सुबह उठते ही हम पति-पत्नी में से कोई न कोई लैपटॉप ऑन कर देता है. सवेरे के संगीत में या तो श्लोक-मंत्र होते हैं या कोई वाद्य यंत्र, हर रोज़ के मूड के साथ यह भी बदलता रहता है.
उसके बाद ही दिनचर्या शुरु होती है जिसके साथ-साथ लैपटॉप पर जीमेल, फेसबुक, यूटयूब और टिवटर के चार पन्ने खुल जाते हैं. 6 से 7 बजे तक विजय तैयार होने के साथ साथ फेसबुक या टिवटर के ज़रिए किसी न किसी पोस्ट को पढ़ते हैं जिस पर कभी बहस तो कभी बातचीत होती है.
कई बार परिवार के संदेश पढ़कर ही मन खुश हो जाता है और उन्हीं की बातें करते हुए सुबह बीत जाती है.. विजय ऑफिस निकल जाते हैं और मैं फिर से अपने घर की दुनिया में तन्हा हो जाती हूँ ..सोचती हूँ अगर इंटरनेट न होता तो क्या होता. किताबें अगर पहुँच के बाहर हों तो नेट पर पढ़ने के लिए बहुत कुछ है....लिखने से ज़्यादा पढ़ना मेरी कमज़ोरी है. पढ़ते वक्त जो सीधे सीधे दिल में उतर कर दिमाग़ को बेसुध कर देता है वही लेखन मुझे अपनी ओर आकर्षित करता है.
अचानक एक ख़्याल आया कि शब्द और उनके भाव मन में जो तूफ़ान पैदा करने लगते हैं उनकी लहरों को बहने के लिए एक नई राह मिले इसके लिए मुझे अपने ब्लॉग़ पर वह सब उतार देना चाहिए...उस वक्त जो महसूस हो उसे ईमानदारी से दर्ज किया जाए तो मन शान्त हो. पहली बार अंग्रेज़ी का शीर्षक इस्तेमाल करने से भी अपने को रोक नहीं पा रही... Beautiful words run through my veins..हालाँकि हिन्दी में भी लिखा जा सकता है "खूबसूरत शब्द मेरी रग़ों में दौड़ते हैं" इस विषय पर अगर कोई पाठक कुछ कहे तो आसान हो जाए.
(कुछ दिन पहले हथकढ़ में अमित के बारे में पढ़ा और लिखा था लेकिन आज शांत मन से पोस्ट कर पा रही हूँ )पहली बार जब हथकढ़ ब्लॉग पर गई थी तो नीचे लिखी पंक्तियों को पढ़कर लगा कि जैसे मैं एक ऐसी जगह पहुँच गई हूँ जहाँ कच्ची शराब जैसे विचारों की खुशबू से एक अजब सी मदहोशी छा रही हो...एक एक शब्द शराब के घूँट सा दिल में उतरता है..कभी तीखा कसैला तो कभी फीका और कभी शहद सी मिठास लिए ....दूसरी तरफ अरब के रेगिस्तान ने अपने देश के रेगिस्तान को भूलने नहीं दिया उसका खुमार अलग था... फिर तो एक के बाद एक कितने ही पड़ाव उस नशे में पार कर लिए...
हथकढ़, कच्ची शराब को कहते हैं. कच्ची शराब एक विचार की तरह है. जिसका राज्य तिरस्कार करता है और उसे अपराध की श्रेणी में रखता है. वह अपने जड़ होते विचारों के साथ जीने की शर्तें लागू करता है. मेरे पास भी विचार व्यक्त करने का कोई अनुज्ञापत्र नहीं है. इस ब्लॉग पर जो लिखता हूँ, वह एकदम कच्चा और अनधिकृत है. मेरे लिए ये नमक का कानून तोड़ने या खूबसूरत स्त्री को इरादतन चूमने जितना ही अवैध है.
रेत के समंदर में बेनिशाँ मंज़िलों का सफ़र है. अतीत के शिकस्त इरादों के बचे हुए टुकड़ों पर अब भी उम्मीद का एक हौसला रखा है. नौजवान दिनों की केंचुलियाँ, अख़बारों और रेडियो के दफ्तरों में टंगी हुई है. जाने-अनजाने, बरसों से लफ़्ज़ों की पनाह में रहता आया हूँ. कुछ बेवजह की बातें और कुछ कहानियां कहने में सुकून है. कुल जमा ज़िन्दगी, रेत का बिछावन है और लोकगीतों की खुशबू है.
पिछले दिनों अमित की कहानी पढ़कर सारा नशा हिरन हो गया... एक के बाद एक पोस्ट पढ़ते हुए दिन से शाम हो गई ... शब्द ज़िन्दा होकर जैसे मुझे कभी राजस्थान तो कभी मुम्बई ले जाते...सब कुछ जैसे मेरे सामने ही घटित हो रहा था.... अमित और किशोर के साथ मैं भी उनके पीछे पीछे स्कूल से कॉलेज फिर राजस्थान से मुम्बई की ज़िन्दगी की कठोर सच्चाई का सामना कर रही थी मूक और जड़ सी होकर...
हम सब कुछ नहीं हैं. ये दुनिया फ़ानी है.
मेरा मन कच्ची शराब का कारखाना है. तेज़ गंध वाली, तीखी और गले की नसों को चीरने की तरह चूमती हुई उतरती शराब बुनता है. ये शराब उदासी के सीले रूई पर तेज़ाब की तरह गिरती है. एक धुआँ सा उठता है. इस कोरे ख़याल में मन खो जाता है कि उदासी खत्म हो रही है. जल रहा है सब कुछ जो ठहरा हुआ और भारी था. जिसके बोझ तले सांस नहीं आती थी----
(एक एक शब्द कच्ची शराब के तीखे घूँट सा दिल को चीर रहा है...)
मेरा मन एक जादूगर का थैला है. मैं उसमें से शराबी खरगोश निकालता हूँ. शराबी खरगोश के फर से बन जाती है एक नन्ही बुगची. उसमें रखा जा सकता है इस भुलावे को कि खरगोश ज़िंदा है.
अमित की लिखावट सबसे खराब थी मगर उसकी लेखनी में जीवन बसता था वह सबसे अधिक सुन्दर था.
ये कहानी जहाँ छपेगी उसके साथ मुझे मानू की तस्वीर चाहिए. तुम्हारा प्रेम जो बेलिबास था उसे सब पागलपन समझते थे. (अमित की नन्हीं बिटिया की याद आ गई...)
दुकान के आगे बबूल के नीचे एक घड़ा मिटटी में दबा रहता था. ये लोकल फ्रीज़ का काम करता था. जो भी आता दो रुपये देकर एक लोटा शराब पी सकता था. बच्चन की मधुशाला जो भेद मिटाती है, वही पावन कार्य उगम जी के यहाँ हुआ करता था.
गफ़ूर एक निहायत शरीफ और सीधा सादा लड़का हुआ करता था. उसका खाना पीना रहना सब एक जैनी के यहाँ होता था. जबकि तीस साल बाद आज भी रुढियों और बेड़ियों में जकड़े हुए समाज में, ये किसी जैनी के बस की बात न होगी कि वह किसी मुस्लिम को अपने घर में बच्चे की तरह रख सके. धारीवाल सर मेरे लिए ज़िंदा भगत सिंह थे.
(काश ऐसी कोई जादुई शक्ति सारी दुनिया को उन जैसा बना दे)
ये सख्त बापों का ज़माना था. सारे बाप इस होड़ में थे कि वे सख्ती में एक दूसरे से आगे निकल सकें. सारी औलादें इस धरती पर उपलब्ध अतुलनीय ज्ञान से जानबूझकर वंचित रखी जा रही थी. जो बाप पीटते नहीं थे वे इस तरह देखते थे जैसे पीट रहे हों.
( ऐसे पिता की संतान या तो बन जाती है या पूरी तरह से बिगड़ जाती है)
ऐसा लगता था कि जिस तरह सामंतों ने मंगणियारों जैसी जिप्सी गायक कौमों का संरक्षण किया उसी तरह अमित आगे चलकर साहित्य का संरक्षक बनेगा. वह मेरा दुष्यंत कुमार था और वही दिनकर भी. लेकिन इस सब से बढ़कर वह सिनेमा का अद्भुत स्क्रिप्ट रायटर स्टीव मार्टिन और एडम मैके लगता था.
मगजी माडसाब को प्रिंसिपल साहब ने किसी बात पर कहा कि मिठाई खिलाओ. वे बाहर आए और महिला चपड़ासी को कहा कि बाई जी आपको प्रिंसिपल साहब बुला रहे हैं. बाई जी अंदर गयी. प्रिंसिपल साहब ने कहा कि मैंने तो नहीं बुलाया है. वास्तव में उन बाई जी का नाम था इमरती देवी. लेकिन मगजी इमारती देवी को प्रिंसिपल साहब को और बच्चों को खूब प्रिय थे.
(स्कूल की ऐसी अनगिनत मीठी यादें हमेशा साथ रहती हैं)
उसने बस के रवाना होने से पहले मेरे हाथ में एक पर्ची रखी. जब बस चली गयी और मैं घर आया तब मैंने उसे पढ़ा. उसमें लिखा था- क़यामत से कम यार ये ग़म नहीं/ कि मैं और तूँ रह गए हम नहीं.
(कितने दूर हो जाएँ लेकिन स्कूल की दोस्ती ताउम्र साथ रहती है)
अपने जिले के कई गांवों में किसानों के साथ रात बिताता और समझना चाहता कि असल माजरा क्या है. रोटी उगाने वाला खुद भूखा क्यों है?
(इस सोच के लिए आपको ढेरों शुभकामनाएँ )
लाखों सपने देश के कोनों से चलकर आते हैं और बोम्बे में आखिरी सांस लेते हैं.
अमित स्वेच्छा से चक्रव्यूह में अपने पाँव रख चुका था और उसके लौटने का खेल शुरू होने से पहले ही उसके अपनों ने घेरा कसना शुरू कर दिया था.
(काश इंसान पंछियों से सीख पाता कि कोमल पंखों के होने पर भी जन्मदाता उन्हें उड़ान भरने के लिए हौंसला देते हैं न कि अपने डैनों में उम्र भर के लिए छिपा कर रखते हैं)
मेरा प्रेम मेरे जन आंदोलन ही थी. अमित का प्रेम था फ़िल्मी संसार.
( पसन्द अलग होने पर भी दो लोग साथ रह सकते हैं )
अमित जिस माँ कि कहानी लिखता था, उसी को खो देने के डर से बाड़मेर आया. आते ही गिरफ्तार कर लिया गया.
इसी दबाव में अमित मर गया. उसने नींद की गोलियाँ खाकर आत्मा हत्या कर ली.
पन्द्रह दिन बाद मुझसे मिला. कहने लगा- मौत ने धोखा दिया. माँ का रोना देखा नहीं जाता. भाइयों की बेरुखी पर अफ़सोस होता है. पिताजी बात करते नहीं. मैं अब कारखाने में रणदा लगाऊंगा. ट्रकों की बॉडी बनाऊंगा.
(इतना पढ़ते ही कलेजा मुँह को आ गया...ऐसी बेबसी जीना मुहाल कर देती है ..इस घुटन को कोई नहीं समझ सकता)
एक ही फ्लेट में आठ दस कामगार, युद्ध बंदियों की तरह काल कोठारी सा जीवन बिता रहे थे. उनके जीवन का ध्येय लकड़ियाँ छीलते जाना ही बचा रह गया था. वे सुथार कभी कभी अपना रणदा और आरी छोड़ कर अपनी देह की भूख मिटाने के लिए गणिकाओं की चौखट पर रोमांच तलाश आते थे.
(खाड़ी के देशों के अनगिनत कामगार याद आ गए, उनकी हालत और भी बदतर है क्योंकि वे विदेश में होते हैं)
अट्टालिकाओं के शहर से बिछड़ कर अमित एक बार फिर रेगिस्तान की गलियों में था.
हुनर के कत्लखाने बोम्बे में वह कितना कामयाब होता ये नहीं मालूम मगर वह अपनी पसंद का जीवन जीते हुए आधे सच्चे आधे बाकी ख्वाबों के साथ अंतिम साँस ले सकता था. –
(जन्मदाताओं को यह बात अगर समझ आ जाए तो कई जीवन नष्ट होने से बच जाएँ)
इस तरह अट्टालिकाओं के ख्वाब देखने वाला आदमी एक चार गुणा छः की जगह में स्वेच्छा से खुद को कैद कर चुका था.
( अमित को जीवन के इस मोड़ पर खड़े देख कर दिल डूब गया)
अमित ने ग्राम सेवक के रूप में जो ग्रामीण जीवन अपनाया था वह उसी ग्राम्य जीवन की चालबाजियों का शिकार हो गया. जिस गाँव में उसकी पोस्टिंग थी वहाँ के सरपंच ने अमित को अफीम की लत लगा दी.
( शहर हो या गाँव हर जगह ऐसे दुष्ट लोग मिल जाएँगें)
दो नाम है सिर्फ इस दुनिया में एक साक़ी का एक यज़दां का
एक नाम परेशा करता है एक नाम सहारा देता है.
दो नाम है सिर्फ इस दुनिया में एक साक़ी का एक यज़दां का
एक नाम परेशा करता है एक नाम सहारा देता है.
मुझसे कभी नहीं कहता था कि तुम पियोगे? इसलिए कि वह बरसों से जानता था कि मैं इस तरह राह चलते हुए कभी शराब न पी सकूंगा. मेरे घर में शराब टेबू नहीं रही. मेरे पुरखे शराब को बड़े कायदे से पीते थे.
(इस बात को अगर आज के अभिवावक भी समझ लें तो अपने बच्चों की ज़िन्दगी को और भी आसान बना सकते हैं..)
अमित के पास से लौटते हुए हम दोनों बेहद उदास और चुप थे. हमारे अंदर उसके इस हाल के प्रति जिनती सहानुभूति थी उतना ही गुस्सा भी था. जिन तीन साल उसने ज़िन्दगी को संवारने की लड़ाई लड़ी थी. वे तीन साल कहीं दिख नहीं रहे थे. एक बियाबां उग रहा था. सपनों के दरख़्त तल्ख़ सच्चाई की कड़ी धूप तले झुलस चुके थे.
वो कुछ नहीं था. मैं कुछ नहीं हूँ. हम सब कुछ नहीं हैं. ये दुनिया फ़ानी है. ये फ़ानी होना ही ज़िंदगी होना है. ये ज़िंदगी एक तमाशा है. ये तमाशा एक धोखा है. ये धोखा एक भ्रम है. ये भ्रम एक अचेतन का देखा हुआ दृश्य है. इस दृश्य में, इस इल्यूजन में मगर मेरी आँख से ये जो आंसू अभी टपक पड़ा है, ये क्या है?
एक तड़प, एक गहरी डूबी आह, एक साबुत रुदन कितना होता है? --
( तड़प, आह और रुदन से जन्में आँसू तेज़ाब से कम नहीं जो मेरी आँखों और गालों को जला रहे हैं...आज जाने कैसे पहुँची उस रेगिस्तान में जहाँ हथकड़ की कच्ची शराब दबी थी ज़मीन के नीचे कच्चे घड़े में जिसे पूरे का पूरा एक ही बार में खतम कर दिया....नशा नहीं हुआ लेकिन उसका तीखापन जलन और गंध कई दिनों तक अन्दर तक जलाती और सताती रहेगी...काश कि आने वाली संतानें अपनी इच्छा से जीवन की राह चुन सकें.. ईश्वर से विनती है कि अमित की संगिनी और संतान को इस असीम दुख को सहने की शक्ति मिले..)
क़ैद ए हयात ओ बंद ए ग़म असल में दोनों एक है
क़ैद ए हयात ओ बंद ए ग़म असल में दोनों एक है
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों
1 टिप्पणी:
सार्थक आलेख.......बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@
आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया(नई रिकार्डिंग)
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