अन्धेरे कमरे के एक कोने में दुबकी सिसकती
बैठी सुन्न सहम जाती है फोन की घंटी से वह
अस्पताल से फोन पर मिली उसे बुरी खबर थी
जिसे सुन जड़ सी हुई वह उठी कुछ सोचती हुई
एक हाथ में दूध का गिलास दूसरे में छोटी सी गोली
कँपकँपाते हाथ ...थरथर्राते होंठ , आसुँओं से भीगे गाल
नन्ही सी अनदेखी जान को कैसे बचाएगी इस जहाँ से
खुद को बचा न पाई थी उन
खूँखार दरिन्दों से....
कुछ ही पल में सफ़ेद दूध ....लाल हुआ फैलता गया
एक कोने से दूसरे कोने तक टूटे गिलास का काँच बिखरा
और फ़र्श धीरे धीरे लाल से
काला होता गया....
शायद इंसानियत भी ....... !!!
4 टिप्पणियां:
दुखद .... गहरी अभिव्यक्ति
निःशब्द ...
बहुत सुन्दर रचना!
बेख़ौफ़ दरिन्दे
कुचलती मासूमियत
शर्मशार इंसानियत
सम्बेदन हीनता की पराकाष्टा .
उग्र और बेचैन अभिभाबक
एक प्रश्न चिन्ह ?
हम सबके लिये.
उफ़ निशब्द करती रचना
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