सागर की लहरों से बतियाती
रेत पर लकीरें खींचती पीठ करके बैठी
कोस रही थी चिलचिलाती धूप को
सूरज की तीखी किरणें तीलियों सी चुभ रहीं थीं
हवा भी लापरवाह अलसाई हुई कहीं दुबकी हुई थी
बैरन बनी चुपके से छिपकर कहीं से देख रही होगी
सूरज के साथ मिल कर मुझे सता कर खुश होती है
पल भर को मैं डरी-सहमी फिर घबरा के सोचा
क्या हो अगर धूप और हवा दोनों रूठ जाएँ
दूसरे ही पल चैन की साँस लेकर सोचा मैंने
सूरज, चाँद , सितारे , हवा और पानी सब
जब तक साँस है तब तक सबका साथ है
जन्म-जन्म के साथी निस्वार्थ भाव से
करते हम सबको
प्यार बिना शर्तों के !
2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर रोचक पोस्ट ...
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 16 जुलाई 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
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