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शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

लघु कथा - महिला सम्मान


तेज़ बुख़ार में तपती मुन्नी निशा की गोद से उतरती ही न थी... दो दिन से मुन्नी बीमार है लेकिन रमन के पास वक्त ही नहीं है उसे अस्पताल ले जाने का .... दूर दूर तक कोई छोटा मोटा क्लिनिक भी नही है कि जहाँ निशा खुद ही रिक्शा करके बेटी को ले जाए... आज दिन भर मुन्नी गोद से उतरी ही नहीं थी....घंटो तक ठंडे पानी की पट्टियाँ करती रही थी...अब साँझ होते होते बुखार कुछ कम हुआ था और उसकी आँख लगी थी.

निशा का दिल धड़कने लगा था कि रमन के आने का वक्त हो गया है.. अभी दाल चढ़ानी है कुकर में... आटा गूँदना है... सब्ज़ी तो है नहीं पकाने के लिए.... मुन्नी को बिस्तर पर लिटा कर निशा किचन में जाते जाते पिछले दरवाजे तक चली गई कि कुकर की सीटी से मुन्नी उठ न जाए ... पड़ोसन सविता को पिछवाड़े के आँगन से आवाज़ देकर पूछा कि रात के लिए उसने क्या बनाया है.... सविता शायद समझ गई पहले ही मूँग दाल और आलू गोभी की सब्ज़ी के दो डोंगे भर कर ले आई... सविता एक अच्छी पड़ोसन ही नहीं निशा की पक्की सहेली भी है... दोनो एक दूसरे के सुख दुख की भागीदार हैं..

निशा की मुस्कान ने ही धन्यवाद कह दिया ... जल्दी से दोनों डोंगे लेकर निशा किचन की ओर बढ़ी ... अभी दोनों डोंगे रखे ही थे कि डोरबेल बज उठी...भागती हुई रमन के लिए दरवाज़ा खोलने गई...दरवाज़ा खोलते ही गुस्से से भरा रमन उसपर चिल्लाया कि इतनी देर क्यों लगा दी दरवाज़ा खोलने में.. .निशा कुछ कहती उससे पहले ही रमन का वज़नदार हाथ उसकी पीठ पर पड़ा .... घुटती हुई चीख को दबाते हुए किचन की ओर भागी आटा गूँदने के लिए कि कहीं रमन का गुस्सा कहर बन कर न टूट पड़े ... 

दर्द को पीते हुए आटा गूँदने लगी कि फिर से पीठ पर किसी तेज़ अंगारे को अन्दर तक जाते हुए महसूस किया...अभी आटा गूँद रही हो और मैं भूख से मर रहा हूँ,,  कहते हुए रमन ने इतनी बेरहमी से सुलगती सिगरेट को निशा की पीठ पर दागा कि उसकी चीख निकल गई ... उधर मुन्नी को रोने की आवाज़ और इधर रमन की ऊँची आवाज़ ने उसके दर्द को और बढ़ा दिया और वह चक्कर खाकर गिर गई....
तेज़ बुख़ार में तपती मुन्नी के कारण वह भूल गई थी कि आज रमन को महिला सम्मान और उसकी सुरक्षा से जुड़ी रिपोर्ट तैयार करके अगले दिन कई अलग अलग आयोजनों में भाषण देना था.....निशा बस इतना ही सुन पाई कि रमन भूख और थकावट से बेहाल है........!!  

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

काली होती इंसानियत....



अन्धेरे कमरे के एक कोने में दुबकी सिसकती
बैठी सुन्न सहम जाती है फोन की घंटी से वह

अस्पताल से फोन पर मिली उसे बुरी खबर थी
जिसे सुन जड़ सी हुई वह उठी कुछ सोचती हुई

एक हाथ में दूध का गिलास दूसरे में छोटी सी गोली
कँपकँपाते हाथ ...थरथर्राते होंठ , आसुँओं से भीगे गाल

नन्ही सी अनदेखी जान को कैसे बचाएगी इस जहाँ से
खुद को  बचा न पाई थी उन खूँखार दरिन्दों से....

कुछ ही पल में सफ़ेद दूध ....लाल हुआ फैलता गया
एक कोने से दूसरे कोने तक टूटे गिलास का काँच बिखरा
और  फ़र्श धीरे धीरे लाल से काला होता गया....

शायद इंसानियत भी ....... !!!

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

सूरज और पौधे




सूरज

आसमान से नीचे उतरा
धरती के आग़ोश में दुबका
ध्यान-मग्न पौधों का ध्यान-भंग करता
हवा के संग मिल साँसे गर्म छोड़ता

पौधे

एक पल को भी विचलित न होते
झूम-झूम कर फिर से जड़ हो जाते...
फिर से होकर लीन समाधि में
सबक अनोखा सिखला जाते 


गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

18 महीने बाद 18 अप्रेल को एक बार फिर नमस्कार ......

 यहीं अपने इस घर में किसी कोने में ध्यानमग्न बैठी थी  जैसे.....लगता ही नहीं कि मैं 18 महीने बाद लौटी हूँ .... इन दिनों इतना कुछ  हुआ ...हिसाब लगाने लगूँ तो कई कहानियाँ बन जाएँ ....

कीबोर्ड पर थिरकती उंगलियाँ कुछ कम ज़्यादा अंतराल में थिरकतीं रहीं लेकिन बन्द कमरे में.... मतलब यह कि ड्राफ्ट के रूप में कैद ..... उन्हें आज ब्लॉग जगत के खुले आसमान में उड़ने को छोड़ दिया....
19 नवम्बर 2011 सफ़र नया शुरु हुआ.... दिल्ली के लिए निकले 'सफ़र' शब्द के साथ एक पोस्ट को अंजाम देते हुए जो ड्राफ्ट में बस उसी शब्द के साथ रुकी रही....



12 मई 2012 को एक नई कोशिश के साथ बस इतना ही लिखना जुटा पाई कि शब्द शराब बन उतरते हैं दिल औ' दिमाग़ में .... भावों का नशा चढ़ता है तो उतरता नहीं............ 


28 मार्च 2012 की शाम फिर हाथ आया वक्त और ब्लॉग जगत को नमस्कार कहने आ पहुँचे....उस नमस्कार को भी कैद ही रखा..... 


17 जून 2012 को जाने क्यों डैडी की याद आ गई..... बस यूँही बेतुकी सी चाहत जाग उठी कि काश उनसे वीडियो चैट हो पाए तो कैसा हो......क्या आने वाले वक्त में ऐसा मुमकिन होगा कि मैं 'वहाँ' से यहाँ चैट कर पाऊँगी अपनों से........... 


26 मार्च 2013 बैठी थी सात समुन्दर पार ... बेचैन था मन ...कोई अपना बीमार था बड़ा.... बस जी चाहा कि कुछ दो चार शब्दों के साथ मिल बैठूँ फिर एक बार....... 



यह तो हुई चर्चा पिछले 18 महीनों में लिखे कुछ भावों की..... लिखा लेकिन पोस्ट नहीं किया.....लिखा उन पर भी नहीं जिन्हें कभी कभार पढ़ा ब्लॉग जगत में आकर ..... 
फेसबुक जिसे कहती हूँ 'चेहरा पुस्तक' वहाँ परिवार के कारण ज़्यादा आना-जाना रहा.... एक क्लिक 'लाइक' से  ही काम चल जाता है ..... 
 लेकिन इस  बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ब्लॉग की अपनी महत्ता है...
खासकर हिन्दी ब्लॉग जगत में आजकल की गतिविधियों से तो यही प्रमाणित होता है... 
The Bobs awards के बारे में सुना फिर पढ़ा भी जो DW के प्रतिनिधि के रूप में दुनिया की कई भाषाओं के ब्लॉगज़ के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व दिखाँएगें.... 

DW-- Deutsche Welle means in english 'German Wave'. DW is Germany's International broadcaster. 
वक्त नहीं है इनका अनुवाद करने का लेकिन दोनों लिंक पढ़ने के बाद लगा कि बॉब्ज़ एवार्ड के लिए किसी भी ब्लॉग को चुनने के लिए इनके बारे में जानकारी लेना ज़रूरी लगा....

फिर पहुँचे अपने ब्लॉगजगत जहाँ  चिट्टाचर्चा पर पहले नज़र गई क्यों .....क्योंकि कभी हम भी चर्चा किया करते थे वहाँ ......... नारी ब्लॉग को फेसबुक के माध्यम से तो चोखेरबाली को टिवटर के माध्यम से वोट दे आए... 
हिन्दी भाषा का प्रचार और उस पर नारी से जुड़े ब्लॉगज़..... बस इतनी ही समझ समझिए..  
वक्त अभी मुट्ठी में था इसलिए एक और ब्लॉग पर गए.... पढ़ने को वहाँ बहुत कुछ था ...पढ़ा भी .. मन ही मन चिंतन भी किया लेकिन जो कविता पसन्द आई ...पसन्द ही नहीं बेहद पसन्द आई उसके शब्द और उनमें छिपे भाव बहुत कुछ कह जाते हैं बस समझने की ज़रूरत है....... 

शब्दों के भी
होते हैं सींग
तभी तो कुछ शब्द
बहुत मारते हैं डींग
जी हां
शब्दों के भी होते हैं सींग
पैने-पैने नुकीले सींग
कलेजे में घुस जाते हैं तो
कलेजा फाड़ देते हैं
लहू-लुहान हो जाती हैं सम्वेदनायें
दम तोड़ देते हैं संस्कार
और वे सींग
प्रेम को घृणा की ज़मीन में कहीं गहरे गाड़ देते हैं।
फिर भी,
आपने उगा रखे हैं ये सींग
अरे!
जु़बान पर भी लगा रखे हैं सींग
माना कि
इन सींगों से आप
बड़े-बड़े काम करते हैं
क्योंकि
इनसे इज्जतदार
बहुत डरते हैं
पर सोचो,
कभी जुबान पर लगे ये सींग
गले के रास्ते
अपने ही भीतर उतर गये तो
अपने आपसे डर गये तो!
सच जानिये
ऐसे में आप
खुद से भी मिल नहीं पायेंगे
खून की तरह बिखर जायेगा वजूद
जिसे आप समेट नहीं पायेंगे
इसलिये,
रच सकते हो तो
जुबान पर
मिश्री की अल्पना रचो,
और शब्दों को सींग बनाने से बचो।
डा.कमल मुसद्दी
प्रवक्ता राजकीय आयुध निर्माणी इंटर कालेज,अर्मापुर
सद्य प्रकाशित और दिनांक २९.०४.०७ को लोकार्पित
कविता संग्रह कटे हाथों के हस्ताक्षर से साभार!