घुघुती जी की कविता तिनकानामा पढ़ने के बाद उनसे बातचीत के दौरान मैने निश्चय किया कि उनकी इस कविता पर अपने कुछ भाव प्रकट करूँगीं. समय को पकड़ने की कोशिश में समय के पीछे भागती रही लेकिन उसके पीछे वाले सिर पर तो बाल ही नहीं थे फिर वह हाथ में कैसे आता सो आज समय को आगे के बालों से पकड़ कर बैठ गई लिखने.
तिनकानामा में जीवन दर्शन दिखाई देता है. कविता के हर अंश में गहरा अर्थ छिपा है. तिनकानामा को ही क्यों चुना इसके पीछे भी एक कारण है. कई साल पहले रियाद में हुए मुशायरे में अपनी दो कविताएँ 'मैं' और 'अहम' पढ़ने का अवसर मिला था जिन्हें कविता तिनकानामा से जुड़ा हुआ सा पाती हूँ. शायद पूरी कविता पर बात न हो पाए लेकिन कुछ अंश जो मुझे बहुत भाए उन पर तो अवश्य चर्चा करूँगी.
संयोग से रेडियो पर एक गीत बज रहा है, 'तिनका तिनका ज़रा ज़रा, है रोशनी से जैसे भरा --- रोशनी शब्द सुनकर छोटे छोटे ज्योति कीट जुगनु याद आने लगे.
तिनकों की भी क्या इच्छाएँ होती हैं
उन्हें तो बस बह जाना होता है
नदी के बहाव के साथ
जिस दिशा में ले चले वह
तिनकानामा के इस पहले अंश को पढकर याद आने लगी हरे भरे और फिर सूखते तिनकों की जिनकी जननी वसुधा सोचती होगी कि नदी के रुख मोड़ने वाली वह स्वयं है, जिधर चाहे चट्टानें खड़ी करके नदी का रास्ता बदल देती है, जब चाहे, जहाँ से चाहे नदी की धारा उस ओर मोड़ देती है, सागर तक जाने का रास्ता भी वह स्वयं निश्चित करती है. फिर नदी कैसे सोच सकती है कि तिनको को वह अपने बहाव में कहीं भी ले जा सकती है.
कुछ तिनके यूँ सोचते हैं
उन्होंने स्वयं चुना है
नदिया संग बहना
तिनको ने अगर सोचा है कि उन्होंने नदी के संग बहना है तो यह उनका स्वयं का निर्णय है , उसे उन्होंने स्वयं चुना है तो सही सोचा है. समय के साथ चलना ही तो बुद्धिमानी है. समय के साथ चल कर ही लक्ष्य रूपी सागर तक पहुँचा जा सकता है.
कुछ इठलाते कुछ इतराते
देख गति अपनी प्रगति की
मन ही मन मुस्काते
बढ़ आगे जाने को
पूरा अपना जोर लगाते ।
इन पंक्तियों को पढकर तो मुझे मेहनतकश लोगों की याद आ जाती है जो अपने बल से रेगिस्तान में भी हरियाली ले आते हैं. जंगल मे भी मंगल कर देते हैं. समय को मुट्ठी में बन्द कर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते जाते हैं, उन्हें कोई रोक नही सकता. कविता 'कर्मवीर' की एक पंक्ति याद आ गई, 'कोस कितने ही चलें पर वे कभी थकते नहीं.'
यूँ इतराते वे जाते हैं
जल पर सवार
मानो उनका ही हो
सारा यह संसार ।
इन पंक्तियों में जहाँ आगे बढ़ने का भाव है, वहाँ इठलाते और इतराते तिनको का अहम भाव भी दिखाई देता है. यहाँ तिनकों का अहम देखकर अपनी कविता की कुछ लाइने याद आ गईं-
मैं ही मैं हूँ इस सृष्टि में,
और न कोई इस दृष्टि में,
ऐसा भाव किसी का पाकर,
मन सोचे यह रह रहकर,
मानव क्यों यह समझ न पाए,
क्षण भंगुर यह तन हम लाए।।
यूँ अन्त हो जाता है
सफर इक तिनके का
काल की गर्त्त में
यूँ ही हैं सब तिनके समाए ।
इस संसार में सब नश्वर है. एक न एक दिन सबको काल का निवाला बनना ही है लेकिन फिर भी कुछ तिनके इतिहास के पन्नों में अपने आप को अमर कर जाते हैं, कुछ समाज के महल को मज़बूत बनाने के लिए नींव की ईंट का काम कर जाते हैं.
या फिर कर आती उसे
किसी चलबच्चा हवाले
कभी छोड़ आती वह उसे
किसी भंवर में
खाने को अनन्त तक चक्कर
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ और उससे भी सुन्दर उसमे छिपा भाव. जीवन में दुखों के भँवर न हों तो सुख का आनन्द कैसा..! हर पल एक नई चुनौती को पाकर उससे जूझना और निकल पाना , यही तो जीने का आनन्द है.
कुछ भूले, कुछ बिसराए
यही नियति है हर तिनके की
चाहे कितने ही तिनकेनामे
हम लिखते जाएँ ।
तिनकानामा लिखना व्यर्थ नहीं जाता. मेरा अपना अनुभव है कि मैं जो भी पढ़ती हूँ उसका प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अपने अन्दर अनुभव करती हूँ. मन ही मन सोच रही हूँ कि चाहे अनगिनत तिनकों की तरह मेरा भी अंत हो जाएगा लेकिन किसी एक डूबते को मुझ तिनके का कभी एक बार भी सहारा मिला तो जीवन धन्य हो जाएगा. डूबते को तिनके का सहारा उक्ति शायद यहाँ सार्थक कही जा सकती है.
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शुक्रवार, 11 जनवरी 2008
बुधवार, 9 जनवरी 2008
मैं भी उन संग बहक सी रही थी !
चंदा का सितारों से जड़ा प्रकाशित आँचल जब छाया धरती पर
सुषमानुभूति से मदमस्त हुआ फिर नशा सा छाया सागर पर !
लहरें बाँहें फैलाए उचक उचक कर चढ़ गईं चट्टानों के कंधों पर
नज़र थी उनकी शोभामय आकाश के जगमग करते तारों पर !
जलधि के उर पर देखके तारों का प्रतिबिम्ब लहरें चहक रहीं थीं
चंदा की चंचल किरणें लहरों के संग खेल-खेल में बहक रहीं थीं !
छू लेने की, आँखों में सुषमा भरने की चाहत सी उनमें जाग गई थी
छवि सुन्दर विस्तृत नभ की, मनमोहती मानस-पट पर छा सी गई थी !
गर्वित गगन से आती-जाती शीत-पवन सी साँसें मुझको छू सी रही थीं
महकी-महकी साँसों से दिशाएँ बहकीं, मैं भी उन संग बहक सी रही थी !
सुषमानुभूति से मदमस्त हुआ फिर नशा सा छाया सागर पर !
लहरें बाँहें फैलाए उचक उचक कर चढ़ गईं चट्टानों के कंधों पर
नज़र थी उनकी शोभामय आकाश के जगमग करते तारों पर !
जलधि के उर पर देखके तारों का प्रतिबिम्ब लहरें चहक रहीं थीं
चंदा की चंचल किरणें लहरों के संग खेल-खेल में बहक रहीं थीं !
छू लेने की, आँखों में सुषमा भरने की चाहत सी उनमें जाग गई थी
छवि सुन्दर विस्तृत नभ की, मनमोहती मानस-पट पर छा सी गई थी !
गर्वित गगन से आती-जाती शीत-पवन सी साँसें मुझको छू सी रही थीं
महकी-महकी साँसों से दिशाएँ बहकीं, मैं भी उन संग बहक सी रही थी !
शनिवार, 5 जनवरी 2008
मेरे त्रिपदम (हाइकु)
हे मेरे मन, आशा का दीप जला !
आज सोचा कि मन में आते भावों को बाँधने की बजाए उसे बहने देना ही सही होगा.
बहता पानी साफ रहता है, रुके हुए पानी से अपने लिए ही नहीं आसपास के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है. कई दिनों से ब्लॉग जगत में बहुत कुछ पढ़ते रहने के बाद लगने लगा कि बस बहुत हो चुका. ज़्यादा पढ़ना भी मुसीबत बन सकता है. अलग अलग ब्लॉगज़ द्वारा बहुत से विचार एक साथ दिल और दिमाग में उतर रहे थे. चाह कर भी प्रतिक्रिया स्वरूप लिखने का समय निकालना सम्भव नहीं लग रहा था. इस समय को भी दूसरे कामों से आँख चुराकर ही निकाल पाएँ हैं.
मानव समाज में अलग अलग रूप से क्लेश, अशांति, वहशीपन, आक्रोश की बहती हवा का प्रभाव ब्लॉग जगत पर भी दिखाई देता है कुछ चिट्ठाकार इन मुद्दों पर लिखकर चिंतन करने को बाध्य करते हैं. कुछ अपनी तीखी प्रतिक्रिया द्वारा समाज और सरकार को जगाने का प्रयास करते हैं, कुछ सीमा तक सफल भी हो जाते हैं.
ब्लॉगर की ताकत का अन्दाज़ा इसी से लगता है कि सरकार के खिलाफ कुछ लिखते ही फौरन हरकत में आ जाती है, उसे अपना आस्तित्व हिलता सा दिखाई देने लगता है.
दिसम्बर की 10 तारीख को एक साउदी ब्लॉगर फुयाद अल फरहान को पुलिस पकड़ कर ले गई क्योंकि ब्लॉगिंग के माध्यम से वह समाज के विकास में आने वाली बाधाओं की अपने ब्लॉग पर चर्चा कर रहा था. दूसरे ब्लॉगरज़ को भी इस ओर ध्यान देने को कह रहा था. पच्चीस दिन से फरहान जेल में है.
दिसम्बर जाते जाते एक और दर्द दे गया जिसे पाकर मन सोचने पर विवश हो गया कि क्यों ...? ऐसा क्यों होता है ? हमारे अन्दर मानव और दानव दोनों का निवास है, इस बात को हम नकार नहीं सकते लेकिन जब मानव दानव के हाथों पराजित होता दिखाई देता है तो मन विचलित हो जाता है. क्यों हम अपने अन्दर के दानव को बाहर आने देते हैं ? मन सोचने पर विवश हो जाता है कि किस प्रकार मानव और दानव के बीच तालमेल बिठाकर मानव समाज को नष्ट होने से बचाया जाए.
मेरे विचार में ब्लॉग जगत से जुड़ा हर लेखन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में समाज के हित की ही सोचता है. सभी अपनी अपनी सोच के अनुसार अच्छी बुरी घटनाओं पर अपने अपने तरीके से प्रतिक्रिया भी करते हैं. ऐसा तो हो नहीं सकता कि हर कोई एक ही जैसा सोच कर हर विषय पर अपने विचार प्रकट करे.
अखबारों में, टीवी में या अंर्तजाल पर भ्रष्टाचार के प्रति जो इतना आक्रोश दिखाई देता है, यही साबित करता है हम समाज से बुरे तत्त्वों को निकाल बाहर करना चाहते हैं.
"दोषों का पर्दाफाश करना बुरी बात नहीं है. बुराई यह मालूम होती है कि किसी के आचरण के गलत पक्ष को उदघाटित करके उसमें रस लिया जाता है और दोषोदघाटन को एकमात्र कर्तव्य मान लिया जाता है. बुराई में रस लेना बुरी बात है, अच्छाई में उतना ही रस लेकर उजागर न करना और भी बुरी बात है. सैंकड़ों घटनाएँ ऐसी घटती हैं, जिन्हें उजागर करने से लोक-चित्त में अच्छाई के प्रति अच्छी भावना जगती है." यह पंक्तियाँ श्री हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी के लेख "क्या निराश हुआ जाए' से ली गई हैं.
जीवन में कितने धोखे मिले, कितनी बार किसी ने ठगा, कितनी बार किसी ने विश्वासघात किया. समाज के घिनौने रूप को देख कर पीड़ा होती है, भुलाए नहीं भूलती. यदि इन्हीं बातों का हिसाब किताब लेकर बैठेंगे तो जीना दूभर हो जाएगा.
प्रेम ही सत्य है – इस मूल-मंत्र को हम जान लें तो जीना आसान ही नहीं खूबसूरत भी हो जाए. प्रेम अपने आप से , प्रकृति से , जीव-जंतुओं से और फिर मानव-मानव से, बस फिर अपने महान भारत देश को ही नहीं, विश्व को पाने की भी संभावना हो जाएगी.
आज से कोशिश करूँगीं कि अपने ब्लॉग में गद्य को भी उतना ही महत्व दूँ जितना कि पद्य को देती आई हूँ.
बहता पानी साफ रहता है, रुके हुए पानी से अपने लिए ही नहीं आसपास के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है. कई दिनों से ब्लॉग जगत में बहुत कुछ पढ़ते रहने के बाद लगने लगा कि बस बहुत हो चुका. ज़्यादा पढ़ना भी मुसीबत बन सकता है. अलग अलग ब्लॉगज़ द्वारा बहुत से विचार एक साथ दिल और दिमाग में उतर रहे थे. चाह कर भी प्रतिक्रिया स्वरूप लिखने का समय निकालना सम्भव नहीं लग रहा था. इस समय को भी दूसरे कामों से आँख चुराकर ही निकाल पाएँ हैं.
मानव समाज में अलग अलग रूप से क्लेश, अशांति, वहशीपन, आक्रोश की बहती हवा का प्रभाव ब्लॉग जगत पर भी दिखाई देता है कुछ चिट्ठाकार इन मुद्दों पर लिखकर चिंतन करने को बाध्य करते हैं. कुछ अपनी तीखी प्रतिक्रिया द्वारा समाज और सरकार को जगाने का प्रयास करते हैं, कुछ सीमा तक सफल भी हो जाते हैं.
ब्लॉगर की ताकत का अन्दाज़ा इसी से लगता है कि सरकार के खिलाफ कुछ लिखते ही फौरन हरकत में आ जाती है, उसे अपना आस्तित्व हिलता सा दिखाई देने लगता है.
दिसम्बर की 10 तारीख को एक साउदी ब्लॉगर फुयाद अल फरहान को पुलिस पकड़ कर ले गई क्योंकि ब्लॉगिंग के माध्यम से वह समाज के विकास में आने वाली बाधाओं की अपने ब्लॉग पर चर्चा कर रहा था. दूसरे ब्लॉगरज़ को भी इस ओर ध्यान देने को कह रहा था. पच्चीस दिन से फरहान जेल में है.
दिसम्बर जाते जाते एक और दर्द दे गया जिसे पाकर मन सोचने पर विवश हो गया कि क्यों ...? ऐसा क्यों होता है ? हमारे अन्दर मानव और दानव दोनों का निवास है, इस बात को हम नकार नहीं सकते लेकिन जब मानव दानव के हाथों पराजित होता दिखाई देता है तो मन विचलित हो जाता है. क्यों हम अपने अन्दर के दानव को बाहर आने देते हैं ? मन सोचने पर विवश हो जाता है कि किस प्रकार मानव और दानव के बीच तालमेल बिठाकर मानव समाज को नष्ट होने से बचाया जाए.
मेरे विचार में ब्लॉग जगत से जुड़ा हर लेखन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में समाज के हित की ही सोचता है. सभी अपनी अपनी सोच के अनुसार अच्छी बुरी घटनाओं पर अपने अपने तरीके से प्रतिक्रिया भी करते हैं. ऐसा तो हो नहीं सकता कि हर कोई एक ही जैसा सोच कर हर विषय पर अपने विचार प्रकट करे.
अखबारों में, टीवी में या अंर्तजाल पर भ्रष्टाचार के प्रति जो इतना आक्रोश दिखाई देता है, यही साबित करता है हम समाज से बुरे तत्त्वों को निकाल बाहर करना चाहते हैं.
"दोषों का पर्दाफाश करना बुरी बात नहीं है. बुराई यह मालूम होती है कि किसी के आचरण के गलत पक्ष को उदघाटित करके उसमें रस लिया जाता है और दोषोदघाटन को एकमात्र कर्तव्य मान लिया जाता है. बुराई में रस लेना बुरी बात है, अच्छाई में उतना ही रस लेकर उजागर न करना और भी बुरी बात है. सैंकड़ों घटनाएँ ऐसी घटती हैं, जिन्हें उजागर करने से लोक-चित्त में अच्छाई के प्रति अच्छी भावना जगती है." यह पंक्तियाँ श्री हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी के लेख "क्या निराश हुआ जाए' से ली गई हैं.
जीवन में कितने धोखे मिले, कितनी बार किसी ने ठगा, कितनी बार किसी ने विश्वासघात किया. समाज के घिनौने रूप को देख कर पीड़ा होती है, भुलाए नहीं भूलती. यदि इन्हीं बातों का हिसाब किताब लेकर बैठेंगे तो जीना दूभर हो जाएगा.
प्रेम ही सत्य है – इस मूल-मंत्र को हम जान लें तो जीना आसान ही नहीं खूबसूरत भी हो जाए. प्रेम अपने आप से , प्रकृति से , जीव-जंतुओं से और फिर मानव-मानव से, बस फिर अपने महान भारत देश को ही नहीं, विश्व को पाने की भी संभावना हो जाएगी.
आज से कोशिश करूँगीं कि अपने ब्लॉग में गद्य को भी उतना ही महत्व दूँ जितना कि पद्य को देती आई हूँ.
शुक्रवार, 4 जनवरी 2008
लीच/जौंक
जाने किस झोंक में मैंने
जौंको को अपनी पीठ पे छोड़ दिया !
मीठा मीठा दर्द जिन्होंने मेरे खून में घोल दिया
जाने क्यों उठती आहों को मैंने आने से रोक लिया.
आँख मींच कर लीच को मैंने बाँहों में भींच लिया
साँस खींच कर आते दर्द को खून में सींच लिया.
कुछ लीचें मेरी अपनी हैं, मेरी मज्जा से ही बनी हैं
ये लीचें कुछ न्यारी हैं जो मेरे ही खून से सनी हैं.
इन पंक्तियों को पढ़कर सबसे पहला भाव मन में क्या आ सकता है ?
उसे टिप्पणी के रूप में देंगे तो आभार होगा.
जौंको को अपनी पीठ पे छोड़ दिया !
मीठा मीठा दर्द जिन्होंने मेरे खून में घोल दिया
जाने क्यों उठती आहों को मैंने आने से रोक लिया.
आँख मींच कर लीच को मैंने बाँहों में भींच लिया
साँस खींच कर आते दर्द को खून में सींच लिया.
कुछ लीचें मेरी अपनी हैं, मेरी मज्जा से ही बनी हैं
ये लीचें कुछ न्यारी हैं जो मेरे ही खून से सनी हैं.
इन पंक्तियों को पढ़कर सबसे पहला भाव मन में क्या आ सकता है ?
उसे टिप्पणी के रूप में देंगे तो आभार होगा.
मेरी भी आभा है इसमें
नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें
भीनी-भीनी खुशबूवाले
रंग-बिरंगे
यह जो इतने फूल खिले हैं
कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था
कल इनको मेरे सपनों ने सहलाया था
पकी सुनहली फसलों से जो
अबकी यह खलिहान भर गया
मेरी रग-रग के शोणित की बूँदें इसमें मुसकाती हैं
नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें
" नागार्जुन "
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें
भीनी-भीनी खुशबूवाले
रंग-बिरंगे
यह जो इतने फूल खिले हैं
कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था
कल इनको मेरे सपनों ने सहलाया था
पकी सुनहली फसलों से जो
अबकी यह खलिहान भर गया
मेरी रग-रग के शोणित की बूँदें इसमें मुसकाती हैं
नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें
" नागार्जुन "
गुरुवार, 3 जनवरी 2008
आप सबके बड़प्पन को प्रणाम !
फुर्सत के पल मिलते ही अभी मैंने अपना मेल एकाण्ट खोला तो चेहरा खुशी से खिल उठा . मेल खोलते जा रहे थे और पढ़ते जा रहे थे. लगा कि मेल भेजते वक्त सबके चेहरे पर मुस्कान ही होगी जैसे राह चलते किसी को गिरते देख कर हँसीं निकल जाती है. सच मानिए कभी कभी गलती करके माफी माँगने का अलग ही आनन्द है.
कल शाम एक जन्मदिन की पार्टी पर छोटे बेटे को लेकर अजमान जाना पड़ा, लौटते लौटते रात के दो बज गए.
आज सुबह बड़े बेटे को लेकर कॉलेज गई जहाँ मुझे ठहरना था क्योंकि अक्सर एग्ज़ाम के दिनों में बेटे पर दर्द कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हो जाता है. दोपहर एक बजे घर आते ही दोपहर खाना बनाया , खाया और खिलाया. न चाह कर भी नींद को अपने करीब आने से रोक नहीं पाए. अच्छी तरह मालूम है कि भोजन करने के एकदम बाद सोना ज़हर का काम करता है, फिर भी सो गए थे. उठने के बाद हालत खराब होनी ही थी सो हो गई.
तब सोचा कि अर्बुदा के हाथ की चाय पी जाए और नन्हे-मुन्ने जुड़वाँ इला इशान से खेला जाए तो तन-मन दोनो प्रफुल्लित हो जाएँगें. मीनू आटीं मीनू आटीं कहते हुए दोनों की होड़ लग जाती है कि सबसे ज़्यादा कौन अपनी बातों से लुभाएगा. एक मज़ेदार खेल होता है वहाँ. दोनो बच्चे अपनी प्यारी प्यारी बातों से हम दोनों को बात करने का अवसर ही नहीं देते लेकिन हम भी मौका पाकर अपनी बात कर ही लेते हैं.
वहाँ भी पैगी डॉट कॉम पर चर्चा हुई. सोचा कि चाय पीने के बाद तो ज़रूर इस विषय पर लिखना ही है.
जब सेहतनामा के संजय जी का मेल आया कि एक डोमेन का आमंत्रण मिला है तो हमारा माथा ठनका क्योंकि उससे पहले उस डोमेन पर विकास जी से भी बात हुई तब तक हम कुछ समझ नहीं पाए थे कि वे हमारे ब्लॉग परिवार के सदस्य हैं या कोई और .. आशा जी से निमंत्रण मिला था जिसे हमने उनकी साइट समझी और पैगी की पगली पढ़ लिया.
नहीं अब इस विषय पर बात करने का जोश ठंडा सा पड़ता जाता है . अब सोचते हैं "बीती बात बिसार दे , आगे की सुध ले" सो कल की बातें भुलाकर आज इस समय हमारे साथ कुछ गीतों का आनन्द लीजिए जो अभी मैं सुन रही हूँ --
दीवाना मस्ताना हुआ दिल........
जाता कहाँ है दीवाने ......
हूँ अभी मैं जवाँ ए दिल ......
जानूँ जानूँ रे ......
कल शाम एक जन्मदिन की पार्टी पर छोटे बेटे को लेकर अजमान जाना पड़ा, लौटते लौटते रात के दो बज गए.
आज सुबह बड़े बेटे को लेकर कॉलेज गई जहाँ मुझे ठहरना था क्योंकि अक्सर एग्ज़ाम के दिनों में बेटे पर दर्द कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हो जाता है. दोपहर एक बजे घर आते ही दोपहर खाना बनाया , खाया और खिलाया. न चाह कर भी नींद को अपने करीब आने से रोक नहीं पाए. अच्छी तरह मालूम है कि भोजन करने के एकदम बाद सोना ज़हर का काम करता है, फिर भी सो गए थे. उठने के बाद हालत खराब होनी ही थी सो हो गई.
तब सोचा कि अर्बुदा के हाथ की चाय पी जाए और नन्हे-मुन्ने जुड़वाँ इला इशान से खेला जाए तो तन-मन दोनो प्रफुल्लित हो जाएँगें. मीनू आटीं मीनू आटीं कहते हुए दोनों की होड़ लग जाती है कि सबसे ज़्यादा कौन अपनी बातों से लुभाएगा. एक मज़ेदार खेल होता है वहाँ. दोनो बच्चे अपनी प्यारी प्यारी बातों से हम दोनों को बात करने का अवसर ही नहीं देते लेकिन हम भी मौका पाकर अपनी बात कर ही लेते हैं.
वहाँ भी पैगी डॉट कॉम पर चर्चा हुई. सोचा कि चाय पीने के बाद तो ज़रूर इस विषय पर लिखना ही है.
जब सेहतनामा के संजय जी का मेल आया कि एक डोमेन का आमंत्रण मिला है तो हमारा माथा ठनका क्योंकि उससे पहले उस डोमेन पर विकास जी से भी बात हुई तब तक हम कुछ समझ नहीं पाए थे कि वे हमारे ब्लॉग परिवार के सदस्य हैं या कोई और .. आशा जी से निमंत्रण मिला था जिसे हमने उनकी साइट समझी और पैगी की पगली पढ़ लिया.
नहीं अब इस विषय पर बात करने का जोश ठंडा सा पड़ता जाता है . अब सोचते हैं "बीती बात बिसार दे , आगे की सुध ले" सो कल की बातें भुलाकर आज इस समय हमारे साथ कुछ गीतों का आनन्द लीजिए जो अभी मैं सुन रही हूँ --
दीवाना मस्ताना हुआ दिल........
जाता कहाँ है दीवाने ......
हूँ अभी मैं जवाँ ए दिल ......
जानूँ जानूँ रे ......
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