साउदी अरब में अब तक के गुज़रे सालों का हिसाब किताब करने लगूँ तो लगेगा कि खोया कम ही है...पाया ज्यादा है... बहुत कुछ सीखा है... जो शायद किसी और जगह सीखना मुमकिन न होता क्योंकि प्रजातन्त्र से राजतन्त्र में आकर रहने का अलग ही अनुभव हुआ... २१वी सदी में भी साउदी अरब की संस्कृति, वहाँ का रहन सहन बदला नही है शायद बदलने में अभी और वक्त लगेगा ... . ..हाँ सुरसा की तरह मुंह खोले महंगाई बढ़ती जा रही है... फ़िर भी कुछ ज़रूरी चीजों की कीमत नही बदली जैसे कि एक रियाल की पेप्सी और एक ही रियाल का खुबुज़(रोटी) ..
१९८६ में जब साउदी अरब की राजधानी रियाद पहुँची थी तो मन में कई शंकायें थी..अनकही कहानियाँ थी जिन्हें याद करते तो सिरहन से होती लेकिन फ़िर याद आती अपने देश की... वहाँ भी हर अखबार में हर दिन चोरी, लूटमार और खून खराबे की खबरें होती.... सावधानी से चलने की बात की जाती... किसी भी लावारिस पड़ी वस्तु को हाथ लगाने से मनाही.... गहने कम से कम पहनने की ताकीद ... अजनबी आदमी से बातचीत करने की मनाही... घर के नौकरों की पुलिस में पूरी जानकारी देना आदि आदि ... इस तरह की और भी कई सावधानियाँ बरतने की बात की जाती....
बस तो यही सोच कर हमने नयी जिन्दगी शुरू कर दी... धीरे धीरे वहाँ के तौर तरीके समझने लगे... बाज़ार जाने के लिए कब निकलना है.... कब फैमिली डे है...कब सिर्फ़ औरतें जा सकती हैं..सुबह का वक़्त शोपिंग का सबसे अच्छा वक्त मन जाता... . शुक्रवार के दिन तो कोशिश करते न ही निकलें.... लेबर, वर्करज से बाज़ार भरे रहते .... बुरका पहन कर ही बाहर निकलना है तो नए नए बुर्के खरीद कर अलमारी में टांग लिए गए... बस इत्मीनान.... जैसा देश वैसा भेष.... मान कर चलने में भलाई समझी...
साउदी में अधिकतर औरतें डाक्टर, टीचर, नर्स और नौकरानी का ही काम कर सकती हैं. साउदी औरत सरकारी महकमों में और बैंकों में देखी जाती हैं...अब तो अस्पताल , होटल और बैंक के काउन्टर पर भी साउदी लड़कियां देखी जाती हैं लेकिन पूरे हिजाब में...
हमने भी घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का सबब ढूँढ ही लिया और इंडियन एम्बसी के स्कूल में हिन्दी टीचर लग गये... फ़िर बदमज़ा जिन्दगी का कुछ-कुछ मज़ा आने लगा... फ़िर भी ख्याल रखते कि कब और कहाँ कैसे जाना है... स्कूल जाने से अकेले बाहर निकलने का डर थोड़ा कम हुआ... बुरका पहन कर दोनों बच्चों को साथ लेकर एक दो दोस्तों के घर पैदल ही निकल जाते लेकिन घर में काम करने वाले एक बंगला देशी बुजुर्ग ने अकेले जाने से मना कर दिया....... घर का काम ख़त्म होने पर साथ चल कर छोड़ कर आते... अपने देश से दूर रहने पर रिश्तो की कीमत पता चलती है... अपनी जुबान बोलने वाले अपने से ही लगते हैं...चाहे पाकिस्तान के हों या बंगलादेश और श्रीलंका के हों... हिंदू मुस्लमान और ईसाई एक ही फ्लैट में , एक ही रसोई में मिलजुल कर खाते पीते अपनों से दूर रह पाते हैं...अकेली काम करने वाली डाक्टर और नर्स अस्पताल से मिले घरों में रहती हैं और वहीं की वेंन और बसों में सफर करती हैं.... टैक्सी में भी कभी कभी आना जाना होता है .. सभी स्कूलों की बसें हैं जिसमे पर्दे लगे रहते हैं... कुछ लोग अपनी कार से छोड़ना लाना करते हैं... कभी कभी टैक्सी से भी जाना पड़े तो कोई डर नही है, हाँ अकेले होने पर हिन्दी-उर्दू बोलने वाले की ही टैक्सी रोकी जाती है.... सभी लोग अपनी जुबान जानने वाले की टैक्सी में सफर करने में आसानी महसूस करते हैं... एक बात जो सबसे महत्वपूर्ण है बाहर निकलते वक्त अपना परिचय पत्र साथ लेना...परिचय पत्र मतलब इकामा . हम विजय के इकामा की फोटोकापी रखते थे.... जब बच्चे बड़े हुए..उनकी जेब में भी एक एक फोटोकापी रखनी शुरू कर दी... . कभी अकेले किसी दोस्त या टीचर के घर गए तो ज़रूरी होता.... .इसके साथ जुड़ी एक रोचक घटना का ज़िक्र करना चाहूँगी.. मेरे एक टीचर सहेली जिसके पास अपना इकामा था , शादी के बाद भी उसी इकामे पर काम करती रही. पति के इकामे में नाम डालने की ज़रूरत नही समझी. मतलब यह कि पति और पत्नी दोनों के अलग अलग इकामे. दोनों ने सपने में भी नही सोचा था कि कभी उन्हें पकड़ लिया जाएगा... बस एक दिन दोनों कि शामत आ ही गयी... दोनों पुलिस द्वारा पकड़ लिए गये... शुक्र खुदा का कि दोनों को अच्छी अरबी आती थी जो एक लम्बी बातचीत और बहस करके उन्हें समझा पाए कि दोनों पति पत्नी है और जल्दी ही पति के इकामे में पत्नी का नाम दर्ज हो जाएगा.
इसी तरह से एक बार पतिदेव विजय को मना लिया गया कि मेरी सहेली को उसके घर से लेकर आना है... पहले तो ना नुकर की फ़िर मान गये.. जो डरते हैं शायद वही मुसीबत में जल्दी फंसते हैं, हुआ भी वही.... रास्ते में चैकिंग हुई... महाशय रोक लिए गये... अच्छा था कि मेरी सहेली पीछे बैठी थी.... आगे बैठी होती तो और मुसीबत खड़ी हो जाती.... दोनों की हालत ख़राब....लेकिन खुदा मेहरबान तो बाल भी बांका नही हो सकता..पूछताछ करने पर अपने को कंपनी ड्राईवर कह कर जान बचा कर भागे तो कसम खा ली कि अकेले न किसी महिला को लाना है न छोड़ना है....
समय बदल रहा है चाहे धीमे रफ़्तार में...लेकिन फ़िर भी बदल रहा है... साउदी औरत हो या किसी और देश की औरत हो .... कहीं सब करने की आजादी और हर काम में सहयोग देने का भाव..और कहीं... औरत को कुछ न समझने का भाव भी पाया जाता है...
बीबीसी ने आठ साउदी लड़कियों का इंटरव्यू लिया जिसमे उन्होंने अपने बारे में बताया... इसके अलावा आम औरत का जीवन, जिसमे गहने कपड़े कार और बड़े विला में हर सुख सुविधा का सामान होता है.... पाकर भी शायद खुश है या नही ...कोई नही जान सकता .... कभी कभी हलकी घुटी सी अन्दर की आवाज़ सुनाई दे जाती है...पर उसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है बस.... कुछ करने के लिए तो उन्हें ही आगे बढ़ना है...हालांकि कुछ घटनायें ऐसी हो जाती हैं जिन्हें बाहर की दुनिया में सुना जाता है... अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसके ख़िलाफ़ आवाज़ भी उठाई जाती है...
जिन्दगी में अच्छे अनुभव भी होते हैं... जिनकी कीमत बुरे अनुभवों के बाद और बढ जाती है.... घर परिवार , काम और दोस्त ... बस यही दुनिया ...हर वीकएंड पर मिलना ... हर महीने दूर रेगिस्तान में पिकनिक पर जाना.... वीरवार की सुबह सहेलियों के साथ मार्केट जाना... पति बेबी सिटींग करके खुश.... एक बार बस कहने की देर है की जहाँ हम जाना चाहें फौरन ख़ुद आकर या ड्राईवर भेज कर पहुँचा दिया जाता... पैदल चलने का कोई रिवाज़ ही नही वहाँ पर.... ख़ास कर औरतों के लिए... लेकिन कुछ अस्पतालों के बाहर चारों ओर सैर का सुंदर फुटपाथ बना है... जिस पर कभी हम भी सैर करते थे..
अब तो बस सपनों में ही रियाद जाते हैं... दम्माम के घर की चारदीवारी में कैसे गुज़रती है अगली पोस्ट में....






