स्वाति फिर से अपने कमरे में गुमसुम-सी बैठी थी। उसकी मां रंजना हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी कि दो शब्द भी कह पाये। हो भी कैसे? उसके लाख मना करने के बाद भी लड़केवालों के सामने उसकी नुमाइश की गई। नतीज़ा फिर वही...स्वाति सांवली थी लिहाजा नापसंद कर दी गई।

डॉक्टर मां और वैज्ञानिक बाप की इकलौती संतान स्वाति। पढ़ी लिखी होनहार लड़की थी लेकिन उसका सांवलापन उसका ऐसा दोष बना हुआ था जो अपने आप में कोई दोष था ही नहीं। इन सब बातों से स्वाति की मां बहुत चिंतित रहा करती लेकिन उसके पिता कुमार सा'ब पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं था। कुमार के लिए तो उनकी प्रयोगशाला ही सबकुछ थी, जो उन्होंने घर में ही बना रखी थी।
उधर कुमार लड़केवालों के जाने के बाद ड्राइंगरूम में ही बैठे कुछ सोच रहे थे। रंजना को स्वाति के कमरे की ओर से आता देख पूछा-
"स्वाति कैसी है?”
"खुद ही जाकर देख लो! मुझसे क्या पूछते हो?" रंजना ने झुंझलाकर जवाब दिया।
"अच्छा ठीक है... मैं लैब में जा रहा हूं। वहीं एक कप चाय भिजवा देना।" और कुमार उठकर लैब की ओर जाने लगे।
"तुम तो बस चाय ही पीते रहो... क्लिनिक से लेकर घर तक सब जगह मैं ही पिसती रहूं और जवान बेटी की चिंता अलग... आखिर मां हूं न... पर तुम्हें क्या...?
रंजना खुद को संभाल न सकी और आंसू निकल पड़े।
कुमार, रंजना की ओर वापस मुड़े और सामने खड़े होकर प्यार भरी नजरों से देखते लगे।
“अब क्या है? रंजना की आवाज़ में अब कुछ नरमी थी।
"रंजना! एक बात बताओ..."
"क्या?"
"आखिर मैं भी तो काला हूं... तुमने मुझमें ऐसा क्या देखा कि आज तक हम साथ-साथ हैं?"
"मैं क्या जानूं?" थोड़ा रुककर, "लेकिन तुम ये सब अभी क्यों पूछ रहे हो?"
"इसलिए कि अगर कलूटे कुमार को प्यारी रंजना मिल सकती है तो क्या हमारी बेटी को कोई पसंद करने वाला नहीं मिलेगा?"
कुमार की आवाज़ में एक बाप का विश्वास था।
"लेकिन कुमार! अब वो बात नहीं रही... आज दुनिया काफी बदल चुकी है।"
"मैं दुनिया को फिर से बदल दूंगा।" कुमार का स्वर बदला हुआ था।
"क्या मतलब?"
"आओ मेरे साथ।" और कुमार रंजना का हाथ पकड़कर कुमार लैब की ओर जाने लगे।
रंजना की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर कुमार को अचानक हो क्या गया?
रंजना को सहसा कुमार की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था लेकिन वह जानती थी कि कुमार की विश्वास भरी आंखें झूठ नहीं बोल रही हैं।
लैब में आकर कुमार ने रंजना का हाथ छोड़ा और पिंजरे में कूद रहे चुहे की ओर इशारा करते हुए कहा, "जानती हो रंजना! यह सफेद चूहा कल तक काले रंग का था और...और अब हमारी स्वाति भी गोरी हो जाएगी।"
रंजना को सहसा कुमार की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था लेकिन वह जानती थी कि कुमार की विश्वास भरी आंखें झूठ नहीं बोल रही हैं।
"मैं जानता हूं कि अभी तुम्हें मेरे बात पर विश्वास नहीं हो रहा होगा लेकिन मैं ऐसा कर सकता हूं। कल मैं स्वाति पर यही प्रयोग करूंगा जिसमें मुझे तुम्हारी मदद की जरुरत पड़ेगी। कल के बाद हमारी दुनिया बदल जाएगी।", कुमार ने रंजना को समझाया, फिर रंजना चली गई और वह खुद अगले दिन की तैयारी में लग गये।
अगले दिन कुमार, रंजना और स्वाति पूरी तरह से तैयार होकर लैब में आये। यहां कुमार ने स्वाति को प्रयोगशाला के बीचों बीच स्थित एक बड़ी-सी मशीन के सामने लेट जाने को कहा। मशीन देखने में किसी सीटी स्कैन की मशीन जैसी लगती थी। कुमार उस मशीन में लगे होलोग्राफिक कैमरे को संचालित करने लगे। उन्होंने पहले इस कैमरे की मदद से स्वाति की थ्रीडी फिल्म बनाई और इस फिल्म को स्कैन मशीन में ट्रांसमिट कर दिया जिससे मशीन में स्वाति के शारीरिक आयतन में स्थित एक-एक परमाणु के आंकड़े के ज़रिये पूरी शारीरिक योजना को ज्यों का त्यों सुरक्षित कर लिया।
स्वाति अपने पिता के निर्देशों का यंत्रवत पालन कर रही थी और रंजना की आंखों में विस्मय के भाव थे। थोड़ी देर बाद कुमार स्कैन मशीन से जुड़ी अपनी नायाब मशीन की ओर मुड़े जो उनकी पंद्रह सालों की मेहनत का नतीज़ा थी। कुमार ने जैसे ही इस मशीन को चालू किया रंजना चीख पड़ी क्योंकि स्वाति की जगह अब एक प्रकाश पुंज भर रह गया था।
रंजना के चेहरे पर भय और आंखों में आंसू थे।
"कुमार ये प्रयोग बंद करो..."
"लो पानी पिओ", कुमार ने रंजना की ओर पानी का गिलास बढ़ाने हुए कहा। "स्वाति को कुछ नहीं हुआ, मैंने सिर्फ उसके शरीर को ऊर्जा में बदला है।"
फिर कुमार ने उस पूरे प्रकाश-पुंज को एक प्रिज़्म से गुजारा। प्रिज़्म से निकलने वाले गाढ़े रंगों को उसने निकलने वाले दिया और हल्के रंगों को वापस स्कैन मशीन में पहुंचा दिया। कुमार ने फिर से इस ऊर्जा को पिण्ड यानी स्वाति के शरीर के रूप में बदल दिया।
स्वाति के पास जाते हुए कुमार के भी कदम एक बार डगमगा गये, लेकिन नजदीक जाकर स्वाति को देखा और चिल्ला उठे, "मैं जीत गया! रंजना! देखो मैं जीत गया... हमारी बेटी गोरी हो गई।" रंजना की आंखों में अब खुशी के आंसू थे। वह भी स्वाति की ओर बढ़ी...वह उसे छूकर देखना चाहती थी।
"अभी नहीं, पांच मिनट बाद वह खुद ही होश में आ जायेगी।" कुमार ने रंजना को रोका और दोंनों स्वाति के नये रूप को निहारने लगे।
इससे पहले की रंजना और कुमार को कुछ समझ पाते, स्वाति ने जिद पकड़ ली और बेतहाशा रोना शुरू कर दिया।
स्वाति होश में आते ही उठकर रंजना से लिपट गई और किसी बच्ची के लहज़े में कहने लगी, “मम्मी, मम्मी मुझे आइसक्रीम और गुड़िया दिला दो।” इससे पहले की रंजना और कुमार को कुछ समझ पाते, स्वाति ने जिद पकड़ ली और बेतहाशा रोना शुरू कर दिया।
कुमार की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर 24 साल की स्वाति पांच साल की बच्ची की तरह क्यों व्यवहार कर रही है? वे भागते हुए पिंजरे में बंद उस चूहे के पास पहुंचे, जिस पर यही प्रयोग एक दिन पहले किया गया था। चूहा बिल्कुल सामान्य था। "तो फिर स्वाति को क्या हुआ?" कुमार सोच में पड़ गये और सहसा ही उन्हें कुछ ध्यान आया। चूहे को तुरंत पिंजरे से निकाल कर उसे पड़ोस के टेबल पर रख उन्होंने उसे अचेत कर दिया। अगले ही पल उनकी सधी अंगुलियाँ तेज़ी से चूहे की शल्य क्रिया कर रही थीं। उन्होंने देखा कि खुन का रंग हल्का होने के कारण खास तो नहीं बदला, लेकिन चूहे की खोपड़ी का हिस्सा खुलते ही वे सकते में आ गये। चूहे के ग्रेमैटर वाला भाग भी रंग बदलने की प्रक्रिया की वजह से अब व्हाइट मैटर में तब्दील हो चुका था। इसका मतलब था कि उसके मस्तिष्क का विकास फिर से अपने शुरुआती दौर में जा पहुंचा था।
कुमार लड़खड़ा कर प्रयोगशाला की ज़मीन पर धप्प से जा बैठे। कारी कजरारी स्वाति की त्वचा तो गोरे रंग की हो चुकी थी मगर इसके साथ ही वह मानसिक रूप से से महज पांच साल की बच्ची रह गई थी। (क्रमशः)
[इस विज्ञान कथा का दूसरा भाग लिखा है मीनाक्षी ने। अवश्य पढ़ें।]
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रंजना चाय लेकर लैब में पहुँचीं तो देखा पति कुमार अपनी कुर्सी पर ही लुढ़क गए थे। दिन-रात अपनी लैब में शोध करते-करते कुमार खाना-पीना-सोना सब भूल गए थे। "कुमार, चायऽऽऽ", रंजना के चिल्लाने पर भी वे उठे नहीं, नींद में कुछ बुदबुदा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वे कोई भयानक सपना देख रहे हैं। अनमयस्क रहते ही वे अचानक चिल्ला उठे, "स्वाति, स्वाति, मेरी बच्ची, हे भगवान मैंने क्या कर डाला।" रंजना डर गई और ज़ोर ज़ोर से कुमार को झंझोड़ने लगी। कुमार उठ तो गए पर वे तो ज्यों यथार्थ में जी ही नहीं रहे थे। फटी-फटी आँखों से कभी वे रंजना को देखते तो कभी अपने आस पास, कुछ देर में कुमार ने घबरा कर पूछा, "स्वाति, स्वाति कहाँ हैं?"
"कुमार, स्वाति तो अपने कमरे में ही बैठी है, और कहाँ जायेगी? उसे बुलाना है?"
पर ये सब अनसुना कर कुमार सरपट अपनी बेटी के कमरे की ओर दौड़ पड़े। रंजना पीछे से चिल्ला कर बोली, "क्या हुआ आपको? क्या कोई सपना देख लिया। कुछ कहिए भी, अरे संभल कर चलिए।" कुमार बदहवासी में बीटिया के कमरे में गये तो देखा कि स्वाति अपने बिस्तर पर बैठी टीवी के रीमोट से चैनल बदलती अपने मन में उठे तूफ़ान को रोकने की कोशिश कर रही थी। देखा वही प्यारी सी साँवली-सलोनी उनकी लाड़ली बिटिया अपने पापा से नाराज़ होकर बैठी है। उसका नाराज़ होना सच भी है, क्यों न हो नाराज़?
सब अनसुना कर कुमार सरपट अपनी बेटी के कमरे की ओर दौड़ पड़े। रंजना पीछे से चिल्ला कर बोली, "क्या हुआ आपको?"
कुमार और रंजना चाहते हैं कि शोध का हिस्सा बनकर स्वाति अपना रंग बदल कर अपना जीवन ही नहीं, बल्कि उनका जीवन भी सफल कर दे और खुशी-खुशी शादी करके अपने घर चली जाए। स्वाति का कुमार से नाराज़ होना स्वाभाविक ही था, उसे अपने पापा से कतई आशा नहीं थी कि वे ऐसे शोध-कार्य में अपना समय बरबाद करेंगें जो रंग-भेद पर टिका होगा। आज के युग में भी अगर लोग रंग-भेद करते हैं तो ऐसे जाहिल लोगों से कोई सम्बन्ध ही नहीं रखना चाहिए।
कुमार बेटी को गुस्से में देखकर बिना कुछ कहे नीचे ड्राइंग-रूम में आ गऐ, जहाँ रंजना दुबारा नई चाय बना रही थी। दोनो ने एक-दूसरे को देखा, आँखों ही आँखों में एक-दूसरे की बात समझ कर चाय की चुस्कियाँ लेने लगे। शायद मन ही मन दोनों ने निश्चय कर लिया कि अब इस बारे में कोई चर्चा नहीं की जाएगी। कुमार ने जैसे कुछ सोच लिया और मुस्करा उठे तो रंजना ने उनकी तरफ देखा। कुमार रंजना से बोले, "स्वाति के इक्कीसवें जन्मदिन पर मैं उसे ऐसा तोहफ दूँगा जिसे पाकर स्वाति खुशी से झूम उठेगी।''
"मुझे भी कुछ पता चले, बताइए तो"
रंजना के लाख पूछने पर भी कुमार कुछ न बोले और उठ कर अपनी लैब में चले गऐ।
रिटायर्डमेंट के बाद घर में लैब खोलने का एक मकसद जो था आज वह सुबह देखे भयानक सपने के साथ ही खत्म हो गया। कई बार स्वाति ने कुमार से इस बारे में बात करनी चाही लेकिन हमेशा टाल दिया या बात बदल दी। आज उन्हें स्वाति की सारी बातें याद आ रहीं थीं। कुमार जानते थे कि स्वाति युनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में मानव-शास्त्र के प्राध्यापक पेरा से प्रभावित होकर मानव के अलग-अलग रंगों के बारे में शोध करना चाहती है। भूमध्य रेखा के नज़दीकी देशों के लोगों का रंग साँवला या काला होता है और रेखा से दूर के देशों के लोगों का रंग साफ होता है लेकिन ऐसा क्यों होता है? ऐसा होने का क्या कारण है? उत्पत्ति का मूल कारण क्या है? अभी कई प्रश्नों के उत्तर पाना बाकी है। भूमध्य-रेखा से दूर रहने वाले लोगों के साफ रंग होने में कितने जीन्ज़ शामिल हैं? अणु कोशिका में परिवर्तन का मूल कारण क्या है? मनुष्य की त्वचा, बालों और आँखों के रंग में आनुवांशिक सम्बन्ध क्या हैं?
कुमार ने निश्चय कर लिया कि अब से वे अपनी बेटी के शोध-कार्य में उसकी मदद करेंगे। बेटी के सपने को पूरा करना ही उनका सपना बन गया। दो दिन बाद स्वाति का जन्मदिन था, उन्होंने स्वाति के सभी मित्रों को बुलाकर गेस्ट हाउस में चुपके-चुपके पार्टी की सभी तैयारियाँ करनी शुरू कर दीं। उधर स्वाति हैरान थी कि मम्मी पापा कोई नाराज़गी या दुख न दिखा कर स्वाभाविक व्यवहार कर रहे थे। पापा उसके कमरे आए पर बिना बात किए चले गए, अन्दर ही अन्दर वह अपने किए पर पछता रही थी कि उसने पापा को उदास और दुखी कर दिया। आज तक उसने सिर झुकाए आदर्श बेटी की तरह मम्मी पापा का कहना माना था।
स्वाति उठ कर ड्रैसिंग टेबल के सामने खड़ी हो गई, अपने साँवले चेहरे पर नज़र डाली, जिसे कुदरत ने बहुत सुन्दर तराशा था। आज भी उसे याद है कि कनाडा से जब पीटर पहली बार अपनी छुट्टियाँ बिताने भारत आया था तो किस तरह से आँखों ही आँखों में उसकी खूबसूरत आँखों की तारीफ़ करता और जब कोई आसपास नहीं होता तो उसे 'हेइ कॉफी' कह कर पुकारता तो स्वाति शर्म से लाल हो जाती, समझ न पाती कि क्या करे। दुबारा से उसने पीटर का खत उठाया और पढ़ना शुरु किया। हर बार की तरह इस बार भी पीटर ने लिखा था, "'हेइ कॉफी, कब शोध करके बताओगी कि मुझे कॉफी का रंग कैसे मिलेगा?"
पीटर स्वाति का बचपन का दोस्त था, जो स्कूली पढ़ाई करके आगे की पढ़ाई के लिए कनाडा चला गया। सोच रही थी कि किसी को कोई फिक्र ही नहीं कि उसके मन में क्या चल रहा है। मम्मी की सोच तो बस मेरी शादी पर ही रुक गई है। पापा तो मेरी बात समझ जाते थे लेकिन आजकल उन्हें भी क्या हो गया है। क्यों पापा छोटी सोच के लोगों के लिए अपना समय बरबाद कर रहे हैं, कैसे कहे कि अभी वह शादी के बारे में सोच ही नहीं रही है, उसका तो कुछ और ही मकसद है। क्या बेटियाँ जन्मीं तो बस घर-गृहस्थी चलाने का काम ही रह गया है उनके लिए, अगर ऐसा है तो क्यों उन्हें ऊँचीं शिक्षा दी जाती है, बस घर चलाने भर के लिए थोड़ी बहुत पढ़ाई करा दो और शादी कर दो।
स्वाति का कमरा ऐसी दिशा में है कि सूरज की पहली किरण खिड़की से सीधे उतर कर उसके चेहरे को प्यार से सहलाती उसे उठाती है, आज कुछ ज़्यादा ही चमक रहीं थीं शायद मेरा जन्मदिन मुबारक कहने को चमचमती सी मेरे कमरे में उतरीं हैं। स्वाति हैरान थी कि हमेशा की तरह आज मम्मी पापा ताज़े फूलों का गुलदस्ता लेकर उसके कमरे में नहीं खड़े थे, वह समझ गई कि इस बार दोनो ही उससे बहुत नाराज़ हैं। सोहनलाल अपने ठीक समय पर चाय की ट्रे रख कर चला गया। पूछने पर पता चला कि मम्मी बाज़ार गईं हैं और पापा सुबह से ही अपनी लैब में हैं। वह कुछ आहत सी होकर बैठी रह गई। पूरे घर में छाए सन्नाटे को चीरती फोन की घंटी बज उठी, शायद मोहिनी का फोन होगा, जो आजकल ऑस्ट्रेलिया में अपने पति के साथ रह रही है। आज भी सबसे पहले उसका ही फोन आया होगा लेकिन सोहनलाल फोन उठा कर लैब की ओर जाता दिखाई दिया। अनमनी सी होकर स्वाति जिम जाने की लिए तैयार होने लगी, जब भी उसका मन दुखी या उदास होता वह घंटो तक कसरत करती, घर आकर एक घंटा नहाने में बिताती, तब जाकर कहीं मन शान्त होता।
स्वाति दुखी तो थी ही लेकिन हैरान भी थी कि पहले कभी मम्मी पापा उसका जन्मदिन नहीं भूले तो अब क्या हुआ।
दोपहर का खाना स्वाति ने अपने कमरे में ही मँगवा लिया। पूछने पर पता चला कि पापा अभी भी लैब में हैं और माँ बाज़ार से आईं नहीं थी। स्वाति दुखी तो थी ही लेकिन हैरान भी थी कि पहले कभी मम्मी पापा उसका जन्मदिन नहीं भूले तो अब क्या हुआ। शाम के सात बजे सोहनलाल ने आकर कहा, "बिटिया रानी, अपने लिए एक कम्बल चाहिए। साहब के पास लैब में जाते हुए डर लगता है।" स्वाति ने चाबी देते हुए कहा, ''यह लो चाबी, कम्बल निकाल कर चाबी लौटा देना।" सोहनलाल माना नहीं, ज़िद करने लगा, "स्वाति बिटिया, आप ही निकाल कर दें, मैं अकेले नहीं जाऊँगा।" ''अच्छा बाबा, मैं ही चलती हूँ।'" यह कह कर स्वाति गेस्ट हाउस की चल पड़ी। अन्धेरा हो चला था, आज बगीचे के साथ जुड़े आँगन की भी लाइट नहीं जल रही थी।
गेस्ट हाउस के दरवाज़े पर पहुँचते चाबी ही लगाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी, अचानक दरवाज़ा खुला और मम्मी पापा मुस्कराते हुए हाथ में लाल गुलाबों के गुलदस्ते लेकर खड़े हैं, पीछे खड़े सभी लोग ज़ोर से चिल्लाए, " हैप्पी बर्थडे डीयर स्वाति" स्वाति एक पल के लिए कुछ समझ नहीं पाई।
"पापा मम्मी थैंक्यू सोऽऽऽऽ मच"
स्वाति की आँखों में खुशी के आँसू थे, आगे बढ़कर दोनो के गले लग गई। जन्मदिन की पार्टी को अचंभित दावत का नाम देना चाहिए। मित्रों ने आगे बढ़ कर बधाई दी लेकिन स्वाति पीटर को अपने सामने देखा तो देखती ही रह गई, उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। पापा ने आगे बढ़कर कहा, "बेटी, अभी एक और आश्चर्य बाकि है, चलो पहले केक काटो।" केक काटते हुए स्वाति के हाथ काँप रहे थे, उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। केक कटते ही तालियों के साथ सभी जन्मदिन मुबारक का गीत गाने लगे। स्वाति ने मम्मी पापा को बारी बारी से केक खिलाया। पीटर ने मुस्करा कर अपना मुँह भी खोल दिया। शरमाते हुए स्वाति ने केक का एक टुकड़ा उसके मुँह में भी डाल दिया।
कुमार और रंजना बेटी को देखकर खुश हो रहे थे। बहुत दिनों बाद आज बेटी के चेहरे पर प्यारी मुस्कान देखकर उनकी आँखों में भी खुशी के आँसू आ गए। "स्वाति के जन्मदिन पर हम दोनो की तरफ़ से एक तोहफ़ा, मेरी लैब आज से स्वाति की लैब होगी। आज से मैं स्वाति के नए प्रोजेक्ट में उसके सहायक के रूप में काम करूँगा।" कुमार ने यह कहते हुए स्वाति को गले से लगा लिया। पापा की बात सुनकर स्वाति हक्की-बक्की खड़ी रह गई। उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। पीछे खड़ी रंजना भी धीरे से स्वाति के कान में फुसफुसाते हुए बोली, "आज से घर में शादी की चर्चा बिल्कुल बन्द, यह मेरा तोहफा है।"
कुछ देर के लिए स्वाति को लगा जैसे नन्हीं सी चिड़िया को पँख मिल गए हों। आकाश में दूर तक उड़ने की कल्पना से ही वह भाव-बिभोर हो उठी। उसके कारे कजरारे नैनों के कोर में खुशी से उपजे जल के नन्हे कतरे आनन्द के ताप से कब गायब हो गये उसे पता ही न चला। (समाप्त)
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