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सोमवार, 30 जून 2014

इक नए दिन का इंतज़ार


हर नया दिन सफ़ेद दूध सा
धुली चादर जैसे बिछ जाता 
सूरज की  हल्दी का टीका सजा के
दिशाएँ भी सुनहरी हो उठतीं  
सलोनी शाम का लहराता आँचल
पल में स्याह रंग में बदल जाता  
वसुधा रजनी की गोद में छिपती 
चन्दा तारे जगमग करते हँसते
मैं मोहित होकर मूक सी हो जाती 
जब बादल चुपके से उतरके नीचे 
कोमल नम हाथों से गाल मेरे छू जाते 
और फिर होने लगता 
इक नए दिन का इंतज़ार .....! 

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (01-07-2014) को ""चेहरे पर वक्त की खरोंच लिए" (चर्चा मंच 1661) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (01-07-2014) को ""चेहरे पर वक्त की खरोंच लिए" (चर्चा मंच 1661) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

मीनाक्षी ने कहा…

आपका यहाँ आना अच्छा लगा, लिंक शामिल करने का बहुत आभार

रश्मि शर्मा ने कहा…

बहुत सुंदर प्रस्‍तुति‍

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

उम्दा रचना और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@दर्द दिलों के
नयी पोस्ट@बड़ी दूर से आये हैं

आशिक ने कहा…

क्या खुब लिखती हैं आप ,सादर ़परनाम ,मैं ब्लाँगर नहीं ट्विटर पर @ashiqhun नाम से हुँ ,अद्भुत