आज बस जी चाहा कि किसी अनाम की टिप्पणी पर हम भी कुछ कहें....
काश ... सरहदें न होतीं.....सिर्फ अपने परिवार से दूर होने की चाहत से नहीं बल्कि कई ऐसे बिखरे परिवारों के दर्द को देख कर....जो चाह कर भी एक साथ नहीं रह सकते.....
पिछली पोस्ट पर एनोनिमस महोदय/महोदया लिखते हैं.......
"अपना देश क्यों छोड़ा ? क्या कोई ढकेलने वाला था या केवल अधिक पैसे के लिए
तो फिर आप क्यों रो रहे हो "
सबसे पहले तो आप इस भ्रम से निकले..... कि विदेश में अधिक पैसा मिलता है....सुविधाएँ ज़रूर आकर्षित करती है.....खैर पहला सवाल....अपना देश क्यों छोड़ा.....? देश छोड़ने के अलग अलग पारिवारिक कारण हो सकते हैं..... सिताह जैसे लोग तो हज़ारों की तादाद में मिलेंगे....
हमारे जैसे लोग भाग्य द्वारा बाहर ढकेले जाते हैं.... आप को यह रोना लगा....हमें यह बाँटना लगा.....
इस पोस्ट को लिखने का एक ही मकसद है कि विदेश में अधिक पैसा मिलता है इस भ्रम को तोड़ा जाए....जानते हुए भी कई लोग बाहर का रुख करते हैं इसके पीछे भी कई कारण है....
हमारे देश की बात ही नहीं... एशिया के लगभग सभी देशों में यही समस्या है....बेरोज़गारी से जूझते लोग...अपने परिवार के पालन पोषण के लिए देश से बाहर किसी भी काम को करने के लिए तैयार रहते हैं....
सरकार का ढाँचा...जनसंख्या... बेरोज़गारी...... रोज़गार न होने के कारण कई परिवार भूखों तड़पते देखे जा सकते हैं लेकिन हमारी मानसिकता ऐसी है कि हम अपने ही देश में वेटर या 'बेबी सिटिंग' का काम नहीं करेंगे... विदेश में कर लेंगे...क्यों.... वहाँ हर काम को इज़्ज़त की नज़र से देखा जाता है...
अपने आस पास कितने ही लोगों को देखा जो विदेश जाकर कोई भी काम करने के लिए तैयार रहते हैं लेकिन अपने देश में अपने ही घर का कूड़ा फेंकने के लिए जमादार चाहिए....
अच्छे घर परिवार की पढ़ी लिखी बहू घर बैठे बैठे ही बेबी सिटिंग करने के काम के बारे में सोच भी नहीं सकती....
पढ़ने वाले बच्चों को उधार ले लेकर पढ़ाने का बोझ माँ बाप अकेले ढोते हैं....बस तुम पढो... अच्छी नौकरी पा लो... कह कर अपने दर्द में बच्चों को हिस्सेदार नहीं बनाते.....वही बच्चे बड़े होकर अगर बूढ़े होते माँ बाप को एक तरफ छिटक दें तो फौरन उन्हें बुरा भला कहना शुरु कर देते हैं..... जबकि हम यह नहीं जानते कि बचपन से ही उन्हें एक दूसरे के दर्द में भागीदार बनाने पर ही वे परिवार से जुड़े रह पाएँगे.
विकासशील देश बेरोज़गारी की समस्या से जूझ रहे हैं....दुबई जैसे छोटे से देश में ही भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका के लगभग 700,000 मज़दूरों को रोज़गार मिला हुआ है.
सुबह की चाय के वक्त इतना नीरस विषय.... बस बैठे बैठे यूँ ही लिख लिया तो अब पोस्ट तो ज़रूर करेंगे....
पूजा पाठ करते नहीं लेकिन नास्तिक भी नहीं....एक असीम शक्तिपुंज है जिसकी मर्जी के खिलाफ एक पत्ता भी नहीं हिलता.... यह सोच तो अटल है...
कर्म करने पर विश्वास रखते है तो भाग्य को भी मानते हैं....
(एनोनिमस महोदय/महोदया..... आपके कारण हम एक पोस्ट लिख पाए..आपका बहुत बहुत शुक्रिया .......)
Translate
शुक्रवार, 15 मई 2009
गुरुवार, 14 मई 2009
काश ..... सरहदें न होतीं..... !
गर सरहदें न होती तो इस वक्त बेटा वरुण भी अपने पापा के साथ दमाम से दुबई आ रहा होता. पूरा परिवार लम्बे अर्से के बाद एक साथ होता....एक साथ मिलकर उसका जन्मदिन मनाते..... लेकिन ज़रूरी नहीं कि जो हम चाहें सब वैसा ही हो.....
अक्सर ऊँची शिक्षा के लिए बच्चे विदेशों में जाते ही हैं, अपने देश से , अपने माता-पिता, भाई-बहन से दूर चले जाते हैं...
लेकिन एक देश से दूसरे देश में दाखिल होने के लिए जद्दोजहद करनी पड़े , नौकरी लायक बेटे को विदेश में घर अपना होने पर भी वीज़ा आसानी से न मिले, इस छटपटाहट को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता....
यह दर्द सिर्फ एक का नहीं , कई लोगों का है.....
कई परिवारों के पुरुष विदेश में हैं तो स्त्री देश में घर परिवार की देखरेख करती है, कहीं पुरुष के सहारे पूरा परिवार को छोड़ कर औरत चली आती है विदेश में.... रोज़ी रोटी के कारण , परिवार के पालन पोषण के कारण कितने ही परिवार बिखर जाते हैं....
कुछ दिन पहले समुद्र के किनारे बैठी एक फीलिपीनो औरत को रोते देखा तो रहा न गया... पूछ ही लिया.....'मिस, आर यू ओके?' भीगी आँखों से उसने हमारी तरफ देखा तो उन आँखों मे बहते दर्द को देख न पाए... फौरन आँसू पोछ कर उसने कहा,
आइ एम सिताह....अपनत्व की मुस्कान देखते ही यादों का सैलाब उमड़ पड़ा...
ड्राइवर पति की कमाई से गुज़ारा नहीं हुआ तो पति के सहारे चार बच्चों को छोड़ कर फीलिपीन से दुबई आ गई.......
चलते वक्त पाँच साल के सबसे छोटे बेटे की आँखों को वह कभी नहीं भुला पाई... उन आँखों का दर्द उसके साथ उसकी कब्र तक जाएगा ... ऐसा कहते ही वह फिर रो उठी....
छोटी से एलबम मेरी तरफ बढ़ा दी.....बच्चों और पति की तस्वीर दिखाते हुए कहने लगी कि सबसे बड़ी बेटी अब कॉलेज में है, फीस न भेजने के कारण पढ़ाई अगले साल तक रोकनी पड़ी...
एक साथ दो दो जगह बेबी सिटिंग का काम करके भी गुज़ारा मुश्किल है.... काफी देर तक वह अपने परिवार के बारे बताती रही...
कुछ ही देर में घड़ी देखकर उठ गई कि उसे मैडम और बच्चों को पियानो क्लास खत्म होने पर पिक करना है...सिताह की व्यथा के आगे अपनी कथा तो धूमिल लगने लगी......
सोचने लगी हमारा परिवार तो सिर्फ 4-5 सालों से ही अलग हुआ है... फिर समय समय पर हम मिलते भी रहते हैं....
वरुण के पास साउदी वीज़ा था सो पापा के पास चला गया और हम रेज़िडेंस वीज़ा होने के कारण छोटे बेटे विद्युत के पास आ गए.. सिताह की याद आते ही अपनी परेशानियाँ तो उसके दुख के आगे बहुत कम लगने लगी..... फिर दोनो बेटे अपनी अपनी समझ के अनुसार हमारे मन के संताप को दूर करते हैं...
एक बेटा अगर माँ को चिंता मुक्त करता है तो दूसरा बेटा पिता को नए नए उपाय बताकर उनकी थकान हर लेता है.
दम्माम से 200 कि.मी. दूर अल हफूफ में नए प्रोजेक्ट पर जाने के लिए होटल रुकना और नए घर की तलाश शुरु कर देना...आसान नहीं था... जाना जाता है कि अल हफूफ नाम का शहर साउदी अरब का सबसे गर्म इलाका माना जाता है... फिर भी बला की गर्मी में घर ढूँढ लिया गया...पेपर बने..एडवांस का पैसा दे दिया गया...अब बस हमें पहुँच कर घर बदलना था .....
अचानक खबर आई कि हैड ऑफिस वापिस लौटा जाए , वहाँ ज़रूरत है... सब छोड़ छाड़ कर परिवार को लेकर रियाद जाना होगा.... सुनकर एक पल के लिए सकते में आ गए....... फिर खुशी हुई क्योंकि सालों से हम उसी शहर में रहे थे... 5 साल बाद फिर से उसी शहर में अपने परिचित मित्रों के पास लौटना खुशी की ही बात थी.... अब नए सिरे से फिर से रियाद जाकर एक घर की तलाश शुरु करनी होगी....
अब तो हम कहते हैं कि सारी दुनिया हमारा आशियाना है.... !!
आशियाने के एक कोने में बेटा वरुण है जिसे हम इस पार से प्यार और आशीर्वाद भेज रहे हैं.... अपने देश की पूर्वी दिशा से रचना मौसी ने प्यार और आशीर्वाद भेजा तो उनके साथ और भी कई प्यार करने वाले और शुभकामनाएँ भेजने वाले साथ हो लिए...... तो जंगल में मंगल हो गया.... सूखे रेगिस्तान में प्यार की वर्षा होने लगी.....!
अक्सर ऊँची शिक्षा के लिए बच्चे विदेशों में जाते ही हैं, अपने देश से , अपने माता-पिता, भाई-बहन से दूर चले जाते हैं...
लेकिन एक देश से दूसरे देश में दाखिल होने के लिए जद्दोजहद करनी पड़े , नौकरी लायक बेटे को विदेश में घर अपना होने पर भी वीज़ा आसानी से न मिले, इस छटपटाहट को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता....
यह दर्द सिर्फ एक का नहीं , कई लोगों का है.....
कई परिवारों के पुरुष विदेश में हैं तो स्त्री देश में घर परिवार की देखरेख करती है, कहीं पुरुष के सहारे पूरा परिवार को छोड़ कर औरत चली आती है विदेश में.... रोज़ी रोटी के कारण , परिवार के पालन पोषण के कारण कितने ही परिवार बिखर जाते हैं....
कुछ दिन पहले समुद्र के किनारे बैठी एक फीलिपीनो औरत को रोते देखा तो रहा न गया... पूछ ही लिया.....'मिस, आर यू ओके?' भीगी आँखों से उसने हमारी तरफ देखा तो उन आँखों मे बहते दर्द को देख न पाए... फौरन आँसू पोछ कर उसने कहा,
आइ एम सिताह....अपनत्व की मुस्कान देखते ही यादों का सैलाब उमड़ पड़ा...
ड्राइवर पति की कमाई से गुज़ारा नहीं हुआ तो पति के सहारे चार बच्चों को छोड़ कर फीलिपीन से दुबई आ गई.......
चलते वक्त पाँच साल के सबसे छोटे बेटे की आँखों को वह कभी नहीं भुला पाई... उन आँखों का दर्द उसके साथ उसकी कब्र तक जाएगा ... ऐसा कहते ही वह फिर रो उठी....
छोटी से एलबम मेरी तरफ बढ़ा दी.....बच्चों और पति की तस्वीर दिखाते हुए कहने लगी कि सबसे बड़ी बेटी अब कॉलेज में है, फीस न भेजने के कारण पढ़ाई अगले साल तक रोकनी पड़ी...
एक साथ दो दो जगह बेबी सिटिंग का काम करके भी गुज़ारा मुश्किल है.... काफी देर तक वह अपने परिवार के बारे बताती रही...
कुछ ही देर में घड़ी देखकर उठ गई कि उसे मैडम और बच्चों को पियानो क्लास खत्म होने पर पिक करना है...सिताह की व्यथा के आगे अपनी कथा तो धूमिल लगने लगी......
सोचने लगी हमारा परिवार तो सिर्फ 4-5 सालों से ही अलग हुआ है... फिर समय समय पर हम मिलते भी रहते हैं....
वरुण के पास साउदी वीज़ा था सो पापा के पास चला गया और हम रेज़िडेंस वीज़ा होने के कारण छोटे बेटे विद्युत के पास आ गए.. सिताह की याद आते ही अपनी परेशानियाँ तो उसके दुख के आगे बहुत कम लगने लगी..... फिर दोनो बेटे अपनी अपनी समझ के अनुसार हमारे मन के संताप को दूर करते हैं...
एक बेटा अगर माँ को चिंता मुक्त करता है तो दूसरा बेटा पिता को नए नए उपाय बताकर उनकी थकान हर लेता है.
दम्माम से 200 कि.मी. दूर अल हफूफ में नए प्रोजेक्ट पर जाने के लिए होटल रुकना और नए घर की तलाश शुरु कर देना...आसान नहीं था... जाना जाता है कि अल हफूफ नाम का शहर साउदी अरब का सबसे गर्म इलाका माना जाता है... फिर भी बला की गर्मी में घर ढूँढ लिया गया...पेपर बने..एडवांस का पैसा दे दिया गया...अब बस हमें पहुँच कर घर बदलना था .....
अचानक खबर आई कि हैड ऑफिस वापिस लौटा जाए , वहाँ ज़रूरत है... सब छोड़ छाड़ कर परिवार को लेकर रियाद जाना होगा.... सुनकर एक पल के लिए सकते में आ गए....... फिर खुशी हुई क्योंकि सालों से हम उसी शहर में रहे थे... 5 साल बाद फिर से उसी शहर में अपने परिचित मित्रों के पास लौटना खुशी की ही बात थी.... अब नए सिरे से फिर से रियाद जाकर एक घर की तलाश शुरु करनी होगी....
अब तो हम कहते हैं कि सारी दुनिया हमारा आशियाना है.... !!
आशियाने के एक कोने में बेटा वरुण है जिसे हम इस पार से प्यार और आशीर्वाद भेज रहे हैं.... अपने देश की पूर्वी दिशा से रचना मौसी ने प्यार और आशीर्वाद भेजा तो उनके साथ और भी कई प्यार करने वाले और शुभकामनाएँ भेजने वाले साथ हो लिए...... तो जंगल में मंगल हो गया.... सूखे रेगिस्तान में प्यार की वर्षा होने लगी.....!
शनिवार, 2 मई 2009
दिल्ली से दुबई
दुबई में हूँ छोटे बेटे के साथ ... जहाँ छोटे बेटे से मिलने की खुशी है वहीँ बड़े बेटे से बिछुड़ने का दुख भी है. माँ बनते ही औरत की बाकि सभी भूमिकाएँ धूमिल होने लगती है. शायद तभी माँ को सबसे ऊँचा दर्जा दिया जाता है. अचानक हिन्दी फिल्म 'औरत' का एक गीत याद आ गया....'नारी जीवन झूले की तरह इस पार कभी उस पार कभी' ....
दिल्ली हवाई अड्डे पर हम दोनों एक साथ अन्दर दाखिल हुए थे लेकिन दोनों को अलग अलग देशों में जाना था. बेटे ने गल्फएयर से बेहरीन जाना था और हमने एयर अरेबिया से शारजाह. दिल्ली ऐयरपोर्ट दाखिल होते ही पहले हमारा काउंटर आया सो हमने फट से अपना सामान बुक करवा दिया. वरुण धीरे धीरे गल्फ ऐयर के काउंटर की तरफ जाने लगा।
अपना सामान बुक कराने के बाद जब हम गल्फएयर के काउंटर पर पहुँचे. तो काउंटर पर बैठे लोग परेशान हो गए कि हम अन्दर कैसे आ गए. सवाल पर सवाल करने लगे. पूरी कहानी कुछ उलझी हुई थी सो बस इतना ही बता पाए कि हम दुबई छोटे बेटे के पास जा रहे हैं और यह बेटा अपने पापा के पास साउदी अरब जा रहा है. उत्सुकता थी सब कुछ जानने की लेकिन पीछे के मुसाफिरों को देखकर जल्दी से वरुण की मन पसन्द सीट दे दी ...
कुछ देर में हम दोनों वेटिंग लॉंज में थे... हम दोनों की ही फ्लाइट गेट न. 9 से जानी थी.... काफी वक्त होने के कारण एक तरफ कोने की कुर्सियों पर जा बैठे... किसी मुसाफिर की आँखें अभी भी भीगी थी तो कोई मोबाइल पर अपने प्रियजनों से बात करता करता रो रहा था... किसी के चेहरे पर अपने बिछुड़ों से मिलने की खुशी थी.... एयरपोर्ट भी एक अजब जगह है जहाँ कुछ लोग मिलते हैं और कुछ लोग बिछुड़ते हैं... आँखें सब की गीली होती हैं.
हम दोनों मुस्कुरा रहे थे...कुछ ज़्यादा ही ... दोनों ही एक दूसरे को दिखाना चाहते थे कि इस विपरीत परिस्थिति में भी हम सामान्य हैं.. कुछ ही देर में वरुण अपनी फ्लाइट की ओर रवाना हो गया...हमारी निगाहें स्क्रीन पर टिकी थीं जहाँ 'डिपार्टड' लिखा देख कर समझ गए कि अब जहाज़ उड़ चुका है. एक घंटे बाद हमारी फ्लाइट थी. बेटे के बिना एक घंटा भारी लगने लगा...ऐसे में डयूटी फ्री शॉप घूम कर वक्त आसानी से कट गया और घोषणा होते ही हम भी जहाज़ की ओर बढ़ गए...
सालों से सफ़र करते हुए भी जहाज़ में दाखिल होते ही दिल कुछ तेज़ी से धड़क उठता है. वरुण के दादाजी ने एक बार अपने पास बिठाकर कहा था कि देखता हूँ कि तुम पूजा पाठ नहीं करती हो लेकिन एक बात मेरी मानना कि महामृत्युंजय मंत्र का पाठ ज़रूर किया करो, सफ़र में चलते हुए तो ज़रूर करना बस तब से हमेशा सीट पर बैठते ही
'महा मृत्युंजय' का पाठ करने लगते हैं...कब आँख लगी पता नहीं चला, लैंडिंग के वक्त ही आँख खुली.
एयरपोर्ट उतरते ही पहले विद्युत को फोन लगाया, उसका हालचाल पूछने की बजाए पहले वरुण के खैरियत से पहुँचने की खबर जाननी चाही. दोस्त 'अर्बुदा' जिसे हम स्लीपिंग ब्लॉगर कहते हैं उसके पति गौरव वरुण को घर ले जा चुके थे. अगले दिन पति आकर ले जाएँगे यह पता लगने पर शांत मन से एयरपोर्ट से बाहर निकली.
बाहर निकलते निकलते आधी रात हो चुकी थी. विद्युत को कह चुके थे कि हम टैक्सी से घर पहुँच जाएँगें. जैसे ही हम टैक्सी स्टैंड तक पहुँचे , हमें फिलीपीनो ड्राइवर, जो 30-35 साल की लग रही थी , उसकी टैक्सी में बैठने को कहा. लेडी ड्राइवर ने बड़ी फुर्ती से हमारा सामान कार में रखा और घर का पता पूछने लगी।
हम दोनों मुस्कुरा रहे थे...कुछ ज़्यादा ही ... दोनों ही एक दूसरे को दिखाना चाहते थे कि इस विपरीत परिस्थिति में भी हम सामान्य हैं.. कुछ ही देर में वरुण अपनी फ्लाइट की ओर रवाना हो गया...हमारी निगाहें स्क्रीन पर टिकी थीं जहाँ 'डिपार्टड' लिखा देख कर समझ गए कि अब जहाज़ उड़ चुका है. एक घंटे बाद हमारी फ्लाइट थी. बेटे के बिना एक घंटा भारी लगने लगा...ऐसे में डयूटी फ्री शॉप घूम कर वक्त आसानी से कट गया और घोषणा होते ही हम भी जहाज़ की ओर बढ़ गए...
सालों से सफ़र करते हुए भी जहाज़ में दाखिल होते ही दिल कुछ तेज़ी से धड़क उठता है. वरुण के दादाजी ने एक बार अपने पास बिठाकर कहा था कि देखता हूँ कि तुम पूजा पाठ नहीं करती हो लेकिन एक बात मेरी मानना कि महामृत्युंजय मंत्र का पाठ ज़रूर किया करो, सफ़र में चलते हुए तो ज़रूर करना बस तब से हमेशा सीट पर बैठते ही
'महा मृत्युंजय' का पाठ करने लगते हैं...कब आँख लगी पता नहीं चला, लैंडिंग के वक्त ही आँख खुली.
एयरपोर्ट उतरते ही पहले विद्युत को फोन लगाया, उसका हालचाल पूछने की बजाए पहले वरुण के खैरियत से पहुँचने की खबर जाननी चाही. दोस्त 'अर्बुदा' जिसे हम स्लीपिंग ब्लॉगर कहते हैं उसके पति गौरव वरुण को घर ले जा चुके थे. अगले दिन पति आकर ले जाएँगे यह पता लगने पर शांत मन से एयरपोर्ट से बाहर निकली.
बाहर निकलते निकलते आधी रात हो चुकी थी. विद्युत को कह चुके थे कि हम टैक्सी से घर पहुँच जाएँगें. जैसे ही हम टैक्सी स्टैंड तक पहुँचे , हमें फिलीपीनो ड्राइवर, जो 30-35 साल की लग रही थी , उसकी टैक्सी में बैठने को कहा. लेडी ड्राइवर ने बड़ी फुर्ती से हमारा सामान कार में रखा और घर का पता पूछने लगी।
दुबई के उस पार का पता जान कर दूरी के कारण कुछ पल के लिए वह झिझकी लेकिन फिर एक बड़ी मुस्कान के साथ बिस्माल्लाह कह कर टैक्सी स्टार्ट कर दी. टैक्सी 120 की स्पीड पर सड़क पर दौड़ने तो लगी लेकिन लगा कि हवाई जहाज़ के सफ़र में तो हम बच गए ...कहीं ऐसा न हो यह लेडी ड्राइवर हमें ज़मीन पर पटक दे सदा के लिए.... डर तो बहुत रहे थे लेकिन फिर हमने महामृत्युंजय का मंत्र पढ़ना शुरु कर दिया. सोचने लगे शायद देर रात की सवारी की उम्मीद न थी लेकिन अब इतनी दूर जाना पड़ गया.
कुछ देर बाद रहा न गया ,,, आखिर पूछ ही लिया, 'हैलो मिस, आर यू ओके?' 'यस यस मदाम,,,आइ एम ओके...' कुछ देर बाद फिर से अपने आप ही बोल उठी कि चार साल से ड्राइविंग करते हुए उसे कमर में दर्द रहने लगा इसलिए वह वापिस अपने देश लौट जाएगी. सड़क पर दौड़ती टैक्सी की जितनी स्पीड थी उससे कहीं ज़्यादा हमारे दिल की धडकन थी, असल में जब तक हमें ड्राइविंग नहीं आती तब तक तो हम किसी के साथ भी आराम से बैठ सकते हैं लेकिन जब खुद गाड़ी चलाने लगो तो दूसरे पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल लगने लगता है.
खैर अपने घर पहुँच ही गए, बेटा पहले से ही बाल्कनी में खड़ा इंतज़ार कर रहा था, फौरन आकर गले लग गया, (पैर छूना भूल गया और हम गले लगते ही बताना भूल गए) इस बार घर पहले से बहुत साफ सुथरा था बस कपड़े ही कपड़े दिखाई दे रहे थे.
मेरे पहुँचने से पहले डिनर मँगवा लिया था. दोनो ने एक साथ खाना खाया. कुछ ही देर में बेटा चाय भी बना कर ले आया. सारी थकान , सारी चिंता दूर हो गई. अगले दिन बेटे का आखिरी एग्ज़ाम था सो जल्दी ही सो गए कि सुबह कॉलेज छोड़ने जाना है. अगले दिन एक नई दिनचर्या का स्वागत करना था...!
कुछ देर बाद रहा न गया ,,, आखिर पूछ ही लिया, 'हैलो मिस, आर यू ओके?' 'यस यस मदाम,,,आइ एम ओके...' कुछ देर बाद फिर से अपने आप ही बोल उठी कि चार साल से ड्राइविंग करते हुए उसे कमर में दर्द रहने लगा इसलिए वह वापिस अपने देश लौट जाएगी. सड़क पर दौड़ती टैक्सी की जितनी स्पीड थी उससे कहीं ज़्यादा हमारे दिल की धडकन थी, असल में जब तक हमें ड्राइविंग नहीं आती तब तक तो हम किसी के साथ भी आराम से बैठ सकते हैं लेकिन जब खुद गाड़ी चलाने लगो तो दूसरे पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल लगने लगता है.
खैर अपने घर पहुँच ही गए, बेटा पहले से ही बाल्कनी में खड़ा इंतज़ार कर रहा था, फौरन आकर गले लग गया, (पैर छूना भूल गया और हम गले लगते ही बताना भूल गए) इस बार घर पहले से बहुत साफ सुथरा था बस कपड़े ही कपड़े दिखाई दे रहे थे.
मेरे पहुँचने से पहले डिनर मँगवा लिया था. दोनो ने एक साथ खाना खाया. कुछ ही देर में बेटा चाय भी बना कर ले आया. सारी थकान , सारी चिंता दूर हो गई. अगले दिन बेटे का आखिरी एग्ज़ाम था सो जल्दी ही सो गए कि सुबह कॉलेज छोड़ने जाना है. अगले दिन एक नई दिनचर्या का स्वागत करना था...!
शनिवार, 25 अप्रैल 2009
फिर से मिलने की ललक
याद आई अपने बोंजाई पौधे की जो पिछली बार आखिरी साँसें ले रहा था.....पूरा पौधा सूख कर कंकाल सा लग रहा था....मरते हुए पत्ते की अंतिम साँस जैसे अटकी हुई थी हमसे मिलने को .... जिसे देखते ही दिल दहल गया..... चाह कर भी बेटे को कुछ न कह पाई ...हमारी भीगी आँखों को देख कर ही वह समझ गया था...अपराधी की तरह सामने खड़ा होकर बस माफी माँगने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं था...

पत्ते की लटकी गर्दन को देख कर भी मन हारा नहीं ..... पानी के हल्के छींटे दिए.... कंकाल सी सूखी शाखाएँ थरथरा उठी.... बिना परिणाम की चिंता किए हर रोज़ पानी देने लगे....

दो दिन बाद सुबह पानी पीने रसोईघर की ओर गए तो पत्ते की उठी गर्दन को देखकर मंत्रमुग्ध से खड़े रह गए.... टकटकी लगाए देखते हुए सोचने लगे...जड़े सूखी थीं... शाखाएँ बेज़ान सी बाँहों जैसी आसमान में उठी थीं प्राण पाने की प्रार्थना करती हुई... हरे पत्ते ने सिर उठा कर साबित कर दिया कि जीवन की आखिरी साँस तक संघर्ष ही जीवन लौटा सकता है.

पत्ते की लटकी गर्दन को देख कर भी मन हारा नहीं ..... पानी के हल्के छींटे दिए.... कंकाल सी सूखी शाखाएँ थरथरा उठी.... बिना परिणाम की चिंता किए हर रोज़ पानी देने लगे....

दो दिन बाद सुबह पानी पीने रसोईघर की ओर गए तो पत्ते की उठी गर्दन को देखकर मंत्रमुग्ध से खड़े रह गए.... टकटकी लगाए देखते हुए सोचने लगे...जड़े सूखी थीं... शाखाएँ बेज़ान सी बाँहों जैसी आसमान में उठी थीं प्राण पाने की प्रार्थना करती हुई... हरे पत्ते ने सिर उठा कर साबित कर दिया कि जीवन की आखिरी साँस तक संघर्ष ही जीवन लौटा सकता है.
हमारा जीवन भी कुछ ऐसा ही है.... आशाएँ रूठ जाती हैं..... खुशियाँ आखिरी साँसे लेती दिखाई देने लगती हैं... निराशा और उदासी की हज़ारों रेखाएँ शाखाओं सी आसमान की ओर बढने लगती हैं....थका हारा सा जीवन सूखे पत्ते सा कर्म करने की चाह में जैसे ही सक्रिय होता है ... जीवन फिर से हरा भरा हो जाता है... बेटे को कुछ समझाने की ज़रूरत नही पड़ी...... फिर से साँस लेते पत्ते को देखते ही उसके चेहरे पर आई चमक को देख कर हम तो असीम सुख पा गए.... !
( फिर से उस पत्ते से मिलने की ललक ने यह पोस्ट लिखवा डाली.. )
बुधवार, 22 अप्रैल 2009
ज़िन्दगी के फलसफ़े
पड़ोस में दीपा जी रहती हैं जिनके दोनों बच्चों की शादी हो चुकी है. दोनो बच्चे अपने-अपने घर संसार में खुश हैं. दीपाजी का दिल और दिमाग अब एक नए तरह के खालीपन से भरने लगा. बरसों से घर गृहस्थी को ईमानदारी से निभाते निभाते वे अपने आप को भूल चुकी थी. उस खालीपन को भरने के लिए उनके पतिदेव नें उन्हें एक एनजीओ में ले जाने का इरादा कर लिया. घर से बाहर निकलते ही जब इतने लोगों को ज़िन्दगी के अलग अलग दुखों का सामना करते देखा तो अपना खालीपन एक भ्रम सा लगने लगा. अब उन्हें एक लक्ष्य मिल गया और उसे पूरा करने की ठान ली, बस फिर क्या था चेहरे पर एक अलग ही चमक दिखने
लगी, उनके चेहरे की चमक से उनके जीवनसाथी का चेहरा भी खुशी से दमकने लगा. दीपाजी की बातों से लगता है कि उनके पास ढेरों ऐसे अनुभव है जिन्हें वे हमसे बाँट सकती हैं... बस हमने उन्हें ब्लॉग़ बनाने की सलाह दे डाली. नया ब्लॉग़ बनाया गया ‘ ज़िन्दगी के फलसफ़े’ वरुण ने हिन्दी का एक प्रोग्राम उनके लैपटॉप में डाल दिया। अगली शाम जब उन्होंने हिन्दी में टाइप किया हुआ एक छोटा सा पैराग्राफ पढ़ने को दिया तो हम हैरान रह गए। 24 घंटे के अन्दर उन्होंने बहुत अच्छी तरह से हिन्दी टाइपिंग सीख ली थी. फिर तो एक के बाद एक तीन पोस्ट डाल दीं गईं. हिन्दी टाइपिंग जितनी आसानी से सीखी , विश्वास है कि उतनी ही जल्दी वे स्वयं अपने ब्लॉग को तकनीकी रूप से सजाना भी सीख लेंगी.
लगी, उनके चेहरे की चमक से उनके जीवनसाथी का चेहरा भी खुशी से दमकने लगा. दीपाजी की बातों से लगता है कि उनके पास ढेरों ऐसे अनुभव है जिन्हें वे हमसे बाँट सकती हैं... बस हमने उन्हें ब्लॉग़ बनाने की सलाह दे डाली. नया ब्लॉग़ बनाया गया ‘ ज़िन्दगी के फलसफ़े’ वरुण ने हिन्दी का एक प्रोग्राम उनके लैपटॉप में डाल दिया। अगली शाम जब उन्होंने हिन्दी में टाइप किया हुआ एक छोटा सा पैराग्राफ पढ़ने को दिया तो हम हैरान रह गए। 24 घंटे के अन्दर उन्होंने बहुत अच्छी तरह से हिन्दी टाइपिंग सीख ली थी. फिर तो एक के बाद एक तीन पोस्ट डाल दीं गईं. हिन्दी टाइपिंग जितनी आसानी से सीखी , विश्वास है कि उतनी ही जल्दी वे स्वयं अपने ब्लॉग को तकनीकी रूप से सजाना भी सीख लेंगी.
एक विशेष बात जिसने मन मोह लिया। दीपाजी की बेटी और दामाद दुबई में रहते हैं। दीपाजी का ब्लॉग़ देखकर दोनों बच्चों ने हिन्दी टाइपिंग सीखकर टिप्पणी हिन्दी में ही की... अपने बच्चों द्वारा प्यार और आदर के छोटे छोटे ऐसे उपहार जीने का आनन्द दुगुना कर देते हैं.
सोमवार, 20 अप्रैल 2009
पदम तले त्रिपदम
हरिद्वार के पतजंलि योगपीठ में प्रकृति के साथ बिताए कुछ पल यादगार बन गए। बेटे वरुण ने पूरे आश्रम में घूम घूम कर सभी फूल पौधों के चित्र खींचें. उसकी स्वीकृति लेने के बाद इन तस्वीरों
में त्रिपदम सजा दिए.
| न्यारा है रूप चित्रकला अनोखी रंगों की माया |
बिन्दु चक्र में सम्मोहन की छाया भरा रहस्य |
| मैं और तुम उपवन के माली फूल खिले हैं |
| बाँहें फैलाए धरा खड़ी निहारे नीला आकाश |
काँटो का संगी गुलाब नाज़ुक सा गुलों का गुल |
धरा सजी है लाल पीले रंग से पत्ते मुस्काए |
| गुलाबी गोरी प्रहरी तने हुए नाता गहरा |
| हरा कालीन टंके हैं बेल-बूटे बेमोल कला |
शनिवार, 18 अप्रैल 2009
एक कोशिश

महीनो से ब्लॉग बैराग ले कर उचटते मन को सही राह दिखाने में ब्लॉग जगत के कई मित्रों ने कोई कसर नही छोड़ी... आज अनायास ही मन में लहर उठी, शायद संगीत सुरा का सुरूर ..... चिट्ठाचर्चा पढ़ने लगे और मन में आया कि टिप्पणी देने की बजाए एक पोस्ट ही लिख दी जाए....
"तात्कालिक अवसाद तो व्यस्त होकर दूर किया जा सकता है। लेकिन जब अवसाद का दौर लम्बा चलता होगा तो क्या हाल होते होंगे?" इन पंक्तियों को पढ़ कर लगा कि बेहाल मन को कुछ लिखने का काम देकर कुछ देर के लिए व्यस्त क्यो न कर दिया जाए।
अक्सर हम वक्त को खुली हथेली में लेकर ऐसे बैठे रहते हैं कि एक पल भी हाथ से जाने न पाए ... होता यह है कि हमारी आँखों के सामने ही वह भाप बन कर जाने कहाँ गायब हो जाता है।
ज़िन्दगी की आइस पाइस में एक एक दिन जब रेत की तरह हथेली से निकलता जाता है तो लगता है जैसे लाइफ की छुपम छुपाई में हमारा बहुत कुछ गुम हो गया है तब ज़िन्दगी की खूबसूरती का एहसास होता है और उसे पूरे मन से जीने की कोशिश में जुट जाते हैं.... शायद मौत भी उसी खूबसूरती को पाने के लिए ज़िन्दगी के पीछे पीछे साए की तरह लगी रहती है...
चिट्ठाचर्चा का शुक्रिया जिसके माध्यम से पहली बार गौतम जी का पढ़ने का अवसर मिला . ज़िन्दगी से प्यार करने वाले सिपाही मौत को भी अपना ही एक साथी मानते हैं जो बर्फीली सरहद पर नई नवेली दुल्हन के सपने में खोए पूरन को भी बड़ी चतुरता से वापिस ले आते हैं..गौतम जी की भाषा शैली सरल होते हुए भी अपना गहरा असर छोड़ जाती है।
कभी कभी भावों का ऐसा अन्धड़ चलने लगता है जिसमें शब्द सूखे पत्तों जैसे उड़ते उड़ते दूर जा गिरते हैं जहाँ से उन्हें चुनना आसान नहीं लगता है... फिर भी उन्हें चुनने की एक कोशिश ...... !
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ (Atom)