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शनिवार, 8 दिसंबर 2007

सवाल

"प्रश्न-चिन्ह" कविता जो हिन्दी भाषा में सँवरी तो "सवाल" को उर्दू ने निखारने की कोशिश की... सोचा था अवध मंच पर सवाल पढ़ने का मौका मिलेगा लेकिन ऐसा हो नहीं पाया... आज यही "सवाल" आप सबके नाम ---


सवाल
धूप जैसे सर्द होती , इंसानियत भी सर्द होती जा रही
इंसान से इंसान की खौफज़दगी बढ़ती जा रही !

कब हुआ ? कैसे हुआ ? क्यों हुआ ?
सवाल है उलझा हुआ !!

इंसान में हैवान कब आ बैठ गया
रूह पर कब्ज़ा वो कर कब ऐंठ गया
इंसानियत को वह निगलता ही गया

कब हुआ ? कैसे हुआ ? क्यों हुआ ?
सवाल है उलझा हुआ !!

इंसान की लयाकत क्या कयामत लाई
इंसानियत पर कहर की बदली है छाई
अब तो कहरे-जंग की बदली बरसने आई

कब हुआ ? कैसे हुआ ? क्यों हुआ ?
सवाल है उलझा हुआ !!

दिल ए इंसान से हैवान कब डरेगा ?
इंसानियत से उसका कब्ज़ा कब हटेगा ?
दुनिया पे छाया कहर का कुहरा कब छटेगा ?

इंसाँ से इंसाँ का खौफ कब मिटेगा ?
इंसानियत का फूल यह कब खिलेगा ?
जवाब इस सवाल का कभी तो मिलेगा !!

12 टिप्‍पणियां:

Keerti Vaidya ने कहा…

bhut sunder likhti hai aap

बालकिशन ने कहा…

वही टिप्पन्नी फ़िर दे रहा हूँ और क्या कहूँ.
व्याकुल मनः स्थिति को एक अति सुंदर कविता के माध्यम से प्रकट करने के लिए बधाई.

Asha Joglekar ने कहा…

बहुत सुंदर, मन के भाव कविता में उतर आये हैं ।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

कहते हैं उम्मीद पर दुनिया कायम है!!
सो आशावादिता बनी रहे……

Sanjay Karere ने कहा…

इस सवाल का उठना ही यह साबित करता है कि इंसानियत है. लेकिन सवाल भी जायज है. आशावाद ही अब अंतिम शरणस्‍थल है सो उसी का दामन थामना होगा. बहुत सुंदर विचार.

Divine India ने कहा…

जबर्दस्त प्रश्न है यह… मगर कौन है जो पहले हाथ उठाएगा इस प्रश्न से खुद को रूबरू करायेगा… चेहरे से पहले नकाब तो हटे… जो अपने से ही प्रश्न पूछेगा।
कविता यह मेरे लिहाज़ से नायाब फलसफा ही है…।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

जंग अब शायद इन्सान और इन्सान में कम, इन्सान के अन्दर अधिक हो रही है।
अपने में ही सुर को असुर से लड़ना है। वह जंग कोई बाहर वाला न लड़ेगा, न जितायेगा। खुद को ही जीतनी है वह।

अमिताभ मीत ने कहा…

बहुत अच्छा है. ख़याल, और intent - दोनों. हालांकि सवाल बड़े ही जटिल किए हैं आप ने. सुंदर अभिव्यक्ति.

अमिताभ मीत ने कहा…

बहुत अच्छा है. ख़याल, और intent - दोनों. हालांकि सवाल बड़े ही जटिल किए हैं आप ने. सुंदर अभिव्यक्ति.

Shastri JC Philip ने कहा…

"इंसान में हैवान कब आ बैठ गया
रूह पर कब्ज़ा वो कर कब ऐंठ गया
इंसानियत को वह निगलता ही गया"

भगवान, हैवान आदि बहुत अच्छी अवधारणायें हैं. ये समाज एवं व्यक्ति की सोच, नजरिया, इच्छा, कर्म आदि पर पडने वाले प्रभावों को दर्शाने के लिये बहुत मदद करते हैं.

जिसने भी मानव इतिहास एवं दर्शन का अध्ययन किया है वह जानता है कि "विकास के साथ स्थिति बदलेगी" हर मन में बसी सोच है. शायद गलत नहीं है. लेकिन जब जब मानव समाज पर नजर डालते हैं तो एकदम इस सोच को झटका लगता है.

यदि हिटलर आदिम युगीन व्यक्ति होता तो कोई ताज्जुब नहीं होता, लेकिन वह तो शिक्षा एवं ज्ञान से भरपूर बीसवीं सदी में हुआ था. क्यों ?

आपका काव्य मानव जगत के समक्ष मूंह बा कार खडी एक मूलभूत समस्या को बडे ही रचनात्मक तरीके से पाठकों के समक्ष लाता है.

आपने इसका जवाब नहीं दिया. न ही मैं जवाब देने की कोशिश करूंगा. बल्कि आपके साथ मुझे भी यही कहना है कि

"इंसानियत का फूल यह कब खिलेगा ?
जवाब इस सवाल का कभी तो मिलेगा !!"

ईश्वर करे कि इक्कीसवीं सदी में वह चीज हो जाये जिसका इंतजार हर मानवातावादी पिछले सहस्त्रों सालों से चाहता आया है, कामना करता आया है -- शास्त्री

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
हर महीने कम से कम एक हिन्दी पुस्तक खरीदें !
मैं और आप नहीं तो क्या विदेशी लोग हिन्दी
लेखकों को प्रोत्साहन देंगे ??

Smart Indian ने कहा…

सार्थक कविता, जायज़ चिंता. इंसान की ज़िंदगी छोटी है. इसलिये ज़रूरत इंसान को अपने जीवन के बाद भी चलने वाला स्थाई इंफ़्रास्ट्रट्रक्चर बनाने की ज़रूरत है. मेरे ख्याल से कीवर्ड्स हैं, शांति, न्याय, शिक्षा और व्यवस्था.

मीनाक्षी ने कहा…

शुक्रिया अनुरागजी, शांति, न्याय, शिक्षा और व्यवस्था के साथ-साथ प्रकृति और इंसान के प्रति प्रेम का होना भी बेहद ज़रूरी है, यह मेरा ख्याल है.