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रविवार, 9 मई 2010

मेरे तो लगभग सभी दिन ऐसे ही खास होते हैं..!

आज न जाने क्यों सुबह नींद ही नहीं खुली.... विजय ऑफिस चले गए..बच्चे भी कब उठ गए पता ही नहीं चला.... छोटे की आवाज़ से नींद खुली कि चाय नाश्ता तैयार है मम्मी.... फ्रेश होकर किचन में गई तो मुस्कुराते हुए बच्चों ने ‘हैप्पी मदर्ज़ डे’ कह कर स्वागत किया... मन ही मन मैं सोच रही थी कि मेरे तो लगभग सभी दिन ऐसे ही खास होते हैं.... !

पिछले कुछ दिनों से सुबह आठ बजे विजय ऑफिस के लिए निकलते तो मैं भी उनके साथ हो लेती.... मुझे सहेली के घर छोड़ते हुए विजय ऑफिस निकल जाते और शाम को घर लौटते हुए ले लेते..इस बीच दोनो बेटे खुशी खुशी अपनी पसन्द का नाश्ता बनाते खाते और मस्ती करते....दोपहर के खाने में सूप, मैकरोनी या अंडे लेते लेकिन सबसे आसान और बढ़िया लगता रोटी पर जैतून का तेल डाल कर उसपर ज़ातर (अरब का खास मसाला) लगा कर खाते. कौन जान सकता है माँ के अलावा कि यह दिन उनके सबसे मज़ेदार दिन होते हैं...

‘बच्चे बेचारे खुद ही कैसे खाना बनाते और खाते हैं?’ दो तीन करीबी रिश्तेदार ऐसा पूछ चुके हैं... हालाँकि जानते हैं कि बच्चे अब बड़े हो चुके हैं.. बड़ा बेटा इंजिनियरिंग करके मास्टर्ज़ करने की सोच रहा है और छोटे ने कॉलेज का दूसरा साल अभी खत्म किया है और समर जॉब तलाश कर रहा है.

ज्यों ज्यों बच्चे बड़े होते हैं... अपनी एक अलग दुनिया बनाने में जुट जाते हैं...वे चाहते हैं कि उन पर विश्वास किया जाए कि वे अपनी दुनिया अपने बलबूते पर बना सकते हैं...लेकिन अगर उन्हें हमारी ज़रूरत है तो हम उनकी मदद के लिए तैयार भी रहें... हम हैं कि इसी भुलावे में रहते हैं कि हमारे बिना बच्चों का गुज़ारा कैसे होगा.....

खैर....जिस सहेली के घर गई थी...उसके दो छोटे छोटे बेटे हैं. बड़ा बेटा ढाई साल का और छोटा बेटा अभी पाँच महीने का है.. हम दोनो सहेलियाँ एक साथ रियाद स्कूल में पढ़ाया करतीं थीं, अब दोनों ही नौकरी छोड़ चुके हैं. जब भी रियाद आना होता है तो मिल बैठकर ज़िन्दगी की अनबूझ पहेली को सुलझाने की बातें होती तो कभी ज़िन्दगी को उस्ताद मान कर उससे जो भी सीखा उस पर बातचीत होती...,,,,

बीच बीच में दोनों बच्चों के साथ बच्चे बनकर खेलना शुरु करते तो वक्त का पता ही नहीं चलता....कब सुबह से शाम हो जाती और विजय पहुँच जाते लेने...शाम को घर आते तो गर्मागर्म चाय के साथ बच्चे स्वागत करते....चारों साथ मिल कर चाय पीते और इधर उधर की गपशप करते....

अपनी कई छोटी बड़ी समस्याओं को सुलझाने का सबसे बढिया उपाय है एक साथ बैठकर खुलकर बातचीत करना .....लम्बे अर्से के बाद परिवार एक हुआ है तो जितना भी वक्त मिलता है , साथ साथ गुज़ारते हैं... एक दूसरे की सुनते हैं, समझते हैं.... माता-पिता का सम्मान और बच्चों से प्यार परिवार का आधार तो है ही लेकिन अगर एक और रिश्ता ‘दोस्ती’ का बना लिया जाए तो एक दूसरे को और भी ज़्यादा सम्बल मिलता है.

रविवार, 2 मई 2010

एक घर की कहानी ऐसी भी











सुमन दमकते सूरज को देखती तो कभी कार के खराब ऐ.सी को कोसती....आज कई दिनों बाद निकले सूरज देवता जैसे अपनी मौजूदगी का एहसास कराने की ठान कर उदय हुए थे...पिछले हफ्ते हल्की फुल्की फुहार से मिली शांति आज न जाने कहाँ काफ़ूर हो गई थी.... अम्माजी के लिए आँखों की दवा और माँ का चश्मा लेने छोटे बाज़ार जाना था जहाँ पार्किंग की हमेशा से ही मुश्किल रही है.... फिर भी उसने हार न मानी और कार दूर खड़ी करके चिलचिलाती धूप में सिर को दुपट्टे से ढकती बाज़ार की ओर चल दी. सुबह स्कूल जाते वक्त अचानक दूसरे कमरे से अम्माजी की धीमी लेकिन मिश्री सी मीठी आवाज़ सुनाई दी थी.....’सुमन्न्न्न्न,,,, मेरी मुन्नो.... अखाँ दी दवाई खतम हो गई है...’ ऊँचा सुनती हैं लेकिन फिर भी अपनी आवाज़ को न जाने कैसे नीचा रख पाती हैं अम्माजी ...चार दिन से दवाई खत्म ठीक और सुमन भूल जाती...आज उसने ठान ही लिया था कि जैसे भी होगा वह आज दवाई और माँ का चश्मा लाना नहीं भूलेगी....

अम्माजी...माँ की माँ हैं....मेरी प्यारी नानी जिसके पोपले से मुहँ पर हमेशा एक प्यारी सी मुस्कान रहती पर न जाने क्यों माँ के चेहरे पर वही मुस्कान कभी न देख पाती, शायद छोटी उम्र से ही पति का साथ छूटने पर समाज में अपने आप को मज़बूत दिखाने के लिए मुस्कान को चेहरे पर आने ही न दिया हो...पढ़ी लिखी न होने पर भी माँ ज़मीनों का हिसाब किताब खूब कर लेती थीं... पापाजी तो कब का छोड़ कर जा चुके थे...माँ ने ही पुश्तैनी ज़मीन्दारी की आमदनी से तीनों भाई बहन को पाल पोसकर बड़ा किया... पढ़ाया लिखाया... और अपने पैरों पर खड़ा होने की हिम्मत दी...
माँ अपनी अम्माजी की लाड़ली थीं तो नानाजी अपने दो बेटों पर घमंड करते, उनका गुणगान करते न थकते.... नानाजी ने कभी पीछे मुड़कर न देखा था...... अम्माजी की सारी खुशियाँ, सारे शौक दोनो बेटों के साथ विदेश जाकर बस गए... नानाजी बड़े मामाजी के साथ रहने अमेरिका चले गए और छोटे मामाजी ने शुरु शुरु में नानी यानि अम्माजी को आने की खूब मिन्नतें कीं लेकिन न जाने क्यों अम्माजी अपनी इकलौती बेटी को छोड़ कर न जा पाईं या शायद अपनी मिट्टी को छोड़ पाने की हिम्मत न जुटा पाईं ...यही माँ के साथ हुआ ... वीरजी कनाडा गए ....दीदी के लिए एक अच्छा लड़का मिल गया सो उसे भी वहीं बुला कर ब्याह कर दिया उसका.... पीछे रह गई सुमन ......... अम्माजी और माँ के साथ ....
दीदी जब कनाडा गईं थी उस समय सुमन ने बारहवीं पास की थी और कॉलेज में दाखिला लेने के लिए सोच रही थी....दीदी के जाते ही घर खाली खाली सा लगने लगा....आगे की पढ़ाई के लिए घर से दूर जाना मुमकिन नहीं था इसलिए पास के कॉलेज में बी.ए. पास कोर्स के लिए फॉर्म भर दिया... खाली पीरियड में घर आकर दोपहर का खाना तैयार करने में माँ की मदद करना सुमन को अच्छा लगता. कभी कभी कपड़े निचोड़ कर तार पर भी डाल जाती.... अम्माजी सुमन को देख देख खुशी से फूली न समाती...’मेरी मुन्नो... मेरी शहज़ादी... देखना शीला...राज करेगी.... ‘ माँ को कहतीं और बलाएँ लेने लगती...सुमन मुस्कुरा कर फिर से कॉलेज भाग जाती......
देखते ही देखते कॉलेज खत्म हुआ.... अपने ही स्कूल में पढ़ाने का सपना कब से सुमन की आँखों में पल रहा था....लेकिन बी.एड करने के लिए कहाँ जाए...पढ़ाने के लिए तो टीचर ट्रेनिंग भी तो चाहिए....माँ तो दूर पढ़ने के लिए भेज भी देतीं लेकिन अम्माजी की जान तो जैसे सुमन में ही थी.... उन दिनों पत्राचार के माध्यम से रोहतक से बी.एड हुआ करती थी सो वहीं से बी.एड कर ली. ....अपने ही स्कूल में नौकरी की अर्ज़ी देते ही वहाँ गणित की टीचर भी लग गई....
अम्माजी और माँ के साथ सुमन के दिन मज़े से कट रहे थे....कुछ अपने जो सात समुन्दर पार थे, कभी उनकी याद आती लेकिन जल्दी ही उदासी दूर भी हो जाती ...यह सोचने की फुर्सत ही नहीं थी कि वे लोग इतनी दूर क्यों जा बसे..विदेश में सभी खुशहाल हैं फिर क्यों उदास होना,,यह सोच कर सुमन नानी और माँ को पल भर में बोझिल माहौल से बाहर ले आती...लेकिन कभी कभी उन दो जोड़ी बूढ़ी आँखों में एक वीराना सा इंतज़ार दिखता..वह भी कुछ पल के लिए फिर सुमन की खिलखिलाती हँसी में कहीं गुम हो जाता....
माँ की सहेली शोभा  जब भी आती सुमन को अपने घर की बहू बनाने का सपना लेकर जाती और फिर टूटे सपने के साथ फिर लौट कर आती....एक एक करके उनके दोनों बेटे विदेश जा बसे थे और वहीं अपने घर भी बसा लिए थे..... लेकिन शोभा  के जेठ जेठानी का इकलौता बेटा उन्हीं के साथ ही रहता था....कुरुक्षेत्र के एक कॉलेज में प्रोफेसर था... अपने खुद के पैसे से मकान खड़ा किया था उसने...कार और मोटर साइकल थी... दहेज के सख्त खिलाफ....लेकिन लड़की को खाली हाथ तो ले जाना नहीं था...दहेज के रूप में अम्माजी और माँ को साथ ले जाने की ज़िद...
पहली बार माँ की आँखों को डबडबाते देखा था.... उन्होंने अशोक का माथा चूम लिया था....ढेरों आशीष देकर गले से लगा लिया था....तब से लेकर आज तक माँ और अम्माजी ने कभी अशोक को दामाद नहीं माना...और अशोक भी तो सोने से खरे स्वभाव जैसे हैं...
‘बहनजी, चश्मा तैयार हो गया है... इतना इंतज़ार करवाने के लिए माफ़ी चाहता हूँ’ गुप्ता ओप्टिकल के एक कर्मचारी के कहने पर सुमन के विचारों की तन्द्रा टूटी.... ओह... स्कूल से निकले पूरे दो घंटे हो गए थे...सुधा बेटी घर पहुँच चुकी होगी....और मम्मी को न देख कर सारा घर आसमान पर उठा लेगी....सोचते सोचते सुमन के पैरों में तेज़ी आ गई थी....कार के शीशे खोल कर अन्दर बैठी सुमन ने सीधा घर जाने की सोची...... एक बार ख्याल आया कि अशोक को भी कॉलेज से ले लूँ लेकिन एक और घंटे की देरी हो जाएगी....
आजकल सुधा अपने कॉलेज मोटर साइकिल पर जाती है... अशोक ने खुद ही बेटी को मोटर साइकिल चलाना सिखाया है......कभी बेटी या बेटे में फ़र्क नहीं किया.... पीयूष छोटा भाई है सुधा का....कभी कभी बड़ा भाई बनने की कोशिश करता है लेकिन सुधा उसे फिर से सीधा कर लेती है.....पीयूष भी कम नहीं है...चुप हो जाता है...जानता है कुछ दिनों के बाद मोटर साइकिल उसकी ही होने वाली है....
चार बजने वाले थे...सुमन घर पहुँची तो सुधा को माँ के साथ रसोई में देखा...आँखों ही आँखों में माँ को शुक्रिया अदा करके सुमन अम्माजी को आँखों की दवा देकर फ्रेश होने चली गई....पाँच बजे अशोक और पीयूष घर आ जाएँगे...उन दोनो के आने से पहले ही सुमन फ्रेश होकर रसोईघर में माँ का हाथ बँटाने आ गई....
कॉलेज से आकर अशोक अम्माजी और माँ के साथ बैठकर जब तक चाय की चुस्कियों के साथ कॉलेज की गपशप न कर लें...उन्हें मज़ा ही नहीं आता...इसी बीच कब सुधा और पीयूष को साथ बैठने की आदत हो गई ...पता ही नहीं चला.... दोनो भाई बहन बड़ी नानी और छोटी नानी के दीवाने हैं..
सुमन को यही शाम का वक्त सबसे अच्छा लगता है जब सब मिल कर चाय के खनकते प्यालों के साथ खिलखिलाते भी हैं, यही पल तो सारे दिन की थकान को दूर भी कर देते हैं......
सुमन सोचने पर मजबूर हो जाती है कि आजकल जितना भी देखने सुनने को मिलता है.... कहाँ कुछ कमी रह जाती है कि घर के बड़े बुज़ुर्ग अपने ही बच्चों द्वारा उपेक्षित होने लगते हैं...
(सुमन की कहानी का सच वास्तविक जीवन से जुड़ा है..ऐसे बहुत से परिवार होंगे जहाँ जो है , जैसा है...उसे वैसे का वैसा ही स्वीकार किया जाता होगा....)
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बुधवार, 28 अप्रैल 2010

हम बुरा ही क्यों सोचते हैं.....!



ऑफिस के लिए विजय निकले ही थे कि इधर दुबई वाला मोबाइल बज उठा, सालिक का सन्देश था जिसमें टॉलगेट पार करने के लिए अब एक भी दहरम नहीं बचा था. वहाँ के आठ बजे का सन्देश मिला तो एक दम ख्याल आया कि शायद बेटे ने उसी वक्त टॉलगेट पार किया होगा... कल ही उसकी वार्षिक परीक्षा खत्म हुई है...उसने कहा तो था कि पेपर खत्म होते ही फोन करूँगा,  क्या पता दोस्तों के साथ निकला हो डाउन टाउन की तरफ़...बस फिर क्या था हम लगे उसे फोन मिलाने..... घर का फोन और मोबाइल बार-बार मिला रहे थे लेकिन कहीं कोई अता पता नहीं था..... कलेजा जैसे मुँह को आ गया .... 
वरुण को उठाया .... “इतनी सुबह क्यों परेशान हो रहीं हैं ...सो रहा होगा.” कह कर  सो गया.... कुम्भकरण की नींद...! अरे इतनी बार में फोन की आवाज़ से तो पड़ोसी तक जाग गए होंगे....अब क्या करें....बेटे के एक करीबी दोस्त को फोन किया तो उसका फोन भी स्विच ऑफ आ रहा था...दिल और जोर से धड़कने लगा...जैसे अभी के अभी बाहर निकल आएगा....मन में बुरे बुरे ख्याल आने लगे.... आजकल जवान लड़के मस्ती करते वक्त ज़रा नहीं सोचते कि पीछे घर में कोई काँटों की सेज़ पर बैठा इंतज़ार कर रहा होगा....गाड़ी को स्पीड से भगाना....ड्राइव करते हुए फोन सुनना... ऊँची आवाज़ में संगीत लगाकर हा हा करते हुए बस अपनी धुन में निकल जाना...यही तो होता है अक्सर... ऊपर से दुबई की बेलगाम ज़िन्दगी..... कोई पीकर सामने ही न आ गया हो..... पैदल चलने वाले का ही कसूर क्यों न हो... पकड़ा तो गाड़ी का ड्राइवर ही जाएगा.....जानती हूँ कि विद्युत ऐसा नहीं कर सकता लेकिन समय कब बुद्धि फेर दे..किसे पता है.  
इस दौरान घर के और उसके मोबाइल पर लगातार फोन करती जा रही थी... फिर से वरुण को जगाती हूँ..... “तुम सोए रहो...मेरी जान निकली जा रही है” कहते कहते गला रुँध गया... जैसे मन भर का पत्थर गले में अटक गया हो.....नींद में ही उसने कहा विद्युत के दूसरे दोस्त को फोन करिए.... उसे किया तो वह भी नींद में ही था... मेरी आवाज़ सुनते ही डर गया... ‘आँटी, डॉंट वरी,,, ही वॉज़ हेल्पिंग हिज़ क्लासमेट फॉर लास्ट एग्ज़ाम इन सिटी सेंटर टिल लेट नाइट’ सुनकर मन को कुछ राहत पहुँची.. उसे सॉरी कहकर फिर से विद्युत को फोन लगाया.... लेकिन नहीं लगना था सो नहीं लगा....
इस बीच वरुण की नींद पूरी तरह से खुल चुकी थी.....मेरा ध्यान बँटाने के लिए चाय बनाने को कहा और खुद फ्रेश होने चला गया.... चाय की मेज़ पर बैठते ही शुरु हो गया.... मम्मी,,,,बताओ तो ज़रा...हम बुरा ही क्यों सोचते हैं....! कोई बात हो...कोई रिश्ता हो... किसी भी तरह की कोई बात हो ... एक पल नहीं लगता और हम बुरा सोचने लगते हैं.... अच्छा क्यों नहीं सोचते...! बुरा सोचते हैं तभी बुरा हो भी जाता है... लेकिन उस वक्त उसकी एक भी बात समझ नहीं आ रही थी....
माँ का दिल जो ठहरा... हार कहाँ मानता.... आखिरकार घर के फोन पर बेटे की उनींदी आवाज़ सुनाई दी...जान में जान आई..... “म्म्म्म्ममाँ ... नींद से क्यों उठा दिया...” उसके यह कहते ही हम अपनी आवाज़ ऊँची करने ही वाले थे कि उधर से डरी डरी सी आवाज़ आई... ‘सॉरी मम्मी...कल रात दोस्त को हैल्प करते करते लेट हो गया और फोन करना भूल गया’ कुछ ही पल में सारा डर, दर्द और गुस्सा गायब हो गया...
आजकल के बच्चे वैसे ही चुस्त चालाक हैं... मुझ पर ही बात डाल दी कि आप को बताया तो था कि एग्ज़ाम खत्म होते ही मैं खूब सोऊँगा... आप शायद भूल गईं. और फिर बात बदल कर पूछने लगा कि खाने में क्या बनाया है....खाना खाया कि नहीं.... 2मई को जब मैं आऊँ तो मेरी पसन्द का सब खाना बना कर रखना..अगले दिन का नाश्ता मैं बनाऊँगा.. ! यह सब सुनकर सब नाराज़गी भूल गए और बस मुस्कुरा कर रह गए.... !

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

रेप फिश



मौसम बदलने की इस प्रक्रिया में ऐसे लगता है जैसे जलते तपते सूरज से बचने के लिए धरती रेत का आँचल ओढ़े इधर से उधर भाग रही हो... तेज़ धूप में झुलसते पेड़ पौधों को भी उसी आँचल से छुपा लेती है जैसे कोई माँ अपने बच्चे को अपनी गोद में ले लेती है...... उसी तरह हरेक पर अपना आँचल फैलाने की कोशिश में जलने तपने की सब पीड़ा भूल जाती है, तभी तो इसे धरती माँ कहते हैं....

शुक्रवार (जुमे) का दिन... यही एक छुट्टी का दिन होता है जब बाहर के काम निपटाए जाते हैं.
नाश्ते में ज़ातर और जैतून के तेल के साथ एक चौथाई खुब्ज़ लिया. वरुण के हाथ की बनी स्पैशल मसालेदार(काली मिर्च और अदरक पाउडर) चाय का आनन्द लिया. कुछ देर अपने देश की राजनीति-आर्थिक व्यवस्था पर बातचीत हुई. धर्म और पाखंडों पर भी बहस हुई ...इन विषयों पर जितनी बेबाक चर्चा अपने किचन की मेज़ पर हो सकती है और कहीं नहीं की जा सकती...
उसी दौरान निश्चित हुआ कि किचन का सामान खरीदने के लिए सबसे नज़दीक के ऑथेम मॉल में जाया जाए, जो हमारे लिए नया था. जब हम मॉल में दाख़िल हुए तो आखिरी सला (इशा) पढ़ी जा रही थी. उस वक्त सब दुकानें बन्द थी.. हर सला पर अक्सर आदमी नमाज़ पढने निकल जाते हैं और औरते वहीं बैठ कर नमाज़ खत्म होने का इंतज़ार करती हैं, कुछ औरतें भी दुआ पढ़ती नज़र आ जाती हैं. ऐसा दिन में चार बार होता है.. खरीददारी का समय ऐसा तय किया जाता है कि दो नमाज़ों के बीच में ज़ब ज़्यादा समय मिलता है या आखिरी सला के बाद ही बाहर निकला जाता है...


इस दौरान हमने खूबसूरत मॉल का एक चक्कर लगाने की सोची... जिसमें एक तरफ ‘बिग बाज़ार’ की तरह बहुत बड़ा स्टोर दिया और दूसरी तरफ़ होम सेंटर...दूसरी मज़िल पर कुछ खास दुकानें जिसमें कपड़े, जूते, पर्स और मेकअप का सामान था...तीसरी मंज़िल पर ‘फूड कोर्ट’ और बच्चों के खेलने बहुत बड़ा ‘फन एरिया’. पैसा खर्च न हो इसलिए शायद आदमी लोगों को शॉपिंग से कोसों दूर भागते हैं लेकिन अपने बच्चों के साथ फूड कोर्ट या फन लैंड में दिख जाते हैं. औरतें ब्यूटी पार्लर में या शॉपिंग में मशगूल....
हर बार रियाद आने पर कुछ न कुछ बदलाव दिखता है... धीरे धीरे ही सही लेकिन बदलाव होता तो है...इस धीमे बदलाव से भी लोगों के मन में आशा की किरण जागती है और जीना आसान हो जाता है.
फूड कोर्ट में औरतों के लिए भी अलग काउंटर्ज़ थे जहाँ कुछ औरतों को खाना खरीदते हुए देखा...


एक और जो बात हमें पसन्द आई कि पर्दे से ढके केबिन के अलावा खुले में भी परिवारों के बैठने का प्रबन्ध था... अपनी इच्छा से पर्दे में या बाहर खुले में बैठने की सुविधा देखकर हमने बाहर ही बैठने का निश्चय किया हालाँकि उस जगह को भी चारों तरफ से नकली पौधों से ढका गया था...


पहली बार जैसे खुले मे साँस लेते हुए खाने का आनन्द आएगा, यह सोचकर हम उस काउंटर पर पहुँचे जहाँ ‘सी फूड’ था. वहाँ के बोर्ड पर लज़ीज़ खाने की तस्वीरों को देख कर भूख और भी बढ़ रही थी... ‘रेप फिश’ का नाम पढ़ कर हम चौंक गए.. सोचा काउंटर पर जाकर इस बारे में पूछे पर उन महोदय को तो अंग्रेज़ी का ए,बी,सी भी नहीं आता था और हम इतने सालों यहाँ रह कर भी अरबी में कच्चे ही रहे....(हिन्दी में लेख होने के कारण अरेबिक की जगह अरबी लिखना ही सही लगा)


रेप फिश पर बहस होने लगी कि शायद लोकल फिश मोस्टल है जिसे बनाने में रेपसीड के तेल का प्रयोग किया होगा... रेपसीड सरसों के ही परिवार का सदस्य है. कहीं कहीं तो इसके फल फूल और डालियाँ भी खाई जाती हैं..वरुण बोला कि शायद स्पैनिश तरीके से बनाई गई फिश हो जिसे ‘रेप अल लिमून’ या ‘फिश इन लेमन सॉस’ कहा जाता है जो मैडिटेरियन सी में पाई जाती है।


दस मिनट पूरे हो चुके थे सो बेटा खाने की ट्रे लेने पहुँचा....उसने दुबारा काउंटर पर खड़े लड़के से पूछने की कोशिश की लेकिन वह कुछ न बता पाया...खैर हमने मछली का आनन्द लिया जिसमें कुछ अलग ही स्वाद था शायद रेपसीड तेल या नीम्बू या सिरके की खटास के कारण.....मुँह के स्वाद को बदलने के लिए वरुण ने पैशन फ्रूट आइसक्रीम खाई. चखने पर बचपन याद आ गया जब गर्मी के दिनों मे हम खट्टे मीठे शरबत फ्रीज़र मे जमने के लिए रख देते थे....दोपहर के खाने के बाद खूब शौक से खाते और गर्मी भगाते.....खाना पीने का आनन्द लेकर घर के खाने-पीने का सामान लेने निकल पड़े...!
(अपने मोबाइल से कुछ तस्वीरें लेने का मोह न रोक सके हालाँकि तस्वीरे लेने की मनाही है)












शनिवार, 24 अप्रैल 2010

रेतीली हवाओं में संगीतमय फिल्म

गुरुवार की शाम घर से बाहर जाने का जोश ठंडा पड़ गया ..... रेतीला तूफ़ान (सैण्ड स्ट्रॉम) ऐसा शुरु हुआ कि घर के अन्दर भी साँस लेना मुश्किल हो गया... जान गए कि अभी फिलहाल कुछ देर के लिए तो बाहर निकलना नामुकिन है....सो चाय नाश्ता करते हुए एक फिल्म देखना निश्चित किया....
‘अगस्त रश’ ....सपनीली फिल्म जिसमें प्रेम और ममता का अनोखा रूप देखने को मिला.....संगीत की सुनहरी दुनिया में मिले दो अजनबी अनायास एक दूसरे की ओर खिंचे चले गए..दोनों ही संगीत के दीवाने....पहली नज़र का प्यार शायद इसी को ही कहते होंगे.....ऐसा हुआ जो नहीं होना चाहिए था... लड़की के पिता ने अपने अनुभव का सहारा लेकर दोनो को अलग करने की कोशिश की... सफ़ल भी हो गए......प्रेमी जोड़े की संतान को भी उनसे दूर कर दिया...ग्यारह साल के बाद बीमार पिता ने अपनी बेटी को अस्पताल बुला कर पुराने रहस्य को खोल दिया कि उसकी संतान ज़िन्दा है लेकिन किसी अनाथाश्रम है.....शायद मरता हुआ इंसान किसी भी अपराध भावना को लेकर इस दुनिया से नहीं जाना चाहता.... उधर दोनों प्रेमी भटकती आत्माओं की तरह दोनों एक दूसरे की तलाश में जी रहे थे.... उधर नन्हा सा बच्चा भी बड़ा हो रहा था अपने माता पिता की तलाश में.... संगीत प्रेम उसे अपने माता पिता से विरासत में मिला था.. प्रकृति के रोम रोम में संगीत की स्वर लहरी उस पर अनोखा जादू कर देती... उसे विश्वास था कि कहीं न कहीं उसके माता पिता भी उसे चाहते हैं...वे भी उसकी तलाश में होंगे.... संगीत के द्वारा वह अपने माता-पिता को खोजना चाहता था........
फिल्म के अगले हिस्से में शहर में पहुँचा लड़का खो गया और पहुँच गया एक ऐसी जगह जहाँ अनाथ बच्चे एक साथ रहते संगीत के ज़रिए पैसा इक्ट्ठा करके अपने लीडर को देते ... वह हिस्सा मन को बाँध न पाया लेकिन इसी बीच नाटकीय अन्दाज़ में पिता पुत्र की कुछ पल की मुलाकात भी होती है....
वहाँ से भाग कर चर्च में एक नन्हीं सी बच्ची से मुलाकात फिल्म को रोचक बना देती है.... उस बच्ची के कमरे में बैठकर संगीत बनाने का अनोखा तरीका हैरान करता है कि इतना छोटा सा बच्चा इतनी गहराई से कैसे अनुभव कर सकता है.... बच्चे का गिटार बजाने का अनोखा तरीका...गिटार बजाते हुए मंत्रमुग्ध करती मासूम मुस्कान ... मासूम मुस्कान, अलौकिक प्रेम की आभा और संगीतमय दिशाएँ.... मन को मोहित कर जाती हैं....
सुबह के सूरज की इठलाती किरणों का इधर उधर दौड़ना.. हवा का गुनगुनाना... .बास्केटबॉल खेलते बच्चों के जूतों की आवाज़ में भी उसे संगीत सुनाई देता...दूर किसी पार्क में झूला झूलते बच्चों की किलकारियाँ ... उसे मंत्रमुग्ध कर देतीं... चर्च की उस बच्ची के कारण उसके हुनर को निखारा वहाँ के बहुत बड़े संगीत स्कूल ने...
एक बहुत बड़े पार्क में संगीत के कार्यक्रम में माँ और बेटा दोनों हिस्सा लेते हैं....माँ को विश्वास था कि इसी शहर में कहीँ उसका खोया हुआ बच्चा है जिस तक उसके मन की आवाज़ पहुँच सकेगी... और बेटा हज़ारों लोगों के बीच में संगीत के माध्यम से अपने माता पिता तक अपने दिल की आवाज़ पहुँचाना चाहता था.
अंत में संगीत ने ही उन तीनों को एक दूसरे से मिला भी दिया.... फिल्म में संवाद बहुत कम हैं ... चेहरे पर आते जाते हाव भाव बहुत कुछ कह जाते हैं.... फिल्म देखने के बाद महसूस हुआ कि प्रेम संगीतमय है और संगीत प्रेमी ही प्रेम की परिभाषा को आसानी से समझ सकता है....
फिल्म के बारे में हम सही कह पाए हैं या नहीं यह तो आप फिल्म देख कर ही बता सकते हैं... !

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

ख़ानाबदोश ज़िन्दगी





नियमित न लिख पाने का एक बड़ा कारण है ख़ानाबदोश ज़िन्दगी... एक सूटकेस लिए कभी यहाँ तो कभी वहाँ... ब्लॉगजगत की पुरानी यादों ने झझकोरा तो एक पोस्ट के रूप में अपने ब्लॉग के बगीचे से एक नई कोंपल फूटी....14 अप्रेल को...सोचा तो यही था कि अब से नियमित लिखना शुरु करेंगे लेकिन फिर से सफ़र की तैयारी शुरु हो गई.....


दो दिन पहले ही दुबई से रियाद आए हैं... अभी यहाँ नेट , टेलिफोन और टीवी कनैक्शन की समस्या है...शहर से दूर एक नई जगह पर घर लेने के कारण नई समस्याएँ भी हैं.... खैर जैसे तैसे 5 जीबी कनैक्शन से ही खुश हैं...


यहाँ बाहर निकलने का सवाल ही नहीं है सो संगीत॥फिल्में और किताबें पढ़ने के बाद फोन पर पुराने दोस्तों से कुछ बातचीत होती है.... सुबह सवेरे धूप की नन्हीं नन्ही किरणें खिड़की के एक कोने से अन्दर आ ही जाती हैं...कुछ देर इठलाती इतराती इधर उधर भागती और फिर निकल जाती किसी ओर दिशा की ओर...खिड़की दरवाज़े बन्द होने के बावज़ूद पता नहीं कहाँ से धूल अन्दर आ धमकती है...दीवारों की मज़बूत बाँहों के घेरे में अपने आप को महफ़ूज़ पाकर मुँह चिढ़ाती सारे घर में उधम मचाती है... हम उसे भगाने मे लगे रहते हैं....


फिलहाल सप्ताह के अंत होने का इंतज़ार है ..... वीरवार और शुक्रवार को नीले आसमान के नीचे निकलने का मौका मिलेगा... शायद कुछ दोस्तों से भी मिलना हो...आभासी दुनियाअ तो लुभाती ही है लेकिन वास्तविक दुनिया का मोह भी नहीं छूटता....!


बुधवार, 14 अप्रैल 2010

भूली बिसरी यादों की खुशबू....





भूली बिसरी यादों की खुशबू फिर से मन को महकाने लगी.... भूली बिसरी यादें ! नहीं नहीं.......... यादें तो बस यादें होती हैं..शायद यादें कभी भुलाई ही नही जा सकती........खूबसूरत यादें...ज़िन्दगी की दिशाओं को महकाती यादें.... पिछले दिनों जाना कि जीवन प्याला जो साँसों के अमृत रस से भरा है आधा छलक गया .... छलका उस पथ पर जिस पर अपने ही चल रहे थे....उन्ही अपनों ने आधे भरे प्याले का आनन्द उठाने की दुआएँ दीं.....
उन्ही अपनों का आभार कैसे और किन शब्दों में व्यक्त करें... गर वे अपने हैं तो फिर वे मन के भाव अपने आप ही समझ जाएँगे..... !
एक अर्से के बाद लौटे हैं ब्लॉग जगत में.... यहाँ की यादों को फिर से तरो ताज़ा कर लें फिर अपने बारे में कुछ कहेंगे....