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शनिवार, 14 जून 2008

जैसा देश वैसा भेष

साउदी अरब में अब तक के गुज़रे सालों का हिसाब किताब करने लगूँ तो लगेगा कि खोया कम ही है...पाया ज्यादा है... बहुत कुछ सीखा है... जो शायद किसी और जगह सीखना मुमकिन होता क्योंकि प्रजातन्त्र से राजतन्त्र में आकर रहने का अलग ही अनुभव हुआ... २१वी सदी में भी साउदी अरब की संस्कृति, वहाँ का रहन सहन बदला नही है शायद बदलने में अभी और वक्त लगेगा ... . ..हाँ सुरसा की तरह मुंह खोले महंगाई बढ़ती जा रही है... फ़िर भी कुछ ज़रूरी चीजों की कीमत नही बदली जैसे कि एक रियाल की पेप्सी और एक ही रियाल का खुबुज़(रोटी) ..

१९८६ में जब साउदी अरब की राजधानी रियाद पहुँची थी तो मन में कई शंकायें थी..अनकही कहानियाँ थी जिन्हें याद करते तो सिरहन से होती लेकिन फ़िर याद आती अपने देश की... वहाँ भी हर अखबार में हर दिन चोरी, लूटमार और खून खराबे की खबरें होती.... सावधानी से चलने की बात की जाती... किसी भी लावारिस पड़ी वस्तु को हाथ लगाने से मनाही.... गहने कम से कम पहनने की ताकीद ... अजनबी आदमी से बातचीत करने की मनाही... घर के नौकरों की पुलिस में पूरी जानकारी देना आदि आदि ... इस तरह की और भी कई सावधानियाँ बरतने की बात की जाती....

बस तो यही सोच कर हमने नयी जिन्दगी शुरू कर दी... धीरे धीरे वहाँ के तौर तरीके समझने लगे... बाज़ार जाने के लिए कब निकलना है.... कब फैमिली डे है...कब सिर्फ़ औरतें जा सकती हैं..सुबह का वक़्त शोपिंग का सबसे अच्छा वक्त मन जाता... . शुक्रवार के दिन तो कोशिश करते ही निकलें.... लेबर, वर्करज से बाज़ार भरे रहते .... बुरका पहन कर ही बाहर निकलना है तो नए नए बुर्के खरीद कर अलमारी में टांग लिए गए... बस इत्मीनान.... जैसा देश वैसा भेष.... मान कर चलने में भलाई समझी...

साउदी में अधिकतर औरतें डाक्टर, टीचर, नर्स और नौकरानी का ही काम कर सकती हैं. साउदी औरत सरकारी महकमों में और बैंकों में देखी जाती हैं...अब तो अस्पताल , होटल और बैंक के काउन्टर पर भी साउदी लड़कियां देखी जाती हैं लेकिन पूरे हिजाब में...

हमने भी घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का सबब ढूँढ ही लिया और इंडियन एम्बसी के स्कूल में हिन्दी टीचर लग गये... फ़िर बदमज़ा जिन्दगी का कुछ-कुछ मज़ा आने लगा... फ़िर भी ख्याल रखते कि कब और कहाँ कैसे जाना है... स्कूल जाने से अकेले बाहर निकलने का डर थोड़ा कम हुआ... बुरका पहन कर दोनों बच्चों को साथ लेकर एक दो दोस्तों के घर पैदल ही निकल जाते लेकिन घर में काम करने वाले एक बंगला देशी बुजुर्ग ने अकेले जाने से मना कर दिया....... घर का काम ख़त्म होने पर साथ चल कर छोड़ कर आते... अपने देश से दूर रहने पर रिश्तो की कीमत पता चलती है... अपनी जुबान बोलने वाले अपने से ही लगते हैं...चाहे पाकिस्तान के हों या बंगलादेश और श्रीलंका के हों... हिंदू मुस्लमान और ईसाई एक ही फ्लैट में , एक ही रसोई में मिलजुल कर खाते पीते अपनों से दूर रह पाते हैं...

अकेली काम करने वाली डाक्टर और नर्स अस्पताल से मिले घरों में रहती हैं और वहीं की वेंन और बसों में सफर करती हैं.... टैक्सी में भी कभी कभी आना जाना होता है .. सभी स्कूलों की बसें हैं जिसमे पर्दे लगे रहते हैं... कुछ लोग अपनी कार से छोड़ना लाना करते हैं... कभी कभी टैक्सी से भी जाना पड़े तो कोई डर नही है, हाँ अकेले होने पर हिन्दी-उर्दू बोलने वाले की ही टैक्सी रोकी जाती है.... सभी लोग अपनी जुबान जानने वाले की टैक्सी में सफर करने में आसानी महसूस करते हैं... एक बात जो सबसे महत्वपूर्ण है बाहर निकलते वक्त अपना परिचय पत्र साथ लेना...परिचय पत्र मतलब इकामा . हम विजय के इकामा की फोटोकापी रखते थे.... जब बच्चे बड़े हुए..उनकी जेब में भी एक एक फोटोकापी रखनी शुरू कर दी... . कभी अकेले किसी दोस्त या टीचर के घर गए तो ज़रूरी होता.... .इसके साथ जुड़ी एक रोचक घटना का ज़िक्र करना चाहूँगी.. मेरे एक टीचर सहेली जिसके पास अपना इकामा था , शादी के बाद भी उसी इकामे पर काम करती रही. पति के इकामे में नाम डालने की ज़रूरत नही समझी. मतलब यह कि पति और पत्नी दोनों के अलग अलग इकामे. दोनों ने सपने में भी नही सोचा था कि कभी उन्हें पकड़ लिया जाएगा... बस एक दिन दोनों कि शामत ही गयी... दोनों पुलिस द्वारा पकड़ लिए गये... शुक्र खुदा का कि दोनों को अच्छी अरबी आती थी जो एक लम्बी बातचीत और बहस करके उन्हें समझा पाए कि दोनों पति पत्नी है और जल्दी ही पति के इकामे में पत्नी का नाम दर्ज हो जाएगा.

इसी तरह से एक बार पतिदेव विजय को मना लिया गया कि मेरी सहेली को उसके घर से लेकर आना है... पहले तो ना नुकर की फ़िर मान गये.. जो डरते हैं शायद वही मुसीबत में जल्दी फंसते हैं, हुआ भी वही.... रास्ते में चैकिंग हुई... महाशय रोक लिए गये... अच्छा था कि मेरी सहेली पीछे बैठी थी.... आगे बैठी होती तो और मुसीबत खड़ी हो जाती.... दोनों की हालत ख़राब....लेकिन खुदा मेहरबान तो बाल भी बांका नही हो सकता..पूछताछ करने पर अपने को कंपनी ड्राईवर कह कर जान बचा कर भागे तो कसम खा ली कि अकेले किसी महिला को लाना है छोड़ना है....

समय बदल रहा है चाहे धीमे रफ़्तार में...लेकिन फ़िर भी बदल रहा है... साउदी औरत हो या किसी और देश की औरत हो .... कहीं सब करने की आजादी और हर काम में सहयोग देने का भाव..और कहीं... औरत को कुछ समझने का भाव भी पाया जाता है...

बीबीसी ने आठ साउदी लड़कियों का इंटरव्यू लिया जिसमे उन्होंने अपने बारे में बताया... इसके अलावा आम औरत का जीवन, जिसमे गहने कपड़े कार और बड़े विला में हर सुख सुविधा का सामान होता है.... पाकर भी शायद खुश है या नही ...कोई नही जान सकता .... कभी कभी हलकी घुटी सी अन्दर की आवाज़ सुनाई दे जाती है...पर उसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है बस.... कुछ करने के लिए तो उन्हें ही आगे बढ़ना है...हालांकि कुछ घटनायें ऐसी हो जाती हैं जिन्हें बाहर की दुनिया में सुना जाता है... अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसके ख़िलाफ़ आवाज़ भी उठाई जाती है...


जिन्दगी में अच्छे अनुभव भी होते हैं... जिनकी कीमत बुरे अनुभवों के बाद और बढ जाती है.... घर परिवार , काम और दोस्त ... बस यही दुनिया ...हर वीकएंड पर मिलना ... हर महीने दूर रेगिस्तान में पिकनिक पर जाना.... वीरवार की सुबह सहेलियों के साथ मार्केट जाना... पति बेबी सिटींग करके खुश.... एक बार बस कहने की देर है की जहाँ हम जाना चाहें फौरन ख़ुद आकर या ड्राईवर भेज कर पहुँचा दिया जाता... पैदल चलने का कोई रिवाज़ ही नही वहाँ पर.... ख़ास कर औरतों के लिए... लेकिन कुछ अस्पतालों के बाहर चारों ओर सैर का सुंदर फुटपाथ बना है... जिस पर कभी हम भी सैर करते थे..
अब तो बस सपनों में ही रियाद जाते हैं... दम्माम के घर की चारदीवारी में कैसे गुज़रती है अगली पोस्ट में....


20 टिप्‍पणियां:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

मीनाक्षी जी , मेरा अनुरोध मानकर आपने शुरुआत की तो सही , बहुत अच्छा और नया सा लगा -परदेस तो, परदेस ही है, फिर भी हर देस, अलग है ये भी जान पाई ..
thankx 4 the clip also
rgds,
L
- लावण्या

अजित वडनेरकर ने कहा…

बहुत अच्छे संस्मरण। विस्तार से लिखूंगा फिर।
कहना यही है कि अपने अनुभवों का खजाना खोलती रहें।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

हिन्दी चिट्ठों की दुनियाँ लगता है कि गजल होने जा रही है। जिस में दुनियाँ की सभी संस्कृतियों के फूल जमा हो सकेंगें।
आप ने फरियाद पूरी की लावण्या जी भी अमरीका के बारे में बता रही हैं। हम चाहते हैं हिन्दी का वैश्वीकरण।

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा संस्मरण है। आशा कर सकते हैं कि वहां भी बदलाव आयेंगे। बुर्के हटेंगे।

कुश ने कहा…

बहुत ही सुंदर संस्मरण.. और जो आपकी लिखावट है उससे तो हमने सब जीवंत देखा.. वाकई खूबसूरत

बेनामी ने कहा…

विडियो में कहीं टकराव दिखायी दिया तो कभी दबी इच्छाओं को उभरते देखा।

sanjay patel ने कहा…

बहुत ही अच्छा शब्द चित्र है यह.साथ ही वीडियो क्लिप होने से और भी रोचक बन गया है. अरब में वैभव ज़रूर है लेकिन लगता है हमारा अपेक्षाकृत ग़रीब देश भारत ज़्यादा खुला,विचारवान और आज़ाद ख़याल है. लेकिन धीरे धीरे हर जगह तस्वीर तो बदल ही रही है.
साधुवाद आपको इस जानकारी से भरी पूरी पोस्ट के लिये.

बेनामी ने कहा…

ye baat sahi hai jaisa desh vaisa bhesh,meenakshi ji man ke bahut sawalon ka uttar mila,shukrana vaha ki sanskruti ke baare mein batane ke liye,sahi jaha ladki rani ki tarah rehti hai wahi kuch aazadi ke paron ko pinjare mein bhi rehna padhta hoga,wo ehsaas mehsus hi kiy ja sakta hai,magar waqt badal raha hai,shayad dhire dhire,magar jahan apno ka saath ho khushiyan bahut hoti hai,bahut achhi lagi jankari.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

मुझे यह कहते संकोच नहीं कि आप बहुत अच्छा लिखती हैं - गद्य भी और पद्य भी।

डॉ .अनुराग ने कहा…

यही तजुर्बे है मीनाक्षी जी ..जो हमे रोज एक नया पाठ दे जाते है....लिखती रहे.....

पारुल "पुखराज" ने कहा…

didi kal vaali baat kahun? BURKEY VAALI.......:) post bahut acchhi lagi aur sach kahuun to kuch ghutan bhi hui....agli kadi ka intzaar rahegaa..

अजय कुमार झा ने कहा…

meenakshi jee,
saadar abhivaadan. bahut achha laga aapke anubhavon ko padh kar , aapke kuchh kehne kee shailee wakai lajawaab hai.

Manish Kumar ने कहा…

बहुत रोचक बातें बताईं आपने सउदी अरब में बिताई गई जिंदगी के बारे में। बेहद शुक्रिया...

Batangad ने कहा…

सउदी सुनकर सिर्फ शेख, बुरके में लिपटी औरतें और तेल का कुआं ही याद आता है। वहां की जिंदगी के बारे में काफी नया जानने को मिला। और, विस्तार से जाएं तो, बेहतर

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

कुछ सीखा या न सीखा हो हमने इकामा शब्द तो आप से सीख ही लिया है।.... अगली पोस्ट का इंतजार

Abhishek Ojha ने कहा…

अच्छी जानकारी दे रहीं है आप... लिखती रहे. अभी भी मिडिल-ईस्ट के देशो का नाम सुन कर डर लग जाता है... कई भ्रम दूर कर रही हैं आप !

mamta ने कहा…

हमारी ननद करीब १० साल इरान मे रही है और वहां के बारे मे बताती रहती थी की किस तरह उन्हें हमेशा सिर कवर करके रहना पड़ता है और बुरका पहनना पड़ता है। आज आपकी इस पोस्ट से वो सब याद आ गया।
हमारी ननद कहती थी की ऊपर तो लड़कियां बुर्के पहनती थी पर अन्दर मिनी स्किर्ट भी खूब पहनती थी । :)

सउदी के बारे बहुत कुछ जानने को मिला आपकी इस पोस्ट और विडियो से ।

Udan Tashtari ने कहा…

एक अनुभव रहा आपका यह संस्मरण पढ़ना. ऐसे ही लिखती रहें. नई नई जानकारी दें. शायद जल्द कुछ बेहतर बदलाव आयें वहाँ भी. शुभकामनाऐं.

art ने कहा…

सुंदर संस्मरण....रोचक और जीवंत