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बुधवार, 24 अक्टूबर 2007

ज़िन्दगी इत्तेफाक है !

घर पहुँच कर राहत की साँस ली कि आज फिर हम बच गए. हर रोज़ बेटे को कॉलेज छोड़ने और वापिस आने में 80 किमी के सफर में कोई न कोई सड़क दुर्घटना का शिकार दिख ही जाता है. कभी कभी 160 किमी भी हो जाता है गर कोई टैक्सी या प्राइवेट ड्राइवर ने मिले. मेरे रास्ते में हर रोज़ की दुर्घटनाओं में से चुने कुछ चित्र हैं -


रास्ते में दुबई के हिन्दी रेडियो सुनना संजीवनी बूटी सा काम करता है. अचानक बीच में ही रेडियो प्रसारण में फोन वार्ता में एक महिला की दर्द भरी आवाज़ मे मदद के लिए गुहार थी . एक सड़क दुर्घटना में उसके 22 साल के बेटे को एक टाँग से हाथ धोना पड़ा, महीना भर कोमा रहा जिसकी तीमारदारी में 25 साल के बड़े बेटे को नौकरी से निकाल दिया गया. सुनकर दिल बैठ गया... मृत्यु चुपचाप आकर ले जाए तो कोई दुख नहीं क्योंकि एक दिन जाना ही है लेकिन इस तरह अंग-भंग होना या अकाल मृत्यु का पाना पूरे वजूद मे एक सिहरन पैदा कर देता है.
फौरन हमने दूसरा हिन्दी स्टेशन ढूँढा जहाँ जो गीत बजा बस उसके सुनते ही सारा डर हवा हो गया.

आप भी सुनिए और सोचिए कि सुर और लय का हमारे ऊपर क्या असर होता है.

ज़िंदगी इत्तेफाक़ है

बात जो रास्ते का पत्थर थी !

सुबह सुबह का अनुभव लिखने के बाद हम बैठे पढ़ने अलग अलग चिट्ठे. जितना पढते गए उतना ही अपने को पहचानते गए लगा कि शायद बहुत कुछ है जो अभी सीखना है , बहुत कुछ है जो मेरी समझ से बाहर है. क्यों समझ से बाहर है यह आज तक समझ नहीं आया. जीवन को सही चलाने के लिए जो छोटी छोटी बातें हैं वही समझ आती हैं. क्यों जीवन से जुड़े कुछ विषयों पर बुद्धि काम नहीं करती. अचानक लगने लगा चिट्ठाजगत के इस अथाह सागर के कुश्ल तैराक नहीं हैं. लिखी बात अगर समझ न आए तो मन छटपटाने लगता है अपने आप से ही सवाल करने लगता है कि क्यों बात का हर स्वरूप हम समझ नहीं पाते.. ..... मानव की स्वाभाविक इच्छा है सब कुछ जानने समझने की ... बात जो समझ नहीं आती लेकिन उसके अलग अलग रूप दिखाई देते हैं उस पर एक छोटी सी कविता ----


बात जो रास्ते का पत्थर थी

लोगों की पूजा ने कभी उसे पहाड़ बना दिया

लोगों की ठोकरों ने कभी उसे कंकर बना दिया


बात जो रास्ते का कंकर थी

समय की मार से कभी धूल बन गई

वही धूल आँखों की कभी किरकरी बन गई


बात जो आँखों की किरकरी थी

आँसू बन बहती गुम हो गई गालों पर

वही बात मुस्काई खिले गुलाब सी पलकों पर


बात जो खिलते गुलाब जैसी थी

कभी काँटा बन चुभती चली गई मन में

कभी सुगन्ध बन फैलती चली गई तन में

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2007

मधुशाला कहें या पाकशाला !

अंर्तजाल पर आए थे जीवन के नए-नए पाठ पढ़ने , पहुँच गए चिट्ठाजगत की मधुशाला में. एक प्यारी सी सखी जो खुद एक चिट्ठाकार हैं जबरन ले आईं यहाँ और बार टैंडर बन कर हर ब्लॉग को खोल खोल कर ज़रा ज़रा चखा कर हरेक की खासियत बताती जाती. हम थे कि एक साथ कई ब्लॉग कॉकटेल की तरह गटक गए. ऐसा नशा हुआ कि हैंग ओवर भगाने के लिए सुबह-सुबह भी एकाध ब्लॉग की ज़रूरत होने लगी जैसे सुबह ताज़ा अखबार खोलने का आनन्द अलग है. उसी तरह ब्लॉग पढ़ने का अपना ही एक नशा है. धीरे धीरे ऐसा नशा छाया कि कब हम इस आदत के शिकार हो गए पता भी नहीं चला. समझ न आए कि चिट्ठाजगत मधुशाला की पाठशाला है या इस पाठशाला मे कोई मधुशाला है.
हर चिट्ठे की अपनी विशेषता, नशे का स्तर अलग अलग. किसी को पढ़कर पीकर गम्भीर हो जाना, आत्मचिंतन करने पर विवश हो जाना, किसी को पढकर हँसना, किसी को पढ़कर आँखें नम करना. सुख-दुख की अनुभूति, विषाद और पीड़ा के भाव सब मिल कर एक अलौकिक नशे में डुबो देता.
इस अलौकिक आनन्द में अभी हम डुबकियाँ लगा ही रहे थे कि नींबू के रस की तरह बच्चे टपक पड़े और सारा नशा हिरन कर दिया. उन्हें पेट की भूख सता रही थी, उनके लिए पाकशाला जाने के अलावा कोई चारा न था सो लड़खड़ाते कदमों से मन मार कर उठे खाना पकाने.
"कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय" – चपाती सेकते-सेकते अचानक विचार आया था कि धतूरा हो या गेहूँ हो, दोनो को ही खाने के बाद नशा आता है फिर कैसे कहें कि जिन्हें मधुशाला से परहेज़ है , वे चिट्ठाजगत को पाकशाला समझें. हर रोज़ यहाँ नए चिट्ठे स्वादिष्ट व्यंजनों की तरह अंर्तजाल पर सजे होते हैं. कुछ भावनाओं की चाशनी में डूबे हुए तो कुछ मन को झझकोरते तीखी मिर्च के तड़के के साथ.
मधुशाला कहें या पाकशाला – मादकता तो दोनों में विराजमान है. चिट्ठाजगत की पाठशाला से हम क्या सीख पाते हैं यह तो आने वाला समय ही बताएगा फिलहाल इस समय हम एक नए चिट्ठे को खोल कर उसे पीने पचाने मे लगे हैं.

सोमवार, 22 अक्टूबर 2007

करुणा भर दो !



पृथ्वी के होठों पर पपड़ियाँ जम गईं
पेड़ों के पैरों मे बिवाइयाँ पड़ गईं.

उधर सागर का भी खून उबल रहा
और नदियों का तन सुलग रहा.

घाटियों का तन-बदन भी झुलस रहा
और झीलों का आँचल भी सिकुड़ रहा.

धूप की आँखें लाल होती जा रहीं
हवा भी निष्प्राण होती जा रही.

तब

अम्बर के माथे पर लगे सूरज के
बड़े तिलक को सबने एक साथ

निहारा ---
और उसे कहा ---
काली घाटियों के आँचल से
माथे को ज़रा ढक लो .
बादलों की साड़ी पर
चाँद सितारे टाँक लो

और फिर

मीठी मुस्कान की बिजली गिरा कर
प्यार की , स्नेह की वर्षा कर दो

धरती को हरयाले आँचल से ढक दो
प्रकृति में, इस महामाया में करुणा भर दो .....!

शनिवार, 20 अक्टूबर 2007

कुछ पल पिता की यादों में

बहुत दिनों बाद आज दिल मे गहरा दर्द उठा, गला रुँध गया और आँसू आँखों से बाहर आने को मचलने लगे. सब धुँधला सा हो गया. कुछ देर मन को संयत करके बैठी लेकिन यादों का सैलाब बाँध तोड़ कर आँसुओं के ज़रिए बाहर आ ही गया. मेरे पिता जीवन के अंतिम दो साल अपनी आवाज़ खोकर जिए लेकिन अंत तक आवाज़ वापिस पाने का सपना लेकर चले गए . हमेशा अपनी जेब में छोटी सी नोटबुक और पेन रखते जो उनकी आवाज़ ही थी जो हम सब तक पहुँचती. 'बेबी, तुम्हारी कविताओं की किताब पढ़ना मेरा सपना है.' नोटबुक मे लिख कर दिखाते और ईशारों में कहते कि आवाज़ तो है नही इसलिए चुपचाप बैठ कर बस पढ़ने का आनन्द लूँगा.
संजीत त्रिपाठी जी के ब्लॉग पर उनके पिता जी की पुण्य तिथि पर उस महान आत्मा को श्रद्धाँजलि दी ही थी कि बोधिसत्व जी के ब्लॉग पर जाना हुआ. पिता जी की याद मे लिखी कविता "पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे" मर्म को छू गई या कहिए कि भेद गई. आज तक मन में ग्लानि है जिसे कभी बाहर नहीं निकलने दिया. मन को पत्थर सा कर लिया था. कैसे कहूँ कि मैं अपने ही मोह जाल में फँसीं पिता के हाथ को झटक कर वापिस रियाद लौट आई थी अपने परिवार के पास. चौबीस घण्टों में ही भाई अपने परिवार के साथ अमेरिका से दिल्ली पहुँच गया था. ऐयरपोर्ट से सीधा अस्पताल ही पहुँचा. नन्हे भतीजे को लेकर मैं अस्पताल के बाहर टैक्सी के पास ही खड़ी रही. पापा बेटे बहू को देख कर खुश हुए. आई सी यू में तरह तरह के यंत्रों से जकड़े होने पर भी मुख पर मुक्त हास आ गया था.
चार दिनों में ही दिखने लगा कि पापा यमराज को पछाड़ कर फिर से खड़े हो जाएँगें.
ई ई जी कराने के लिए अस्पताल के दूसरे कोने में जाना था सो पापा को स्ट्रैचर पर लेकर वहाँ पहुँचे. डॉक्टर के पूछने पर मेरे मुहँ से निकल गया कि पापा की उम्र 74 साल है, फिर क्या था न जाने उनके हाथों मे कहाँ से शक्ति आ गई कि मेरा हाथ पकड़ कर उसमे 64 जैसा लिखकर बताना चाह रहे थे कि मैं 74 का नहीं 64 का हूँ. ऑक्सीज़न मास्क में छुपे मुँह की बनावट से पता चल रहा था कि होंठ कुछ कहने को फड़फड़ा रहे हैं पर कह नहीं पा रहे हैं. मुस्करा कर फौरन मैने माफी माँगीं तो सिर हिला कर जैसे कह रहे हों कि आइन्दा ध्यान रखना.
हफ्ते में ही पापा आई सी यू से प्राइवेट कमरे में आ गए थे. तीनों बच्चों को आस-पास देख कर जीने की इच्छा और तेज़ होती दिखाई दे रही थी. उधर मेरे बच्चों का मन शायद नाना और माँ दोनो के बीच में झूल रहा था. मुझे याद करते लेकिन कह न पाते कि माँ वापिस लौट आओ. 17 मार्च 2002 का दिन भुलाए नहीं भूलता जब पापा ने मेरा हाथ पकड़ लिया और मूक भाव से न जाने की जैसे गुहार कर रहे हों. हाथ की मज़बूत पकड़ अब भी मैं महसूस कर सकती हूँ. भाई ने कहा, ' डैडी , अब तो मैं हूँ , आपका पोता है आपके पास' फिर भी पकड़ ढीली न हुई तो कहा, ' पापा , दीदी को जाने दो, दीदी के बिना वहाँ आपके दोते....., इतना सुनते ही पापा ने हाथ छोड़ दिया. मन पर पत्थर रख कर मैं वहाँ से निकल तो आई लेकिन दिल जैसे पीछे ही छूट गया.
दिल पर मन–मन भर के पत्थर लेकर रियाद अभी पहुँचीं थी कि दो दिन बाद ही खबर पहुँचीं कि पापा हमें छोड़ कर चले गए. 17 मार्च को पापा के हाथों की इतनी मज़बूत पकड़ 19 मार्च को ही ढीली हो जाएगी , सुनकर यकीन ही नहीं हुआ. जड़ सी हो गई.19 मार्च होली का दिन हमारे लिए क्या रंग लेकर आया. सभी रंग फीके से पड़ गए.
कई दिन तक मुझे होश ही नहीं था कि क्या हुआ. कैसे हुआ , क्यों हुआ... क्यों मैं अपने पापा का हाथ छुड़ा कर वापिस लौट आई !!

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2007

ईरान का सफर (2)

ईरानी लोगों का लखनवी अन्दाज़ देखने लायक होता है. हर बार मिलने पर झुक कर सलाम करते-करते बहुत समय तक हाल-चाल पूछना हर ईरानी की खासियत है. 'सलाम आगा'-सलाम श्रीमान् 'सलाम खानूम'-सलाम श्रीमती 'हाले शोमा चतुरी?'-आपका क्या हाल है? 'खूबी?'-अच्छे हैं, 'शोहरे शोमा खूबी?'- आपके पति कैसे हैं?, 'खानूम खूबे?'- श्रीमती कैसी हैं?', 'बच्चेहा खूबी?'-बच्चे ठीक हैं? 'खेली खुशहाल शुदम'- बहुत खुशी हुई मिलकर 'ज़िन्दाबशी' – लम्बी उम्र हो,
यदि धन्यवाद 'मरसी' कहा जाए तो फिर एक और जुमला सुनने को मिलता है. 'ख्वाहिश मीकोनाम' या 'काबिल न दरे'. कहने का मतलब है कि हर ईरानी आपसे हाल-चाल पूछता पूछता आधा समय गुज़ार देगा और प्यारी सी मुस्कान के साथ झुक कर सलाम करता रहेगा. आप न चाहते हुए भी मुस्कराएँगें और उनके जाने के बाद अपने दुखते गालों को दबाएँगें.
बाज़ार चलते समय हर मिलने वाले को मुस्कुरा कर , झुक कर सलाम करना जैसे एक रिवाज़ है वहाँ. अगर आप भारत के हैं तो बस एक लम्बी सी लिस्ट की चर्चा शुरु हो जाएगी. वे कहाँ-कहाँ जाना चाहते हैं; उन्हें भारत की फिल्में, वहाँ के पहनावे बहुत अच्छे लगते हैं. जल्दी ही आपसे पूछ लेंगे कि यदि आप साड़ी लाएँ हैं तो उनकी बेटी को एक बार पहना कर तस्वीर खींच दें.
किसी के घर जाने पर सबसे पहले काली चाय चीनी के टुकड़े के साथ (जिसे मिशरी नहीं 'गन्द' कहा जाता है) परोसी जाती है.चाय बनाने का भी उनका एक अलग ही तरीका होता है. केतरी(केतली) जिसमे पानी उबाला जाता है और उस पर उससे छोटी कूरी जो केतरी का ही छोटा रूप होता है , रखी जाती है , जिसमे चाय की पत्ती होती है. साथ मे वहाँ की अलग अलग की तरह की मिठाइयाँ और ताज़े फल परोसने का बहुत चलन है. केतरी और कूरी को कश्मीर मे अलग नाम से जाना जाता है , काफी कुछ मिलते-जुलते रिवाज़ और खान-पान हैं. एक व्यंजन है जिसे ईरान में आब ए गुश्त कहा जाता है, कश्मीर मे गुश्ताबा कहा जाता है. कुछ व्यंजनों की कुछ तस्वीरें हैं जिन्हें देख कर किसी के भी मुहँ में पानी आ जाए.













तीन तरह की रोटी जिन्हें बारबरी, संगक और लवश कहा जाता है. कबाब और चावल सबसे प्रिय व्यंजन होते हैं. इसके अलावा हर प्रदेश के अपने अलग-अलग कई व्यंजन होते हैं. केसर और गुलाब जल से बनाई गई मिठाइयाँ इतनी स्वादिष्ट होती हैं कि खाए चले जाओ बस मुहँ में घुलती जाती हैं. भारत का काजू जिसे वहाँ बादाम ए हिन्द कहा जाता है सबसे ज्यादा लोकप्रिय है. अखरोट डाल कर कई व्यंजन बनाए जाते हैं. कैसपियन सागर की विशेष प्रकार की मछली स्वादिष्ट ही नहीं, सेहत के लिए भी अच्छी होती है. मछली के अण्डे खाने को मिल जाएँ तो और भी अच्छा. हर भोजन के साथ ताजे हरे पत्ते भी खाए जाते हैं. उत्तरी ईरान की खुशमज़ा गज़ा (स्वादिष्ट भोजन) ही नहीं , वहाँ की आबोहवा भी सेहत के लिए बहुत ही मुफीद है. एक बार जाना हो जाए तो बार-बार जाने का मन करता है.



भोजन के बाद संगीत का स्थान आता है. संगीत के प्रेमी बड़े ही नहीं छोटे-छोटे बच्चे भी होते हैं. भोजन के बाद जैसे ही संगीत की आवाज़ कानों मे पड़ती है , बच्चे, बूढ़े , जवान सभी के पैर थिरकने लगते हैं. मर्यादा के दायरों में रहकर जीवन की विषमताओं से जूझते हुए कुछ देर के लिए सब कुछ भुला कर जैसे वही कुछ पल जी लेते हैं.










क्या यह सच है !!

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