अकेला ही चलना होगा जीवन-पथ पर
अकेला ही बढ़ना होगा मृत्यु-पथ पर।।
निराश न हो मन।
इस दुनिया में भटक रहा तू व्याकुल होकर
रिश्तों के मोह में उलझा तू आकुल होकर
उस दुनिया में जाएगा तू निष्प्राण होकर
नवरूप पाएगा प्रकाशपुंज से प्रकाशित होकर
निराश न हो मन।
जननी ने जन्म दिया स्नेह असीम दिया
रक्त से सींचा रूप दिया आकार दिया
बहती नदिया सा आगे कदम बढ़ा दिया
ममता ने मुझे निपट अकेला छोड़ दिया
निराश न हो मन।
जन्म के संगी साथी मिल खेले हर पल
जीवन के कई मौसम देखे हमने संग-संग
पलते रहे हम नया-नया लेकर रूप-रंग
बढ़ते-बढ़ते अनायास बदले सबके रंगढंग
निराश न हो मन।
नवजीवन शुरू हुआ जन्म-जन्म का साथी पाकर
नवअंकुर फूटे, प्यारी बगिया महकी खुशबू पाकर
हराभरा तरूदल लहराया, मेरे घर-आंगन में आकर
जीवन-रस को पर सोख लिया पतझर ने आकर
निराश न हो मन ।
(निराशा के दिनों में लिखी गई रचना अनुभूति में छ्पी )
5 टिप्पणियां:
निराशा के पलों में भी मन के भावों को बड़ी सुन्दरता से पेश किया है. बहुत बढ़िया.
इस रचना का सृजन शायद साहयक बनी हो, निराशा से उभरने में.
सुंदर!!
ज़िंदगी मे कई दौर ऐसे आते ही है हम सबके, जब सब व्यर्थ सा लगने लगता है, निराशा का दौर होता ही है ऐसा!!
पर
निर-आशा मे भी छुपी होती है आखिर आशा ही!!
सुंदर कविता.कहीं गहरे तक उतरने वाली.
इधर प्रेम रंजन अनिमेष की www.raviwar.com में भी कुछ ऐसी ही कविताएं पढ़ने को मिलीं. लगा कि जैसे ये कविताएं, कहीं न कहीं उनका ही विस्तार है.
कुमार अभिनव
आशा निराशा के बीच क दौर!
बहुत ही सुदेर कविता है. बधायी हो
देवी
aash nirash ..... aisi sakriya avyav
hain jo......nirlipt bhaw ke upar...
manah isthiti ke anukul apni....paith
banati hai........
pranam.
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