दिल्ली की माई नहीं , न ही बम्बई की बाई है
पाँच महीने पहले ही फीलिपंस से दुबई आई है.
नई फिलोपीनो 'मेड' को देख सर था चकराया .
प्रति घण्टा के हिसाब से तीन घण्टे था बुलाया
किसी कम्पनी में सेक्रेटरी है, आठ से छह तक
करेगी पार्ट-टाइम काम 'मेड' का तीस रोज़ो तक.
हाई हील के सैण्डल ठक ठक करती आई थी
बजते मोबाइल के साथ घर की बैल बजाई थी.
हाय मैडम, कह कर मुस्काई बोली -
दिस इज़ माई फर्स्ट जॉब,
प्लीज़ टेल मी वट टू डू ?
मेनिक्योरड पेडिक्योरड, ब्लो ड्रायर से
सेट किए कटे बाल .
मैं कभी उसे देखती थी , कभी खुद को.
चैट पर ऑनलाइन पति से बतिया रहे थे
जो वेब कैम मे हमे देख भी रहे थे..
इंतज़ार करें, कहा और नई मेड को
लगे देने निर्देश.
डोंट वरी मैडम , कैरी ऑन विद योर वर्क
मुझे भरोसा देकर खुद भी करने लगी वर्क
उसने झाड़-पोंछ शुरू की तो लगा नई है
टोकने की बजाए जैसा भी है सब सही है.
यही सोच कर --
वार्ता खिड़की पर पति से माफी माँगीं
सफाई का साज़ोसामान फिर देने भागी.
लौटी तो देखा वैब-कैम मे पति मुस्कुरा रहे थे
शरारती मुस्कान के साथ मेड को निहार रहे थे.
अरे वाह ! मुझे देख तो ऐसी मुस्कान आई नहीं
क्या मुझमे ऐसी सुन्दरता तुमने पाई नहीं ! !
आहत हुआ मन, न चाहते भी मीठी बातें चन्द कीं
फिर वैब-कैम ही नहीं, वार्ता-खिड़की भी बन्द की .
मेड अपना काम पूरी तल्लीनता से कर रही थी
साथ-साथ अंग्रेज़ी गीत भी गुनगुना रही थी.
मुझे याद आई दिल्ली की अपनी काम वाली
जो आती थी सदा बिना चप्पल पैर खाली.
झूठे बरतन, ठण्डा पानी, घटिया सा साबुन
सेठानी का कर्कश स्वर चुभता सा चाबुक.
हर सुबह देह का कोई अंग नीला सा होता
सूजी आँखें, चेहरे का रंग फीका सा होता.
खुद नन्ही-सी जान, कई रिश्तों का बोझा ढोती
घुटती-पिसती-मरती रहती पर कभी न रोती.
17 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया ! पर हमें तो पहले वाली मेड ही अधिक ठीक लगी । जब भारत में भी वैसा होगा तो अच्छा रहेगा । तब हम भी अपने हाथों काम करना सीख लेंगे ।
घुघूती बासूती
हास परिहास तक तो ठीक है पर बड़ा प्रश्न ये है कि क्या ये जरूरी है कि वेश भूषा ऍसी हो कि किसी को देखकर ही दाई की संज्ञा दी जा सकी ? भारत में भी स्थिति बदल रही है और वो दिन दूर नहीं जब हम किसी को देख कर दूध वाला, धोबी या मेहतर नहीं कह सकेंगे।
मेड और कामवाली या बाई भी इंसान हैं, काम कोई बुरा नहीं होता!
अच्छी कविता है. काश ऎसी मेड यहाँ दिल्ली में भी होती.
बहुत अच्छी कविता - ऐसी परिवर्तन की हवा यहां देश में भी बहने लग गयी है।
मीनाक्षीजी आपकी दुविधा मैं समझ सकती हूँ....मेड फ्रम फीलीपिम्स को देखकर ...मेड इन इन्डिया मैडम्स हीनभावना से भी ग्रसित हो सकती है....मैने तो इसलिये घर नो मेड ज़ोन बना दिया है।
badal rahi hain baiyan...
achchha likha aapne.
जीवन की जटिलताओं के बीच भी यदि हम हल्के फुल्के पल जी लेते हैं तो समझिए जीवन आसान हो गया. हुआ ऐसा कि कम्पनी ने जिस मेड को भेजा वह किसी ऑफिस मे सेक्रेटरी है लेकिन पार्ट टाइम काम करके और पैसे कमाने में उसे यह काम बुरा नहीं लगता.... यह किस्सा मुझे हैरानी ही नही खुशी भी दे गया था सो कविता का जन्म हो गया.
मनीश जी, हास परिहास के पीछे एक आशा भी है कि काकेश जी और पाण्डे जी की तरह हम भी इसी परिवर्तन की कामना करते हैं.
अरे घुघुती बासूती जी ने तो हमारे मन की बात कह दी. धन्यवाद...
दी,बहुत महत्वपूर्ण विषय कोiइ हमारे जी से पूछे…क्या क्या पापड़ बेलने पड़ते है इनहे मनाने के लिये॥
बहुत सच्चा लिखा है दी ।
वाह,
बहुत बढ़िया ।
एक छोटी सी बात या घटना ने आपको ऐसे चिंतन और लेखन का मौका दे दिया, या यूं कहें कि आप ऐसे ही मौको से लेखन की प्रेरणा पाते रहती हैं।
मैंने आज आपका ब्लोग देखा, बहुत बढिया लिख है, जारी रखियेगा। आपकी रचना एक संदेश देती है जो मुझे बहुत पसंद है।
दीपक भारतदीप
बहुत खूब मिनाक्षी जी, सच है आज कल जमाना बदल रहा है साथ में मेड का रूप भी। अपने हाथ से काम करने की आद्त डालना तो ठीक है पर बुढ़ापे का क्या करें जब मदद चाहिए ही होती है।
ये तो कहलाये है मार्डन मार्डन!!
बहुत बेहतरीन कविता रच डाली. बधाई. आँख खुली रखें तो हर जगह विषय मिल जाते हैं. :)
कितना सजीव चित्रण है मिनाक्षी जी आज पहली बार आपके ब्लोग पर आने का अवसर हुआ है हास्य के साथ सुन्दर व्यंग्य... सचमुच अच्छा लगा...
सुनीता(शानू)
सॉरी नाम गलत लिखा गया मीनाक्षी जी...
bahut achchi kavita
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