सुबह सुबह का अनुभव लिखने के बाद हम बैठे पढ़ने अलग अलग चिट्ठे. जितना पढते गए उतना ही अपने को पहचानते गए लगा कि शायद बहुत कुछ है जो अभी सीखना है , बहुत कुछ है जो मेरी समझ से बाहर है. क्यों समझ से बाहर है यह आज तक समझ नहीं आया. जीवन को सही चलाने के लिए जो छोटी छोटी बातें हैं वही समझ आती हैं. क्यों जीवन से जुड़े कुछ विषयों पर बुद्धि काम नहीं करती. अचानक लगने लगा चिट्ठाजगत के इस अथाह सागर के कुश्ल तैराक नहीं हैं. लिखी बात अगर समझ न आए तो मन छटपटाने लगता है अपने आप से ही सवाल करने लगता है कि क्यों बात का हर स्वरूप हम समझ नहीं पाते.. ..... मानव की स्वाभाविक इच्छा है सब कुछ जानने समझने की ... बात जो समझ नहीं आती लेकिन उसके अलग अलग रूप दिखाई देते हैं उस पर एक छोटी सी कविता ----
बात जो रास्ते का पत्थर थी
लोगों की पूजा ने कभी उसे पहाड़ बना दिया
लोगों की ठोकरों ने कभी उसे कंकर बना दिया
बात जो रास्ते का कंकर थी
समय की मार से कभी धूल बन गई
वही धूल आँखों की कभी किरकरी बन गई
बात जो आँखों की किरकरी थी
आँसू बन बहती गुम हो गई गालों पर
वही बात मुस्काई खिले गुलाब सी पलकों पर
बात जो खिलते गुलाब जैसी थी
कभी काँटा बन चुभती चली गई मन में
कभी सुगन्ध बन फैलती चली गई तन में
10 टिप्पणियां:
बेहतरीन चिंतन है
http://ashishmaharishi.blogspot.com
जारी रहे चिंतन
चक्रिक जीवन पर अच्छी टिप्पणी!!
और डूबिये. इतने विशाल सागर पर इतना सा चिंतन...गोते लगाईये.. :)
डूबते चलें ऐसे अनेकों चिंतन उभरेंगे अभी. शुभकामनायें.
ऐसे ही चिंतन् करती रहें। चिंता न् करें।
कामायनी में है न - एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन।
एक ही तत्व है। बस ट्रॉंसफॉर्मेशन होता रहता है।
True, DII......
गहरी बात कर दी आपने। चिंतन कर रहा हूँ गहराई से।
आप सबके भाव पढ़ कर लगता है कि चिट्ठाजगत या निराशा के सागर में डूबेगें तो बचाने वाले आस-पास हैं. सबको धन्यवाद्
मीनाक्षी जी आपका चिंतन जायज़ है। परंतु इसमे एक और आयाम है कि बात तो वही रही परंतु समय, भावनाओं,परिस्थितियों,अंतःकरण की उथल-पुथल आदि के अनुरूप लोगों का नज़रिया बदलता गया।
असल जीवन में भी तो यही होता है, चीज़े वही रहती हैं बस देखने का नज़रिया बदल जाता है। और देखने के इसी नज़रिए पर बाकी सारी चीज़ें निर्भर करती हैं। शाम एक ही होती है परंतु कोई इसे सन्ध्या वन्दन का उप्युक्त समय मानता है तो कोई चोरी करने की योजना निर्माण का।
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