बू ने आखिर भेज ही दिया..कल शाम की चाय बनाकर अम्मी को दी और उसी वक्त ही फन फेयर पर जाने की बात की... अब्बू से बात करने को कहा... पूरे हिजाब में जाने की कसम खाई.... मामू को जासूसी करने की दुहाई भी दी.... पता नहीं अम्मी को क्या हुआ कि अब्बू से हमारी वकालत कर दी..... पूरे हिजाब में आने की शर्त कबूल.... कोई फर्क नही पड़ता .... मुझे तो सब दिख रहा है न.... उसकी चहकती आवाज़ ने मुझे नई ज़िन्दगी दे दी हो जैसे .... मेरी आँखों से गिरते मोती मेरे ही गालों पर ढुलक रहे थे....ये खुशी के चमकते मोती थे...

कुछ दिल ने कहा......

कुछ भी नही.......