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शनिवार, 18 अप्रैल 2009

एक कोशिश



महीनो से ब्लॉग बैराग ले कर उचटते मन को सही राह दिखाने में ब्लॉग जगत के कई मित्रों ने कोई कसर नही छोड़ी... आज अनायास ही मन में लहर उठी, शायद संगीत सुरा का सुरूर ..... चिट्ठाचर्चा पढ़ने लगे और मन में आया कि टिप्पणी देने की बजाए एक पोस्ट ही लिख दी जाए....

"तात्कालिक अवसाद तो व्यस्त होकर दूर किया जा सकता है। लेकिन जब अवसाद का दौर लम्बा चलता होगा तो क्या हाल होते होंगे?" इन पंक्तियों को पढ़ कर लगा कि बेहाल मन को कुछ लिखने का काम देकर कुछ देर के लिए व्यस्त क्यो न कर दिया जाए।

अक्सर हम वक्त को खुली हथेली में लेकर ऐसे बैठे रहते हैं कि एक पल भी हाथ से जाने न पाए ... होता यह है कि हमारी आँखों के सामने ही वह भाप बन कर जाने कहाँ गायब हो जाता है।








ज़िन्दगी की आइस पाइस में एक एक दिन जब रेत की तरह हथेली से निकलता जाता है तो लगता है जैसे लाइफ की छुपम छुपाई में हमारा बहुत कुछ गुम हो गया है तब ज़िन्दगी की खूबसूरती का एहसास होता है और उसे पूरे मन से जीने की कोशिश में जुट जाते हैं.... शायद मौत भी उसी खूबसूरती को पाने के लिए ज़िन्दगी के पीछे पीछे साए की तरह लगी रहती है...

चिट्ठाचर्चा का शुक्रिया जिसके माध्यम से पहली बार गौतम जी का पढ़ने का अवसर मिला . ज़िन्दगी से प्यार करने वाले सिपाही मौत को भी अपना ही एक साथी मानते हैं जो बर्फीली सरहद पर नई नवेली दुल्हन के सपने में खोए पूरन को भी बड़ी चतुरता से वापिस ले आते हैं..गौतम जी की भाषा शैली सरल होते हुए भी अपना गहरा असर छोड़ जाती है।

कभी कभी भावों का ऐसा अन्धड़ चलने लगता है जिसमें शब्द सूखे पत्तों जैसे उड़ते उड़ते दूर जा गिरते हैं जहाँ से उन्हें चुनना आसान नहीं लगता है... फिर भी उन्हें चुनने की एक कोशिश ...... !

रविवार, 29 मार्च 2009

प्रहार को रोकें और प्रहरी बनें





प्रकृति पर होते प्रहार को
हर पल रोकें
प्रहरी बन बचाएं धरती को
हर पल सोचे !



कल शनिवार 28 मार्च 2009 पूरी दुनिया में ‘अर्थ ऑवर’ मनाकर धरती को ग्लोबल वॉर्मिंग से बचाने का स्कंल्प लिया गया था. कह सकते हैं कि साढ़े आठ से साढ़े नौ तक सिर्फ एक घंटे के लिए प्रकृति के साथ मिल कर बैठने का अनुरोध किया गया.

ब्लॉगजगत में सबसे पहले इस विषय पर रचनाजी की पोस्ट देखी जिसमें उन्होंने अपनी धरती माँ को वोट देने की अपील की.. उन्हीं की आवाज़ को बुलन्द करते हुए प्राची के उस पार खड़े नीशू जी ने और नुक्कड़ पर बैठे अविनाश वाचस्पति जी ने भी अपनी आवाज़ बुलन्द की.... मातृ ऋण को चुकाने का ज़िक्र करते हुए संगीता पुरी जी ने चिंता व्यक्त की तो अरविन्द मिश्रजी ने ‘धरती प्रहर’ में एक घंटे के लिए बिजली स्विच बन्द करके धरती माँ को पर्यावरण के आघातों और प्रदूषण से बचाने की बात की.
महेश मिश्र जी ने समय चक्र की चिट्ठाचर्चा में धरती प्रहर पर वोट देने और एक घंटे के लिए बिजली बन्द करने की अपील तो की लेकिन साथ ही साथ ऐसा करने वाले कई चिट्ठों का ज़िक्र भी कर दिया। उन्हीं के ब्लॉग पर अविनाश वाचस्पति जी की आई एक टिप्पणी ने प्रभावित किया. सोचने पर विवश कर दिया कि क्या सिर्फ एक दिन के लिए सिर्फ एक घंटे के लिए धरती माँ पर होते घातक प्रहार को रोकना सम्भव है..... !!


सिर्फ एक घंटे ही क्यों
यदि बचाएँ नियमित तौर पर
चाहे एक मिनट ही रोज़ाना
तो वर्ष मे बचा पाएँगे
365 मिनट बिना नागा
जो अवश्य ही एक घंटे से
ज़्यादा होंगे
क्यो नही बनाते हम अपनी
ऐसी आदतों को लत
मेरा तो यही है मत !

हमने सोचा क्यों न हम इस विषय पर अपने मित्रों से अपना अनुभव बाँटें....
सोच कर देखिए जब बिजली चली जाती है तो सबसे पहले कानों को सुकून
मिलता है. इस सुकून को पाने के लिए हम कभी भी अपने आप बिजली के
सभी स्विच बन्द कर सकते हैं. घने अन्धकार में मन्द मन्द खुशबू वाली
मद्धम रोशनी का आनन्द पा सकते हैं.
रंग-बिरंगी और खुशबूदार मोमबत्तियाँ , नए नए बर्नर जिसमें अलग अलग
खुशबूदार अरोमा ऑयल जलाकर घर के सभी सदस्यों के मन मुताबिक
वातावरण को बनाया जा सकता है. तनाव को दूर करने के लिए, अच्छी नींद
पाने के लिए और उर्जा पाने के लिए अलग अलग प्रकार के तेल और खुशबूदार
मोमबत्तियाँ मिलती हैं.
1980 के दशक में दिल्ली के ऑबरोय होटल के पास वाले अन्धविद्यालय जाया
करते थे. कनाट प्लेस के कुछ एम्पोरियम में भी जाते थे. अनाथाश्रम, वृद्धाश्रम
और अन्धविद्यालयों में अगर यह सब बनता है तो हम वहाँ से खरीद कर उनकी
सहायता भी कर सकते हैं. अब दिल्ली में यह सब कहाँ खोजा जा सकता है ,
पता चलने पर हमें भी बताया जाए. इस वक्त जो भी हमारे घर में है,
कुछ
के चित्र खींचकर यहाँ लगा रही हूँ.






(सितारों से सजी गुलाबी रंग की मोमबत्ती गुलाब की खुशबू से भरी है)
















(वनीला खुशबू वाली लाल रंग की मोमबत्ती)








(लाल रंग के बर्नर में हल्के गुलाब की सुगन्ध की छोटी मोमबत्ती है
और ऊपर ऊर्जा शक्ति देने वाला अरोमा ऑयल जल रहा है)




कब आप मद्धम रोशनी में खामो खुशबूदार वातावरण में प्रकृति के प्रहरी बनकर उसके मौन को समझते हुए उसे अपनेपन का एहसास कराएँगे.....ज़रूर बताइएगा... !

शनिवार, 28 मार्च 2009

कुछ मेरी कलम से भी ......
















उम्र....
कोरे काग़ज़ जैसी
कभी हरकत करती उंगलियों सी

कभी काँपती कलम सी ..!!

उम्र .....
खाली प्याले सी
कभी लबालब झलकती सी
कभी आखिरी बूँद को तरसती सी... !!



उम्र.....
सिगरेट के धुएँ सी
कभी लबों से कई रूप लेती सी
कभी सीने में सुलगती सी.. !

उम्र.....
पतझर का मौसम भी
वक्त के पैरों तले
चरमराते चीखते पत्तों सी ....!!

रंजना जी की लेखनी का शुक्रिया जिसके कारण मेरी कलम भी कुछ कह उठी ..!

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

लिंक्स टू दिस पोस्ट !

पिछली पोस्ट को ज़ारी रखते हुए कायदे से 'सफ़र का अगला सफ़ा' दर्ज करना था लेकिन उस पोस्ट की टिप्पणियाँ पढते पढ़ते नीचे नज़र गई तो 'लिंक्स टू दिस पोस्ट' में लगे तीन ब्लॉग खोल कर पढ़ने का लालच न रोक पाई.....
पारुल और कंचन दोनो ही प्यारी लगती हैं ....पारुल छोटी बहन जैसी और कंचन बिटिया जैसी.... कंचन जैसे दिल वाली कंचन की काँच सी खनकती चूड़ियों जैसी आवाज़ फोन के ज़रिए कानों में पड़ती है तो दिल चाहता है कि बस बात होती ही रहे... बेटे वरुण को कंचन दीदी से मिलाने का वादा तो किया है लेकिन कब.... नहीं पता...खैर कंचन का लिंक खोला जिसे पढ़कर आँखें नम हो गईं...नम आँखों में अटके आँसू गालों में ढुलकने लगे.
17 मार्च 2003 का दिन नहीं भूलता जब मैं अपने बीमार पिता का हाथ छुड़ाकर अपने बच्चों के पास लौट गई थी... 19 मार्च को वे हमें सदा के लिए छोड़ गए....'मैं कहना चाहता हूँ "पापा आई लव यू " पर कह नही पाता' अनुरागजी के इस भाव को पढ़ कर बार बार मन ही मन अपने पापा से माफी माँग रही हूँ और पुकार रही हूँ कि बस एक बार फिर से वापिस लौट आएँ तो हाथ छुड़ा कर कहीं न जाऊँगी...
लावण्यजी के ब्लॉग पर जाकर जहाँ पापा के साथ बिताए बचपन के दिन याद आ गए तो वहीं युनूस जी द्वारा पोस्ट किए गए गीत को बचपन में कई बार गा गाकर टूर पर गए पापा को याद किया जाता था.

दिल और दिमाग बेचैन हो उठे ...जैसे अन्दर ही अन्दर बेबसी का धुँआ भरने लगा हो... सामने दीवार पर टँगी तस्वीर में मुस्कुराते पापा को देखते ही चेतना लौटने लगी...

इन्हीं विचारों में डूबते उतरते पारुल के लिंक को क्लिक किया तो गज़ल के बोल बार बार पढ़ने लगे और सुनकर तो मन शांत स्थिर झील सा होने लगा... एड्रेस बार में नीरजजी का ब्लॉग अभी दिख रहा था जिसे पढ़ना बाकि था...जिसे खोलते ही जयपुर में किताबों की दुनिया की जानकारी मिली... किताबों की बात आते ही जयपुर में कुश से मुलाकात और उनसे भेंट में मिली दो किताबों की याद आ गई जिन्हें पढ़ना अभी बाकि है.... वैसे कल ही उनके ब्लॉग़ की नई पोस्ट पढ़ी, अमीना आलम ने तो सच में नींद उड़ा दी...
तीसरे लिंक को खोला तो शब्दों के सफ़र में खानाबदोश और मस्त कलन्दरों के बारे में पढ़ने को मिला... खानाबदोश तो आजकल हम भी बने हुए हैं... फिलहाल 22-23 साल से इस जीवन शैली में मस्त कलन्दर बनने की कोशिश में लगे है.... !

सोचा नहीं था कि पोस्ट और टिप्पणियों के नीचे दिए गए लिंक्स से एक पोस्ट तैयार हो जाएगी... लेकिन पढ़ने और फिर लिखने के बाद अच्छा लग रहा है....... शुभ रविवार :)

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

सफ़र के कुछ सफ़े - 1



ब्लॉग जगत के सभी मित्रों को नमस्कार.... !

6 अक्टूबर 2008 को अपने देश की ज़मीन पर पैर रखते ही सोचा था कि हर दिन का अनुभव आभासी डायरी में उतारती जाऊँगी लेकिन वक्त हथेली से रेत की तरह फिसलता रहा....आज पूरे चार महीने हो गए घर छोड़े हुए...

घर कहते ही मन सोच में पड़ जाता है कि कौन से घर की बात की जाए... पति और बच्चों के साथ बीस साल जहाँ बिताए वह घर या फिर बच्चों की खातिर दूसरी जगह आकर रहना पड़ा , उस घर की बात की जाए.....या अपने देश के घर की जहाँ रोज़ नित नए अनुभव बहुत कुछ सिखा रहे हैं....

अरब खाड़ी में रहने वाले लगभग सभी परिवारों के साथ एक बात कॉमन है.....बच्चों की स्कूल की पढ़ाई खत्म होते ही एक अभिवावक खासकर माँ को अपने देश आना पड़ता है .... कुछ बच्चे विदेश चले जाते हैं...कुछ बच्चे अपने देश के अलग अलग प्रदेशों में कॉलेज में दाखिला पा लेते हैं... जन्म से लेकर बाहरवीं तक की पढ़ाई के बाद कुछ बच्चे तो अपने देश में फौरन ही रच बस जाते हैं और कुछ बच्चों को वक्त लगता है...उन्हें परिस्थितियों से मुकाबला करने की कला सिखाने के लिए माँ को ही आगे आना पड़ता है। कुछ सालों की मेहनत के बाद बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं और बस निकल जाते हैं अपनी मंज़िल की ओर....

वरुण की पढाई खत्म होते ही वीज़ा भी खत्म..... स्टडी वीज़ा खत्म होने के कारण वरुण को दुबई छोड़ना पड़ा... वैसे भी इलाज के लिए अपने देश से बढ़िया का कोई जगह नहीं है... देश विदेश से लोग इलाज के लिए भारत आते हैं सो हमने भी दिल्ली का रुख किया..... छोटे बेटे ने कॉलेज में दाखिला अभी लिया ही था , न चाहते हुए भी उसे अकेले ही दुबई छोड़ना पड़ा .... खैर अब हम दिल्ली में है .... श्री तजेन्द्र शर्मा जी की कहानी 'पासपोर्ट के रंग' उनकी ज़ुबानी सुनते सुनते अपने बारे में सोच रहे थे कि 'शेर वाला नीला पासपोर्ट' होते हुए भी हम अरब देश से बाहर 6 महीने से अधिक नहीं रह सकते... छह महीने के अंतराल में एक बार खाड़ी देश में जाना लाज़िमी है... सफ़र ज़ारी है कभी यहाँ , कभी वहाँ ... लेकिन सर्दी का मौसम सफ़र में थकान होने ही नहीं देता...

पहली बार अक्टूबर में भारत का आनन्द ही अलग लगा... मीठी मीठी धूप में तीखी तीखी मूली खाने का खूब मज़ा ले रहे हैं..इसके अलावा क्या क्या गिनाए.... राजधानी दिल्ली में अलग अलग राज्यों के अलग अलग स्वादिष्ट पकवान सोचते ही बस आपके सामने..... ठंड के मौसम में खाने पीने का अलौकिक आनन्द अभी ले ही रहे थे कि अचानक आईने पर नज़र गई तो चौंक गए...पहले से ही अरब देश का खाना पीना ही नहीं हवा भी खूब लग रही थी .... इधर अपने देश के छ्प्पन भोग से जी था कि भरने का नाम ही नही ले रहा था लेकिन अभी और जीना है यह सोचकर अपने ऊपर पाबन्दी लगाने की बात कुछ इस तरह सोची.........


रे मन अब तू धीरज धर ले !


चिकन मटन को छोड़ के अब तो

घास फूस पर जी ले अब तू ...... रे मन .... !


चिकनी चुपड़ी भूल जा अब तो

रूखी सूखी ही खा ले अब तू .... रे मन .... !


चना-भटूरा, आलू-छोले से कर तौबा अब तो

धुली मूँग पर सबर बस करले अब तू .... रे मन .... !


भरवाँ-पराठाँ, आलू-गोभी मिले न अब तो

फुलका फुलकी में ही मन को लगाले अब तू ... रे मन .... !


मखनी-दाल, नवरतन कोरमा को विदा कर अब तो

अंकुरित दाल, सलाद को अपना ले अब तू ... रे मन ... !


स्थूल काया कम होगी कैसे यही फिकर है अब तो

कृशकाया कैसे फिर आए, यही सोच बस अब तू... रे मन ...!


फिकर फिगर का धीरे धीरे बढ़ता जाता अब तो

खोई हुई फिगर का सपना फिर से देखले अब तू... रे मन ... !


(पतंजलि योगपीठ का सफ़र अगले सफ़े में .........)


गुरुवार, 29 जनवरी 2009

आपकी अभिव्यक्ति पर मेरे भाव

दूर दूर तक गहराते कोहरे में अपने वजूद को गुम होते देख कर स्तब्ध रह जाना और फिर उसी वजूद की तलाश में निकल जाना .... बस ऐसे ही दिन पर दिन , हफ्ते दर हफ्ते और महीनों निकल गए....

कोहरा, कलम और मैं जब एक जुट हुए तो शब्दों को एक नया आकार मिलने लगा जिसे आप सब ने निहारा और तारीफ में कुछ और शब्द जोड़ दिए...

जिन्दगी की उहा पोह, उलझनें और जिम्मेदारियाँ अक्सर ऐसी ही मानसिक स्थितियाँ निर्मित कर देती हैं, जिन्हें आपने इतनी सुन्दरता से शब्द दिये हैं. मनोभावों की सशक्त एवं सहज अभिव्यक्ति. – उड़न तश्तरी
समीरजी, आपने सही पहचाना... खानाबदोश सी ज़िन्दगी कब थोड़ा ठहरेगी.बस इसी इंतज़ार में लिखना पढ़ना छोड़ बैठे.....जल्दी ही अपनी खानाबदोश ज़िन्दगी के कुछ अनुभव लिखूँगी.

कलम की जय हो! - अनूप शुक्ल
अनूप जी , कलम में सर कलम करने की ताकत भी है और समाज को बदलने का कमाल भी कलम ही कर सकती है. तभी तो उसकी जय जयकार होती है.

कीबोर्ड पर ऊंगलियों के
थिरकने से निकलते
नये तराने हैं – अविनाश वाचस्पति


सोलह आने सच है आपकी बात... कीबोर्ड पर उंगलियों के थिरकने से
तराने नए निकलते हैं जो दिल और दिमाग को तरोताज़ा कर देते हैं.

Fog Is A Tunnel
Life Is A Train
At The End Of The Tunnel
There Is Light Always
Keep The Train Of Life
Chugging On - रचनाजी


रचना जी, सच कहूँ तो इस घने कुहासे में सिर्फ और सिर्फ अपने होने का एहसास होता है.... दूर दूर तक बस मैं और गहरा कोहरा... कभी कभी उससे बाहर निकलने का मन ही नहीं करता...

आपकी आमद हमेशा सुखद रहती है....इस कलम को छोडियेगा नही....ये कई दर्द से मुक्ति दिलाती है - डा. अनुराग

डा. अनुराग , कलम को छोड़ने का सोच भी नहीं सकते , हाँ कभी दर्द हद से ज़्यादा बढ़ जाता है तो उंगलियाँ सुन्न सी हो जाती हैं.... और कलम हाथ से छूट जाती है....

हमारी भी दशा कोहरामय है। बस आप कलम की बात कर रही हैं - मैं रेलगाडी की! – ज्ञानदत्त जी

ज्ञानजी, इसमें कोई शक नहीं कि हम सब के जीवन में कोहरामय कोहराम मचा है...

बहुत दिनों बाद आज आप दिखी है ।
मीनाक्षी परेशान न हो ये दौर गुजर जायेगा ।
ऐसा हम इसलिए कह रहे है क्यों की हम इस दौर से गुजर चुके है (sep -jan )जब कुछ भी लिखने का मन नही करता था । -- ममता जी


ममताजी, कभी कभी इस दौर से गुज़रने का अपना एक अलग ही अनुभव होता है। मौका पाते ही आपसे ज़रूर बाँटूगी।

हिन्दी ब्लोग जगत मेँ तशरीफ रखिये स्वागतम ~~~ Where have you been ? :)- लावण्या


लावण्यादी, घने कोहरे के घेरे से घिरी मैं... नहीं जानती कैसे मुक्त हो पाऊँ मैं... कोशिश एक आशा जान बस उस किरण का इंतज़ार करूँ मैं....

जिस ब्लॉग जगत में कलम और उससे जन्मे शब्दों की परवरिश होती है , चाह कर भी उस दिशा में बढ़ते कदम अनायास रुक जाते हैं और मन बेचैन हो उठता है. शब्दों के भाव विपरीत दिशा में चलने की चाहत पैदा कर देते हैं...तो कभी जीवन धारा सब बाँध तोड़ कर बह जाने को मचल उठती है ...


आप सबकी कलम से जन्मे शब्दों और उनके भावों ने मेरी कलम को एक नई उर्जा दी है, आप सबका आभार... यही उर्जा अजन्मे शब्दों को एक नया और सुन्दर रूप देगी जिसे आप जल्द ही देख पाएँगे.

बुधवार, 28 जनवरी 2009

कोहरा, कलम और मैं



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कोहरा सर्द आहें भरता हुआ अपने होने का एहसास कराता है... दूर दूर तक फैले नीले आसमान के नीचे मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लेता है , उसके आगोश में कसमसाती मैं और मेरे हाथों में कराहती कलम जिसके गर्भ में शब्द आकार लेने से पहले ही दम तोड़ते जा रहे हैं....
नहीं जानती कि ऐसा क्यों और कैसे हो रहा है लेकिन हो रहा है....

कलम का दर्द मुझे अन्दर तक हिला देता है...उसे हाथों में लेने को आगे बढ़ती हूँ..... मेरा स्पर्श पाते ही पल भर में उसका दर्द गायब हो जाता है....उसके मन में एक उम्मीद सी जागी है..शब्दों को सुन्दर रूप और आकार मिलेगा, इस कल्पना मात्र से ही वह खिल उठी है.....