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मंगलवार, 30 अक्टूबर 2007

ब्लॉगवाणी के साथ करवाचौथ !!

गहरी नींद के सागर में डुबकियाँ लगा ही रही थी कि अचानक सुबह-सुबह मोबाइल बज उठा. हड़बड़ा कर उठी, कुछ पल लगे संयत होने में, देखा कि यह अलार्म नहीं बल्कि सखी का सन्देश है कि सरगी(व्रत रखने वाली औरते सुबह उठ कर सास द्वारा दिया खाना खाती हैं) के लिए उठ जाओ. हम दोनों का घर एक ही बिल्डिंग में है और अक्सर शामें एक साथ गुज़रती हैं. शुक्रिया का जवाब लिख कर मैं उठी सरगी की तैयारी करने. खाने-पीने की प्लेट लेकर कम्पयूटर के सामने आ बैठी और् पतिदेव की तस्वीर को डेस्कटॉप की बेकग्राउण्ड पर सेट कर दिया. पतिदेव की तस्वीर तो देख ही रही थी लेकिन ब्लॉगजगत की साइट भी मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रही थी.

सोचा सिर्फ करवाचौथ पर लिखी रचनाओं को ही पढेंगें सो मुस्कराकर तस्वीर से माफी माँगी और ब्लॉगजगत की साइट खोल ली.करवा-चौथ से जुड़े कुछ चिट्ठे पहले ही ब्लॉगवाणी की शोभा बढ़ा रहे थे. एक एक करके चिट्ठे खोले और पढ़ना शुरु कर दिया. सुनिता जी के लेख से जहाँ व्रत के बारे में जानकारी मिली , वहीं अनुराधा जी की रचना मे व्रत से जुड़े अनुभवों को पढ़कर अच्छा लगा. अर्बुदा के भाव भीने हाइकू रंगीन चित्रों के साथ पढ़कर आनन्द भी दुगना हो गया. आज उल्लू की विशेष पूजा है.... पढ़कर हम हैरान रह गए. यह हमारे लिए नई जानकारी थी.

कोई और चिट्ठा खोलती उससे पहले ही यादों का सैलाब उमड़ पड़ा. साउदी अरब में सालों से करवा-चौथ के व्रत रखने का अलग ही आनन्द था. ससुराल से सन्देश आता कि कम से कम उस दिन काला कपड़ा न पहनना लेकिन उसी दिन हमें काले बुरके में ही चाँद देखने के लिए बाहर जाना पड़ता. रेगिस्तान में कहीं दूर चाँद दिखता और वहीं दिया जला कर चाँद की पूजा की जाती और जल चढ़ाया जाता. काले दुपट्टे की ओट से चांद और पति को देख कर व्रत खोलते. जलते दिए को वहीं किसी झाड़ी की ओट में रख कर लौट आते. मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करते कि लाज राखो प्रभु , तेरा ही आसरा है. पूजन-विधि नहीं पर श्रद्धा-विश्वास को स्वीकारो. मन में अटल विश्वास और आस्था की लौ जलाए घर लौट कर सब मिलकर रात का खाना खाते और टी.वी. पर ही करवा-चौथ के अलग अलग क्रार्यक्रम देख कर आनन्द लूटते.

साढ़े आठ बज चुके थे , चाँद के निकलने का समय हो गया था , हम भी निकल पड़े कार निकाल कर . खुले आकाश को देखने के लिए कार से ही जाना पड़ता है. पाँच मिनट बाद ही घर से कुछ दूरी पर खुले आकाश में चाँद मुस्कराता खिला सा दिखने लगा. अर्बुदा और मैंने पूजा की और कुछ देर चाँद को निहारा और वापिस लौट आए. आज करवाचौथ का व्रत ब्लॉगवाणी के साथ कैसे बीत गया पता ही नहीं चला. शायद सुबह सुबह हमने प्रभु राम और सीता का नाम ले लिया था सो दिन अच्छा बीतना ही था.
इस बारे में चर्चा कल करेंगे.

सोमवार, 29 अक्टूबर 2007

नभ की सुषमा

अभी तो सूरज दमक रहा है. दिन अलस जगा है.
चंदा के आने का इंतज़ार अभी से क्यों लगा है !
बस उसी चंदा के ख्यालों में मेरा मन रमा है
नभ की सुषमा देखने का अरमान जगा है !
कविता के सुन्दर शब्दो का रूप सजा है
अब ब्लॉगवाणी पर पद्य मेरा हीरे सा जड़ा है !



नील गगन के नील बदन पर
चन्द्र आभा आ छाई !

ऐसी आभा देख गगन की
तारावलि मुस्काई !

नभ ने ऐसी शोभा पाई
सागर-मन अति भाई !

कहाँ से नभ ने सुषमा पाई
सोच धरा ने ली अँगड़ाई !

रवि की सवारी दूर से आई
उसकी भी दृष्टि थी ललचाई!

घन-तन पर लाली आ छाई
घनघोर घटाएँ भी सकुचाईं !

नील गगन के नील बदन पर
रवि आभा घिर आई !

ऐसी आभा देख गगन की
कुसुमावलि भी मुस्काई !

नील गगन के नील बदन पर
चन्द्र आभा आ छाई !

रविवार, 28 अक्टूबर 2007

चित्रों में हाइकू !



शिथिल अंग
ममता असीम है
शिशु निश्चिंत !


( मिट्टी की मूरत का मेरे द्वारा खींचा गया चित्र )

शनिवार, 27 अक्टूबर 2007

तस्वीरों की कहानी !


मेरी हर रचना के साथ जो भी तस्वीरें हैं उनमें से कुछ मेरे द्वारा ही खींची गईं हैं शेष गूगल से ली गई हैं. यहाँ उनका विवरण दिया जा रहा है --




उत्तरी ईरान में बर्फबारी 





ईरानी मित्रों की मेहमान नवाजी 




खुशी के पल दोस्तों के संग 



तेहरान (ईरान ) 





मेरी रसोई-घर में ईरानी केतली-कूरी







रियाद के घर में तालों ज़े फूका गुलद्स्ता





छोटे बेटे विद्युत द्वारा बनाया गया चित्र





यह चित्र भी विद्युत द्वारा बनाया गया




दमाम (साउदी अरब)




तहरान से रश्त(उत्तरी ईरान) की हवाई यात्रा के दौरान खींचा गया चित्र




दमाम के समुद्र का किनारा





















शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2007

नया प्रयास - पहला हाईकू तस्वीर के साथ !

मैंने थामा है
शक्ति पुंज दिनेश
दोनो हाथों में.

मेरे प्यारे काका सर्प न्यारे हैं बड़े !

माँ, आपकी अनुमति से आज अपनी इस कविता को पन्नों की कैद से आज़ाद कर रही हूँ. आज सुबह का पहला ब्लॉग जो खुला उसे पढ़कर बहुत सी पुरानी यादें ताज़ा हो गईं. वे सभी डर जो मुझे सताते थे वे किसी ओर को भी सताते हैं जानकर तसल्ली हुई कि मैं अकेली नहीं इस दुनिया में. मेरे जैसे बहुत हैं जो अन्दर ही अन्दर एक डर से जकड़े हुए हैं. कुछ लोग स्वीकर कर लेते हैं और कुछ लोग इस डर को चाह कर भी दिखा नहीं पाते.

(इस कविता में श्री अज्ञेय जी की कविता के एक अंश का सहारा लिया गया है जिससे कविता आगे बढ़ पाई. सही में कहा जाए तो मेरा एक सपना है और था कि उनसे एक मुलाकात कर पाती)


" मेरे आँगन में नीम के पेड़ तले

सदियों से एक विषधर हैं पले !


मेरे प्यारे काका सर्प न्यारे हैं बड़े

माथे पर उनके मणिमाणिक हैं जड़ें !


होती हर सन्ध्या मेरी काका के संग

बैठ कर मैं भी रंग जाती उनके रंग !


लेकिन आज जाने क्यों उदास थे पड़े

बेचैनी से दूध का कटोरा किए थे परे !


खड़ी थी व्याकुल मैं आँखों में आसूँ भरे

मुझे देख पीड़ा में घाव उनके हुए हरे !


सम्मानित अतिथि एक हमारे घर थे विराजे

जाने-माने कविराज हमारे घर थे जो पधारे !


आँगन में आए थे टहलने , देखा सर्पराज को

आश्चर्य चकित हुए, देखा जब नागराज को !


मन में उनके प्रश्न कई एक साथ जन्मे

उत्तर एक पाने को कविराज थे मचले !


पूछने लगे उत्साहित होकर सर्पराज से ----

"हे साँप , तुम सभ्य हुए नहीं, न होगे

नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया

फिर कैसे सीखा डसना , विष कहाँ से पाया !"


मैं सुनकर सकते में आई , फिर सँभली

खिसियानी बिल्ली सी फीकी हँसी हँस दी !


फिर बोली विषधर से, अपने प्यारे काका से

यह तो सीधा कटाक्ष हुआ है शहरी मानव पे !


मेरी तुलना मानव से क्यों -- काका मेरे चिल्लाए

मानव से तुलना क्यों यह सोच-सोच भन्नाए !


विषधर मेरा नाम जैसा अन्दर , बाहर भी वैसा

विष उगलना मेरा काम, अन्दर बाहर एक जैसा !


मानव-मन से कब विष उगलेगा, कब अमृत बरसेगा

उसका मन पाषाण रहेगा या मोम सा भी पिघलेगा !


कोई न जाने, वो खुद न जाने , मायाकार स्वयं न जाने

फिर मेरी तुलना मानव से क्यों मेरा मन यह न माने !


करारी चोट लगी सुनकर अपने काका की बातें

मन तड़पा रोया काका की बातें थीं गहरी घातें !


मैंने मानव-जन्म क्यों पाया, सोच-सोच मन अकुलाया

विषधर काका जैसे मैं भी हो जाऊँ मन मेरा भरमाया !!!!




गुरुवार, 25 अक्टूबर 2007

तपता - हँसता जीवन !

सूरज का अहम देख कर
चन्द्र्मा मन ही मन मुस्करा उठा
और सोचने लगा -
अपनी आग से सूरज
धरती को देता है नवजीवन ही नहीं
मन-प्राण भी उसका झुलसा देता है.
धरती के हरयाले आँचल से
टके हुए ओस के मोती चुरा लेता है.
स्वयं पल-पल जलता है
और प्रकृति का रोम-रोम भी जला देता है
अपने आप में भूला, जलता जलाता सूरज
मेरे आसितत्व को ही भुला देता है
समझता नहीं सूरज कि मैं भी
धरती के मन-प्राणों में शीतलता भर देता हूँ
अपनी सुषमानूभूति से मैं
जलती धरती को मुस्काना सिखा देता हूँ.
मैने दोनो को हँस कर देखा
और सोचा कि मेरे जीवन में
दोनों का ही महत्त्व है ---
सूरज जीवन में जलना तपना सिखाता है
चन्द्र्मा जलते-तपते जीवन में हँसना सिखा देता है......!