बहुत दिनों बाद आज दिल मे गहरा दर्द उठा, गला रुँध गया और आँसू आँखों से बाहर आने को मचलने लगे. सब धुँधला सा हो गया. कुछ देर मन को संयत करके बैठी लेकिन यादों का सैलाब बाँध तोड़ कर आँसुओं के ज़रिए बाहर आ ही गया. मेरे पिता जीवन के अंतिम दो साल अपनी आवाज़ खोकर जिए लेकिन अंत तक आवाज़ वापिस पाने का सपना लेकर चले गए . हमेशा अपनी जेब में छोटी सी नोटबुक और पेन रखते जो उनकी आवाज़ ही थी जो हम सब तक पहुँचती. 'बेबी, तुम्हारी कविताओं की किताब पढ़ना मेरा सपना है.' नोटबुक मे लिख कर दिखाते और ईशारों में कहते कि आवाज़ तो है नही इसलिए चुपचाप बैठ कर बस पढ़ने का आनन्द लूँगा.
संजीत त्रिपाठी जी के ब्लॉग पर उनके पिता जी की पुण्य तिथि पर उस महान आत्मा को श्रद्धाँजलि दी ही थी कि बोधिसत्व जी के ब्लॉग पर जाना हुआ. पिता जी की याद मे लिखी कविता "पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे" मर्म को छू गई या कहिए कि भेद गई. आज तक मन में ग्लानि है जिसे कभी बाहर नहीं निकलने दिया. मन को पत्थर सा कर लिया था. कैसे कहूँ कि मैं अपने ही मोह जाल में फँसीं पिता के हाथ को झटक कर वापिस रियाद लौट आई थी अपने परिवार के पास. चौबीस घण्टों में ही भाई अपने परिवार के साथ अमेरिका से दिल्ली पहुँच गया था. ऐयरपोर्ट से सीधा अस्पताल ही पहुँचा. नन्हे भतीजे को लेकर मैं अस्पताल के बाहर टैक्सी के पास ही खड़ी रही. पापा बेटे बहू को देख कर खुश हुए. आई सी यू में तरह तरह के यंत्रों से जकड़े होने पर भी मुख पर मुक्त हास आ गया था.
चार दिनों में ही दिखने लगा कि पापा यमराज को पछाड़ कर फिर से खड़े हो जाएँगें.
ई ई जी कराने के लिए अस्पताल के दूसरे कोने में जाना था सो पापा को स्ट्रैचर पर लेकर वहाँ पहुँचे. डॉक्टर के पूछने पर मेरे मुहँ से निकल गया कि पापा की उम्र 74 साल है, फिर क्या था न जाने उनके हाथों मे कहाँ से शक्ति आ गई कि मेरा हाथ पकड़ कर उसमे 64 जैसा लिखकर बताना चाह रहे थे कि मैं 74 का नहीं 64 का हूँ. ऑक्सीज़न मास्क में छुपे मुँह की बनावट से पता चल रहा था कि होंठ कुछ कहने को फड़फड़ा रहे हैं पर कह नहीं पा रहे हैं. मुस्करा कर फौरन मैने माफी माँगीं तो सिर हिला कर जैसे कह रहे हों कि आइन्दा ध्यान रखना.
हफ्ते में ही पापा आई सी यू से प्राइवेट कमरे में आ गए थे. तीनों बच्चों को आस-पास देख कर जीने की इच्छा और तेज़ होती दिखाई दे रही थी. उधर मेरे बच्चों का मन शायद नाना और माँ दोनो के बीच में झूल रहा था. मुझे याद करते लेकिन कह न पाते कि माँ वापिस लौट आओ. 17 मार्च 2002 का दिन भुलाए नहीं भूलता जब पापा ने मेरा हाथ पकड़ लिया और मूक भाव से न जाने की जैसे गुहार कर रहे हों. हाथ की मज़बूत पकड़ अब भी मैं महसूस कर सकती हूँ. भाई ने कहा, ' डैडी , अब तो मैं हूँ , आपका पोता है आपके पास' फिर भी पकड़ ढीली न हुई तो कहा, ' पापा , दीदी को जाने दो, दीदी के बिना वहाँ आपके दोते....., इतना सुनते ही पापा ने हाथ छोड़ दिया. मन पर पत्थर रख कर मैं वहाँ से निकल तो आई लेकिन दिल जैसे पीछे ही छूट गया.
दिल पर मन–मन भर के पत्थर लेकर रियाद अभी पहुँचीं थी कि दो दिन बाद ही खबर पहुँचीं कि पापा हमें छोड़ कर चले गए. 17 मार्च को पापा के हाथों की इतनी मज़बूत पकड़ 19 मार्च को ही ढीली हो जाएगी , सुनकर यकीन ही नहीं हुआ. जड़ सी हो गई.19 मार्च होली का दिन हमारे लिए क्या रंग लेकर आया. सभी रंग फीके से पड़ गए.
कई दिन तक मुझे होश ही नहीं था कि क्या हुआ. कैसे हुआ , क्यों हुआ... क्यों मैं अपने पापा का हाथ छुड़ा कर वापिस लौट आई !!
संजीत त्रिपाठी जी के ब्लॉग पर उनके पिता जी की पुण्य तिथि पर उस महान आत्मा को श्रद्धाँजलि दी ही थी कि बोधिसत्व जी के ब्लॉग पर जाना हुआ. पिता जी की याद मे लिखी कविता "पिता थोड़े दिन और जीना चाहते थे" मर्म को छू गई या कहिए कि भेद गई. आज तक मन में ग्लानि है जिसे कभी बाहर नहीं निकलने दिया. मन को पत्थर सा कर लिया था. कैसे कहूँ कि मैं अपने ही मोह जाल में फँसीं पिता के हाथ को झटक कर वापिस रियाद लौट आई थी अपने परिवार के पास. चौबीस घण्टों में ही भाई अपने परिवार के साथ अमेरिका से दिल्ली पहुँच गया था. ऐयरपोर्ट से सीधा अस्पताल ही पहुँचा. नन्हे भतीजे को लेकर मैं अस्पताल के बाहर टैक्सी के पास ही खड़ी रही. पापा बेटे बहू को देख कर खुश हुए. आई सी यू में तरह तरह के यंत्रों से जकड़े होने पर भी मुख पर मुक्त हास आ गया था.
चार दिनों में ही दिखने लगा कि पापा यमराज को पछाड़ कर फिर से खड़े हो जाएँगें.
ई ई जी कराने के लिए अस्पताल के दूसरे कोने में जाना था सो पापा को स्ट्रैचर पर लेकर वहाँ पहुँचे. डॉक्टर के पूछने पर मेरे मुहँ से निकल गया कि पापा की उम्र 74 साल है, फिर क्या था न जाने उनके हाथों मे कहाँ से शक्ति आ गई कि मेरा हाथ पकड़ कर उसमे 64 जैसा लिखकर बताना चाह रहे थे कि मैं 74 का नहीं 64 का हूँ. ऑक्सीज़न मास्क में छुपे मुँह की बनावट से पता चल रहा था कि होंठ कुछ कहने को फड़फड़ा रहे हैं पर कह नहीं पा रहे हैं. मुस्करा कर फौरन मैने माफी माँगीं तो सिर हिला कर जैसे कह रहे हों कि आइन्दा ध्यान रखना.
हफ्ते में ही पापा आई सी यू से प्राइवेट कमरे में आ गए थे. तीनों बच्चों को आस-पास देख कर जीने की इच्छा और तेज़ होती दिखाई दे रही थी. उधर मेरे बच्चों का मन शायद नाना और माँ दोनो के बीच में झूल रहा था. मुझे याद करते लेकिन कह न पाते कि माँ वापिस लौट आओ. 17 मार्च 2002 का दिन भुलाए नहीं भूलता जब पापा ने मेरा हाथ पकड़ लिया और मूक भाव से न जाने की जैसे गुहार कर रहे हों. हाथ की मज़बूत पकड़ अब भी मैं महसूस कर सकती हूँ. भाई ने कहा, ' डैडी , अब तो मैं हूँ , आपका पोता है आपके पास' फिर भी पकड़ ढीली न हुई तो कहा, ' पापा , दीदी को जाने दो, दीदी के बिना वहाँ आपके दोते....., इतना सुनते ही पापा ने हाथ छोड़ दिया. मन पर पत्थर रख कर मैं वहाँ से निकल तो आई लेकिन दिल जैसे पीछे ही छूट गया.
दिल पर मन–मन भर के पत्थर लेकर रियाद अभी पहुँचीं थी कि दो दिन बाद ही खबर पहुँचीं कि पापा हमें छोड़ कर चले गए. 17 मार्च को पापा के हाथों की इतनी मज़बूत पकड़ 19 मार्च को ही ढीली हो जाएगी , सुनकर यकीन ही नहीं हुआ. जड़ सी हो गई.19 मार्च होली का दिन हमारे लिए क्या रंग लेकर आया. सभी रंग फीके से पड़ गए.
कई दिन तक मुझे होश ही नहीं था कि क्या हुआ. कैसे हुआ , क्यों हुआ... क्यों मैं अपने पापा का हाथ छुड़ा कर वापिस लौट आई !!