चिट्ठा चित्तेरा
पुकारे बार-बार
लौटी फिर से
मन मोहता
मधुशाला का साकी
बहके पग
गहरा नशा
डगमग पग हैं
बेसुध मन
कलम चली
शब्दों को पंख लगे
उड़ते भाव
लो आया ग्रीष्म
जला, तपा भभका
सन्नाटा छाया
बरसे आग
जले धरा की देह
दहका सूरज
लू का थपेड़ा
थप्पड़ सा लगता
बेहोशी छाती
प्यास बुझे न
जल है प्रेम बूँद
तरसे मन
खुश्क से पत्ते
पैरों तले चीखते
मिटे पल में
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रविवार, 20 अप्रैल 2008
बुधवार, 9 अप्रैल 2008
शैशव की स्मृति
स्मृतियाँ लौटीं , शैशव की याद आई
घुटनों के बल कितनी माटी खाई
चूड़ियाँ माँ की कानों में खनकी
भूली यादों से आँखें भर आईं
ममता की चक्की चलती चूल्हा जलता
स्नेह भरे हाथों से फिर खाना पकता
रोटी पर माखन साग को ढकता
दही छाछ जो पेट को फिर भरता
खोजते नन्हे पैर तपती धूप में छाया
धूल भरी राहों में डोलती वो काया
चोरी से बेर तोड़ना बेहद भाता था
मन-पंछी सैंकड़ों सपने लाता था
सन्ध्या का सूरज रक्तिम आभा को लाता
दीपक का प्रकाश घर-भर में छा जाता
बेटी की सुन पुकार टूट गया सपना
जैसे पीछे कोई छूट गया हो अपना
खट्टी मीठी यादों का टूटे सँग ना
फिर याद आ गया छूट गया अँगना
गुरुवार, 3 अप्रैल 2008
पर चलती क़लम को रोक लिया
पुरानी यादों की चाशनी में नई यादों का नमक डाल कर चखा तो एक अलग ही स्वाद महसूस किया. जो महसूस किया उसे कविता की प्लेट में परोस दिया. आप भी चखिए और बताइए कि कैसा स्वाद है !

पढ़ने-लिखने वाले नए नए दोस्त हमने कई बनाए
दोस्तों ने ज़िन्दगी आसान करने के कई गुर सिखाए
उन्हें झुक कर शुक्रिया अदा करना चाहा
पर उनके अपनेपन ने रोक लिया.
दोस्त या अजनबी सबको सुनते और अपनी कहते
देखी-सुनी बेतरतीब सोच को भी खामोशी से सुनते
पलट कर हमने भी वैसा ही कुछ करना चाहा
पर मेरी तहज़ीब ने रोक लिया.
नई सोच को नकारते बैठते कई संग-दिल आकर
हैरान होते उनकी सोच को तीखी तंगदिल पाकर
हमने भी उन जैसा ही कुछ सोचना चाहा
पर आती उस सोच को रोक लिया.
सीरत की सूरत का मजमून न जाना सबने
लोगों पर तारीजमूद को बेरुखी माना हमने
सबसे मिलकर हमने भी बेरुख होना चाहा
पर हमारी नर्मदिली ने रोक लिया.
साथ चलने वालों से दाद की ख्वाहिश नहीं थी
तल्ख़ तंज दिल में न होता यह चाहत बड़ी थी
मिलने पर यह अफसोस ज़ाहिर करना चाहा
पर आते ज़ज़्बात को रोक लिया.
सोचा था चुप रह जाते दिल न दुखाते सबका
पर खुशफहमी दूर करें समझा यह हक अपना
सर्द होकर कुछ सर्द सा ही क़लाम लिखना चाहा
पर चलती क़लम को रोक लिया.
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