
26 अक्टूबर 1986 की सुबह सबकी आँखें नम थीं. मम्मी, डैडी, छोटी बहन बेला और भाई चाँद से अलग होने का दुख पति मिलन की खुशी से कहीँ ज़्यादा था. उधर पाँच महीने का नन्हा सा वरुण समझ नहीं पा रहा था कि वह कहाँ जा रहा है. उड़ान का समय हो रहा था. भीगी आँखों से सबको विदा करके बेटे को गोद में लिए भारी कदमों से प्लेन में आ बैठी. एयर होस्टेस की प्यारी मुस्कान ने मेरे मन को थोड़ा शांत किया. सच है कि मुस्कान तपती धूप में शीतल छाया सी ठंडक देती है. प्लेन के टेक ऑफ करते समय बेटे के मुँह में दूध की बोतल लगाई और मुँह में पड़ी चिंयुगम को चबाने लगी. कुछ ही देर में बेटा सो गया और मैं अतीत की खट्टी मीठी यादों में खो गई.
मम्मी डैडी और छोटे दो भाई बहन अपने आप में मगन ज़िन्दगी जी रहे थे कि मेरी शादी ने वह एक साथ रहने का भ्रम तोड़ दिया. संयोग यह बना कि सात दिन में ही अजनबी पति ने अपना अंश मेरे साथ जोड़ दिया और साउदी अरब वापिस लौट गए. ससुराल अम्बाला में और सास-ससुर बुज़ुर्ग सो मुझे दिल्ली मम्मी के घर ही रहने की सलाह दी गई. खैर तेरह महीने और अठारह दिन के बाद पहली बार माँ का घर छोड़ने पर रुलाई फूट रही थी.
बेटे वरुण के रोने से यादों का ताना-बाना टूट गया. घड़ी देखी तो ढाई घंटे बीत चुके थे. शायद वरुण के दूध का समय हो गया था. एयर होस्टेस से दूध की बोतल गर्म करने को कहा और बेटे को बहलाने लगी. भूख के कारण उसका रोना तेज़ होता जा रहा था और मेरे हाथ-पैर फूल रहे थे. मम्मी के घर तो चार-चार लोग वरुण को सँभालते थे लेकिन अब पता नहीं अकेले कैसे सँभाल पाऊँगी. तरह तरह के सवाल मन में पैदा हो रहे थे. पतिदेव की घर-गृहस्थी में रुचि है कि नहीं, मेरे साथ कैसा व्यवहार होगा...यही सोच रही थी कि एयर होस्टेस ने दूध की बोतल लाकर दी. बोतल मुहँ से लगते ही बेटा खरगोश की तरह गोद में दुबक कर दूध पीने लगा.
अपने नन्हे-मुन्ने को निहारती जा रही थी और सोच रही थी कि माँ बनते ही औरत में कितना बदलाव आ जाता है. ममता अपने सारे बाँध तोड़ कर बहना चाहती है. अपना सब कुछ न्यौछावर कर देना चाहती है लेकिन प्रभु की लीला ऐसी कि नौ महीने जो अंश मेरे खून और माँस-मज्जा से बना उसका एक एक अंग अपने पिता की समानता लिए हुए था. सिर से पैर तक सब कुछ एक सा. अब देखना है कि पिता अपने नन्हे स्वरूप को देखकर क्या अनुभव करते हैं. पहली बार बेटे को गोद में लेकर कैसे अपनी ममता दिखाएँगे. सोच कर मुस्कुरा उठी.
कुछ ही देर में बैल्ट बाँधने की बत्ती जल गई. लैंड करने का समय आ गया था. मैंने सोते वरुण को थोड़ा हिला डुला कर फिर से दूध की बोतल उसके मुहँ से लगाई और खुद चियुंगम चबाने लगी. हवाई जहाज के उतरने और चढ़ते समय मुँह चलाते रहने से कानों में हवा का दबाव कम महसूस होता है और दर्द भी नहीं होता. लैंडिंग बहुत आराम से हुई.

धड़कते दिल से एयरपोर्ट की ओर कदम बढ़ाने लगी. एयरपोर्ट की सुन्दरता देखकर मेरी आँखें फैली जा रही थी. चमकते फर्श पर फिसलने के डर से पैर सँभल कर रख रही थी. शीशे जैसी चमक ...चारों ओर जगमग वातावरण. सुन्दर एयरपोर्ट रेगिस्तान में रंगमहल सा लग रहा था. नए देश की अजनबी संस्कृति से एक अंजाना सा भय. भाषा की समस्या सबसे विकट. सभी सरकारी काम अरबी भाषा में होने के कारण टूटी फूटी अंग्रेज़ी भाषा में ही काम चलाने की कोशिश की.
इमीग्रेशन काउण्टर पर बैठे साउदी ने पासपोर्ट रखकर इक़ामा इक़ामा कह कर इशारे से बाहर जाकर लाने को कहा. पहली बार आने पर पति का इक़ामा(परिचय-पत्र) दिखाकर ही बाहर जाने की इजाज़त मिलती है. पति विजय को ढूँढने में ज़्यादा देर नहीं लगी. बेटे को गोद में लेने को बेताब विजय ने फौरन अपना इक़ामा दिया और बेटे को लपक कर गोद में ले लिया. दुबारा अन्दर जाकर इक़ामा दिखाकर अपना पासपोर्ट लिया और सामान ट्रॉली में लेकर बाहर आई तो देखा कि पतिदेव बेटे को देख देख कर उसे बार बार गले से लगाकर चूम रहे हैं. बेटा भी टुकु
र टुकुर पापा को देख रहा है. मैं नई नवेली दुल्हन माँ के रूप में खड़ी पिता-पुत्र के मिलन को देख कर मुस्कुरा रही थी.
कुछ ही देर में हम बाहर थे. दूर दूर तक फैले रेगिस्तान के बीच काली सी रेखा जैसी सड़क पर कार 120 की गति से दौड़ने लगी. विजय बीच बीच में मुझे और बेटे वरुण को देख कर मुस्कुरा रहे थे. मैं रेगिस्तान में हरयाली देखकर हैरान हो रही थी. रेगिस्तान पीछे छूटा तो ऊँची ऊँची अट्टालिकाएँ सी दिखने लगी.
एक शॉपिंग मॉल के सामने कार खड़ी करके एक बुरका खरीदा गया जिसे पहनना ज़रूरी था. वहाँ का कानून है कि घर से बाहर बुरका पहन कर ही निकला जा सकता है. बाज़ार से

खाने पीने का सामान खरीदना था सो हमने फौरन बुरका ओढ़ लिया. पहनते ही सासू माँ की याद आ गई जो काला कपड़ा पहनने के सख्त खिलाफ थी. खानदान में कोई काला कपड़ा नहीं पहन सकता था लेकिन यहाँ के कानून के मुताबिक देशी- विदेशी, काले- गोरे सभी को बुरका पहनने का आदेश था.
नाश्ते का सामान खरीद कर हम जल्दी ही घर की ओर रवाना हुए. कार एक बड़ी सी इमारत के आगे रुकी. लगभग 10 फ्लैट वाली इमारत में ग्राउण्ड फ्लोर पर हमारा घर था. दरवाज़ा खोल कर विजय रुके और मुझे पहले अन्दर जाने को कहा. उनका ऐसा करना मन को भा गया. लाल रंग के मोटे कालीन पर कदम रखते अन्दर दाखिल हुई तो पीछे पीछे विजय भी अन्दर आ गए. छोटी सी गैलरी से दाखिल होते हुए देखा एक तरफ रसोईघर , दूसरी तरफ बाथरूम और तीसरे कोने में एक दरवाज़ा बेडरूम में खुलता था. अन्दर पहुँचे तो देखा एक बड़ी सी खिड़की पर मोटे मोटे पर्दे थे, जिन्हे हटाने की सख्त मनाही थी क्यों कि घर ग्राउण्ड फ्लोर पर था.
छोटे से घर में भी हम खुश थे क्योंकि लम्बे इंतज़ार के बाद यह दिन देखने को मिला था. उधर विजय अपने सोए प्रतिरूप को देखकर अलौकिक आनन्द पा रहे थे. बस इसी तरह हमारा गृहस्थ जीवन शुरु हुआ.