विजय ऑफिस जाने से पहले ऑन लाइन
‘अरब न्यूज़’ पढते हैं...उनके जाते ही मैंने भी सोचा दिन शुरु करने से पहले 10-20 मिनट के लिए जीमेल देख लेती हूँ ....उस वक्त सुबह के सात बजे थे....जीमेल में मेल और बज़ दोनों ही जल्दी से देखने की सोची.... एक बज़ सन्देश पढकर दिल खुश हो गया...
अजय झा –
“ज़िन्दगी खूबसूरत नहीं होती....उसे खूबसूरत बनाया जाता है, मुस्कराहटों से, यादों से, सपनों से, दोस्ती से ....है न ??????”
इस खूबसूरत पंक्ति ने अतीत की कई खूबसूरत यादों के पन्ने खोल दिए....पिछले कई दिनों से ज़िन्दगी के केनवास पर बेरंग तस्वीर थी जिसे आज रंगीन यादों से खूबसूरत बनाने की कोशिश करने लगी...
सबसे पहली याद जो दिमाग में उतरी वह थी शादी की पच्चीसवीं सालगिरह.... ज़िन्दगी के पच्चीस साल कभी झरना बनके शोर करते हुए तो कभी नदी की टेड़ी मेड़ी धारा बन कर गुज़र गए...अब इच्छा है कि आगे के आने वाले साल शांत झील जैसे गुज़रें..... अब कैसे गुज़रेंगे यह कौन जान सकता है.....लेकिन इच्छा तो की जा सकती है....
हम दोनों पति पत्नी निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि पच्चीसवीं सालगिरह के लिए कहाँ मिले.... दिल्ली में जहाँ बड़ा बेटा नानी के पास है...या छोटा बेटा जो दुबई में है जिसे मिले हुए अरसा हो गया था.. वरुण को हमेशा लगता है कि उसकी वजह से छोटे भाई को अकेले रहना पड़ता है...उसने सुझाया कि हमें विद्युत के पास दुबई जाना चाहिए क्यों कि वह कॉलेज छोड़ कर आ नहीं सकता था....
विजय भी रियाद से निकलना चाहते थे...तय हुआ कि विजय रियाद से और मैं दिल्ली से दुबई पहुँचू... वरुण का फैंसला था कि वह नानी के पास ही रहेगा.....छोटे बटे को बता दिया गया कि सब उसके घर इक्ट्ठा हो रहे हैं...(उसका घर इसलिए कि अब वही ज़्यादा समय वहाँ रहता है) ...विजय रियाद से और हम दिल्ली से पहुँचे....अतिथि देवो भव की उक्ति सार्थक करते हुए ईरान से भी दोस्त आ गई जो हमारी सालगिरह के लिए ख़ास आई थी....साथ लाईं थी आफ़त का गोला नन्हा सा बेटा जो बड़ो बड़ो के कान काट दे..... लेकिन कहना होगा कि सालगिरह की रौनक वही था....
घर में रह कर सादगी से सालगिरह या जन्मदिन मनाने का अपना अलग ही आनन्द है...... आसपास दान के योग्य पात्र मिल जाएँ तो उससे बढिया सेलिब्रेशन नहीं होती... न पच्चीस साल का लेखा जोखा.. न तोहफों की माँग.....बस जो साथ थे...उनके साथ मिलकर खूब मस्ती की.... रियाद की एक दोस्त सपरिवार कनाडा से आई हुई थी अपनी बेटी को मिलने...हम दोनों के बच्चों में बचपन की दोस्ती अब तक कायम है......यासमीन और मैंने दस साल तक एक ही स्टाफरूम में बैठकर सुख दुख के कई पल एक साथ बाँटे थे.....और आज भी जब मौका मिलता है तो खूब बातें होती हैं....
लिडा के पति अली और विजय की दोस्ती ने न सिर्फ हम दोनों परिवारों को एक किया बल्कि हमारे माता पिता और भाई बहन भी एक दूसरे के परिवारों को अपना मानने लगे.... दोस्ती में विश्वास और प्रेम देश, धर्म और भाषा से कहीं ऊपर होता है.... उसी प्रेम और विश्वास के कारण ही हम रिश्तों को निभा पाते हैं....
सालगिरह की सुबह दोस्तों और रिश्तेदारों के फोन सुने...कुछ के एस.एम.एस का जवाब दिया.. विद्युत को पॉकेट मनी दी....आर्यन के मनपसन्द नाश्ते में आलू के परोठें बनाए गए......सोचा गया कि आज के दिन घर से बाहर नहीं निकलेंगे.....घर पर ही खाना-पीना...म्यूज़िक और गपशप का मज़ा लिया जाएगा.. शाम होते होते लिडा और आर्यन सैर करने के बहाने बाहर निकल गए .... वापिस लौटे तो एक् के हाथ में केक और दूसरे के हाथ में फूल थे.... बहुत अच्छा लगा देख कर.....!
नन्हें आर्यन के हाथों केक कटवाया गया.....केक काटने के बाद अब उसे हिन्दी और फारसी संगीत पर डांस करना था...खुद तो नाच ही रहा था...सबको नचा दिया....बच्चों की मासूम हरकतें....उनकी छोटी छोटी खुशियाँ उनकी आँखों में चमक पैदा कर देती हैं जिसकी रोशनी से हम भी चमकने लगते हैं.... एक साथ बैठ कर पुरानी यादों को सहेजना फिर संगीत की लय पर झूमना.... यही तो चाहिए था....खाना बाहर से मँगवा लिया था... ऐसे मौके पर हुक्का न हो तो सैलिब्रेशन जैसे पूरा ही नहीं होता.... (इसे आदत न बनने दिया जाए तो मस्ती है...) गुड़गुड़ की आवाज़ और धुएँ के छ्ल्लों में कुछ देर के लिए ज़िन्दगी की पेचीदगी गुम हो जाती है........ और संगीत तो जैसे संजीवनी का काम करता है...
पच्चीसवीं सालगिरह पन्द्रह दिन तक ऐसे ही मनाते रहे....विद्युत को भी एक हफ्ते की छुट्ठी हो गई थी....हम सभी रोज़ लिडा और् नन्हें आर्यन के साथ नई नई जगह तलाशते घूमने के लिए.... छोटा सा बच्चा आर्यन जानता था कि कैसे अपनी बात मनवानी है...नमस्ते करते हुए बस प्लीज़ कहता और जो उसे चाहिए, वह पा जाता... सबसे ज़्यादा उसी ने ही इन छुट्टियों में मस्ती की....पहली बार स्कूल जाने की तैयारी में खरीददारी भी उसी की हुई...
दुबई का जे.बी.आर(जुमैराह बीच रेज़िडैंस) हर तरह से लाजवाब लगा.... जहाँ आधी रात को भी जाओ तो दिन जैसा लगता है..सड़क के किनारे के रेस्तँरा में राहत के साथ बैठा जा सकता है क्योंकि कारें न धुँआ उगलती हैं और न ही हॉर्न बजाती हैं....धीरे धीरे रुक रुक कर राहगीरों को सड़क पार करने की राह देती हुई चुपचाप चलती रहती हैं....
कब पन्द्रह दिन बीते और लिडा के जाने का वक्त आ गया पता ही नहीं चला...लिडा ईरान के लिए निकली.... दो दिन बाद हम रियाद के लिए निकले क्यों कि गल्फ में नागरिकता मिले न मिले लेकिन छह महीने के अन्दर अन्दर वापिस उस देश में दाख़िल होना होता है.....तीन दिन रियाद रह कर फिर लौटे दिल्ली....
क्रमश: