किरणों ने ली जब अंगड़ाई , झट से प्यारा सूरज गमका
हुई तारों की धुंधली परछाईं, धीरे से प्यारा चंदा दुबका
धरती पर लोहा, ताँबा और स्टील भी चमका
चिमनी ने भी मुख से अपने धुआँ तब उगला
हुई तारों की धुंधली परछाईं, धीरे से प्यारा चंदा दुबका
धरती पर लोहा, ताँबा और स्टील भी चमका
चिमनी ने भी मुख से अपने धुआँ तब उगला
सुबह सुबह जब बच्चों, बूढों का झुंड जो निकला
कोहरा नहीं, धुएँ से उनकी साँस घुटी, दम निकला
तारकोल की सड़कों से दुर्गन्ध का निकला भभका
क्रोध की लाली से जब सूरज का चेहरा दमका
सड़कों पर निकले बस, स्कूटर और रिक्शा
कानों में तीखा कर्कश उनका हार्न बजा
ईंट-पत्थरों के इस नगर में इमारतों का जाल बिछा
डिश और केबल तारों का सब ओर नया नक्शा खिंचा
खुली खिड़की से बौछार पड़ी आँचल भीगा तन-मन का
भीगी क्यारी की सुगन्ध जो फैली, तब सपना टूटा भ्रम का
सौन्द्रर्य बढ़ेगा अवश्य विश्व निकेतन की सुषमा का
यदि हरा-भरा इक कोना है मेरे घर के आँगन का
यदि हरा-भरा इक कोना है मेरे घर के आँगन का !!
( समीर जी का ''ताज्जुब न करो' लेख पढ़ कर अपनी लिखी एक कविता याद आ गई, समीर जी और उन सबको समर्पित जो पर्यावरण के लिए जन-मानस में चेतना भर रहे हैं)
5 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर चित्रण किया है आज का और एक बेहतरीन संदेश.
बहुत बढ़िया रचना है, बधाई और आभार आपका इस रचना को हमें समर्पित करने के लिये.
एक प्रयास मात्र है. आप सबका इस तरह जुड़ना जरुर रंग लायेगा.शुभकामनायें.
ओह आप तो वह लिख रही हैं - जो मैं सप्रयास लिखना चाहता हूं।
बहुत बहुत धन्यवाद कि आपने मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी की और उस माध्यम से आप के ब्लॉग पर पंहुचा।
अब मैं आपके ब्लॉग की फेड ले ले रहा हूं - उससे नियमित पढ़ना हो जायेगा।
सुंदर!!
बढ़िया रचना एक बढ़िया प्रयास के लिए!
अच्छा प्रयास है…
पर्यावरण पर और भी कविताएँ लिखी जानी चाहिए…
इसकी परम आवश्यकता है…।
खुली खिड़की से बौछार पड़ी आँचल भीगा तन-मन का
भीगी क्यारी की सुगन्ध जो फैली, तब सपना टूटा भ्रम का
bahut sundar ...dii
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