Translate
रविवार, 29 जून 2008
सागर में डूबता सूरज ...
सागर में डूबते सूरज को
वसुधा ने अपनी उंगली से
आकाश के माथे पर सजा दिया...
साँवला सलोना रूप और निखार दिया
यह देख
दिशाएँ मन्द मन्द मुस्काने लगीं
सागर लहरें स्तब्ध सी
नभ का रूप निहारने लगीं...
गगन के गालों पर लज्जा की लाली छाई
सागर की आँखों में जब अपने रूप की छवि पाई ....
स्नेहिल सन्ध्या दूर खड़ी सकुचाई
सूरज की बिन्दिया पाने को थी अकुलाई ...
सोचा उसने
धीरे धीरे नई नवेली निशा दुल्हन सी आएगी
अपने आँचल में चाँद सितारे भर लाएगी..
फूलों का पलना प्यार से पवन झुलाएगी
संग में बैठी वसुधा को भी महका जाएगी..
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
10 टिप्पणियां:
Beautiful.
स्नेहिल सन्ध्या दूर खड़ी सकुचाई
सूरज की बिन्दिया पाने को थी अकुलाई ..
bhut sundar.
अतिसुन्दर!
पर यह कवि की मानसिकता पर निर्भर करता है। मेरी एक कविता है कोई 32-33 साल पहले की। वह इस के बिलकुल विपरीत भाव लिए है।
" उस ने आते ही
कटार मार दी
सूरज के सीने में, और
रवि रक्त से रक्त सा हो गया।
हो गया साम्राज्य
उस क्रूर कलुषित रात्रि का
जिस की अग्रदूत बन आई थी
वह निर्दयी साँझ
जिस ने आते ही
कटार मार दी
सूरज के सीने में...."
जितनी सुंदर रचना उतनी ही सुंदर तस्वीर। बधाई।
बहुत सुन्दर!! बधाई.
bahut bahut khubsurat kavita aur tasveer bhi.
वाकई बहुत सुंदर रचना..
विशेषकर ये पंक्तिया तो बहुत ही खूबसूरत है
स्नेहिल सन्ध्या दूर खड़ी सकुचाई
सूरज की बिन्दिया पाने को थी अकुलाई ...
कोमल भाव,सधा हुआ
मानवीकरण और
सुलझी हुई
काव्य चेतना.
बधाई
=========
चन्द्रकुमार
बहुत सुंदर रचना...बधाई.
एहसास की यह अभिव्यक्ति बहुत खूब
एक टिप्पणी भेजें