कब से बैठे हैं ये शब्द बेरोज़गार
ख्वाब दे कुछ इन्हें , इनको कुछ काम दे
खुख़री सी आवाज़ वाले फ़ौजी गौतम राजर्षि से पहली बार मिलने का सुखद अनुभव हुआ हालाँकि कश्मीर में आई बाढ़ के दिनों में चैट हुआ करती थी फिर भी आमने सामने मिलने की बात ही कुछ और होती है. उस  धारदार खरखरी आवाज़ में 'दीदी' सुन कर चरण स्पर्श करना अच्छा लगा हालाँकि मेले में मिलना भी कोई मिलना नहीं होता फिर भी मुझ जैसा सादा प्राणी कम को भी ज़्यादा समझ कर आनन्द ले लेता है. गौतम की किताब "पाल ले इक रोग नादाँ" के इंतज़ार की बदौलत कुछ देर और रुकना हो गया. आख़िरकार मेले से निकलते वक़्त वो भी मिल ही गई और जो अब पढ़ी जा रही है.
ख़्वाब जो भी बुना, वो बुना रह गया
उम्र बीती मगर बचपना रह गया
मिसरे, शेर, काफ़िए या फिर मुक्क़मल गज़ल हो उसके बनने में कानून कायदे का पूरा इल्म ना भी हो तो भी किसी भी किताब को पाठक अपने नज़रिए से पढ़ता समझता है. मेरे विचार में "पाल ले इक रोग नादाँ" की हर ग़ज़ल कई कहानियाँ कहती हुई सी लगती हैं. कई शेर मेरे दिल में उतर गए...कुछ का ज़िक्र यहाँ अपने ब्लॉग में दर्ज करने की इच्छा हुई.
" रोज़ाना ही ख़ून ख़राबा पढ़कर ऐसा हाल हुआ
      सहमी रहती मेरी बस्ती सुबहों के अख़बारों से"  
इस शेर को पढ़कर बड़े बेटे की याद आ गई जिसकी उम्र लगभग 9-10 साल की होगी जो टीवी में कई देशों में होती जंग और ख़ून ख़राबे को देख देख कर दुखी होता. उसका अबोध मन समझ ना पाता कि ऐसा क्यों होता है. एक दिन मेरे सामने दुनिया का नक़्शा रख दिया और  पूछने लगा, "मम्मी इस नक़्शे में देखो, बतायो यहाँ कौन सा देश है जहाँ लड़ाई नहीं होती, सब प्यार से रहते हैं ?"
धरा सजती मुहब्बत से , गगन सजता मुहब्बत से  मुहब्बत से ही खुशबू,  फूल, सूरज, चाँद होते हैं 
उस वक्त जवाब देते नहीं बना,  
बेटे के सवाल ने बेचैन कर दिया था ,  शाम होने तक 
प्रश्नचिन्ह ने कविता का रूप ले लिया लेकिन एक आशा की किरण के साथ मन भी सँभला. मासूम बचपन सब कुछ जल्दी से आत्मसात कर लेता है इसलिए बच्चों को सबसे प्यार करते हुए चलने को कहा फिर चाहे प्रकृति , जीव-जंतु होंं या इंसान !
न मन्दिर की ही घंटी से, ना मस्ज़िद की अज़ानों से
करे जो इश्क वो समझे जगत का सार चुटकी में 
काश हम समझ पाएँ कि जगत एक खूबसूरत सपने सा है जिसे जितना प्यार और मुहब्बत से जिया जाएगा उतना 
ही आनन्द होगा जीवन में. मन में बहने वाले प्रेम की नदी उसमें सागर जैसा हौंसला भर देती है तभी तो वह विपरीत परिस्थितियों में भी सीमा पर डटा रहता है.
ऐसा इश्क का बीज पड़ा  हुआ के 
 
अजब हैंग ओवर है सूरज पे आज 
 
ये बैठा था कल चाँदनी बार में 
 
सीमा का प्रहरी अपने देश का रखवाला है लेकिन एक इंसान पहले है जो देश के लिए मर मिटने का हौंसला 
रखता है तो उस पार के दुश्मन को मरते हुए देख कर भी विचलित हो जाता है. मरता हुआ सैनिक सोचता होगा 
कि क्या जंग से किसी समस्या का समाधान हो सकता है.
 
मुट्ठियाँ भींचे हुए कितने दशक बीतेंगें और 
 
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से
 
चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से 
 
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से
 
 कभी कभी फौजी का मन अपने देशवासियों से कुपित होकर सवाल भी करता, उसे लगता है कि 
दूर कहीं कोई उसे याद भी करता है कि नहीं. उसका मन तो एक छोटी सी याद बन कर दिलों में बस जाना चाहता है. 
तेरे ही आने वाले महफ़ूज़ ‘कल’ की ख़ातिर
 
मैंने तो हाय अपना ये ‘आज’ दे दिया है
 
घड़ी तुमको सुलाती है, घड़ी के साथ जगते हो
 
ज़रा सी नींद क्या है चीज़ पूछो इस सिपाही से
 
  
फौजी गौतम का कवि मन पूरे जीवन को अन्दर बाहर से समझना समझाना चाहता है इसलिए किसी भी विषय को चित्रित करने से घबराता नहीं. 
चलो चलते रहो पहचान रुकने से नहीं बनती 
 
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है 
 
‘यूँ ही चलता है’ ये कह कर कब तलक सहते रहें
 
कुछ नए रस्ते , नई कुछ कोशिशों की बात हो
 
मुझे आज भी लेखन में छायावाद मोहता है, गौतम ने बड़े प्यार और मस्ती से निडर होकर नए निराले बिम्ब इस्तेमाल किए हैं जो सीधे दिल में उतर जाते हैं. 
उबासी लेते सूरज ने पहाड़ों से जो माँगी चाय 
 
उमड़ते बादलों की केतली फिर खौलती उट्ठी 
 
भला कैसे नहीं पड़ते हवा की पीठ पर छाले 
 
पहाड़ों से चहलबाज़ी में बादल का कुशन गुम है 
 
सुलगते दिन के माथे से पसीना इस कदर टपका 
 
हवा के तपते सीने से उमस कुछ हाँफती उट्ठी 
 
मौत से आँख मिला कर चलने वाला वीर कभी भावुक होकर अपने घर परिवार की यादों में गुम हो जाता है. कभी बूढ़े पिता की याद आती तो गली कूचे और उनसे जुड़ी मोहक यादों में खो जाता.
घर आया है फ़ौजी जब से थमी है गोली सीमा पर 
 
देर तलक अब छत के ऊपर सोती तान मसहरी धूप 
 
बाबूजी हैं असमंजस में, छाता लें या रहने दें
 
जीभ दिखाए लुक छिप बादल में चितकबरी धूप
 
बरस बीते गली छोड़े मगर है याद वो अब भी 
 
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली
 
कभी पिता बन कर बेटी का मोह जाग उठता और उसके साथ बिताए पल याद आने लगते. 
अपने शहीद साथी की बड़ी होती बेटी की चिंता सताने लगती. 
क्यूँ खिलखिलाकर हँस पड़ा ‘झूला’ भला वो लॉन का
 
आई ज़रा जब झूलने को एक नन्हीं सी परी 
 
झीने से लगने लगे घर के उसे सब पर्दे 
 
बेटियाँ होने लगीं जब से सयानी उसकी 
 
बिन बाप के होती हैं कैसे बेटियाँ इनकी बड़ी 
 
दिन रात इन मुस्तैद सीमा प्रहरियों से पूछ लो 
 
कभी आशा का संचार करता हुआ निराश मन को समझाता है जाने कितने पाठक एक मिसरे को ही पढ़ कर 
जीने का नई राह पाते होंगे.
नन्हा परिन्दा टह्नियों पर जो फुदकता है अभी 
 
छुएगा इक दिन उड़ के वो अम्बर भले कुछ देर से 
 
हो हौसला तो डूबती कश्ती को भी साहिल तलक 
 
ले जाता है उम्मीद का सागर भले कुछ देर से
 
कुछ काफ़िए ऐसे भी जिनसे अतीत के कई पन्ने फिर से याद आने लगे तभी तो यह कहना सही लगता है कि हर पढ़ने वाला अपने नज़रिए से किसी भी लिखे पर एक खत्म न होने वाली बहस कर सकता है. 
दिल थाम कर उसको कहा ‘हो जा मेरा!’ तो नाज़ से
 
उसने कहा “पगले ! यहाँ पर कौन कब किसका हुआ?”
 
हर्फ़ों की ज़ुबानी हो बयाँ कैसे वो क़िस्सा
 
लिक्खा न गया है जो सुनाया न गया है
 
पराक्रम पदक से सम्मानित कर्नल गौतम का जितनी बहादुरी से गोली का साथ रहा उतनी ही शिद्दत से गज़ल कहने में महारत हासिल की. 
गिरे , फिर उठे, मुस्कुरा कर चले 
 
कभी मौत पर गुनगुना कर चले 
 
लगता है जैसे बहुत कुछ लिखना रह गया हो, एक बार और पढ़ना होगा... एक बार और लिखना होगा तब तक 
के लिए इतने लिखे को ही बहुत माना जाए. 
मीनाक्षी D