महामारी के इस आलम में
मन पंछी सोचे अकुला के
छूटे रिश्तों की याद सजा के
ख़ुद ही झुलूँ ज़ोर लगा के
आए अकेले , कोई ना अपना
साथ निभाते भरम पाल के !
ख़ुद से रूठो ख़ुद को मना के
स्नेह का धागा ख़ुद को बाँध के
यादों का झोंका आकर कहता
मस्त रहो ख़ुद से बतिया के !!
मीनाक्षी धनवंतरि
4 टिप्पणियां:
खुद से रूठो खुद को मनाके
स्नेह का धागा खुद को बांधके
यादों का खोंका आके कहता
मस्त रहो खुद से बतियाके |
बहुत खूब मीनाक्षी जी ! पहली बार आपके ब्लॉग पर आई कुछ रचनाएँ देखी अच्छा लगा | हार्दिक शुभकामनाएं|
अगर -- यादों का झोंका आ [ आके नहीं ] कहता लिखेंगे तो और प्रभावी होगा |
शुक्रिया रेणु !
मनोहर रचना है Thanks You.
आपको Thanks you Very Much.
बहुत अच्छा लिखते हाँ आप
हम लगातार आपकी हर पोस्ट को पढ़ते हैं
दिल प्रसन्न हो गया पढ़ के
.
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