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बुधवार, 9 जनवरी 2008

मैं भी उन संग बहक सी रही थी !

चंदा का सितारों से जड़ा प्रकाशित आँचल जब छाया धरती पर
सुषमानुभूति से मदमस्त हुआ फिर नशा सा छाया सागर पर !

लहरें बाँहें फैलाए उचक उचक कर चढ़ गईं चट्टानों के कंधों पर
नज़र थी उनकी शोभामय आकाश के जगमग करते तारों पर !

जलधि के उर पर देखके तारों का प्रतिबिम्ब लहरें चहक रहीं थीं
चंदा की चंचल किरणें लहरों के संग खेल-खेल में बहक रहीं थीं !

छू लेने की, आँखों में सुषमा भरने की चाहत सी उनमें जाग गई थी
छवि सुन्दर विस्तृत नभ की, मनमोहती मानस-पट पर छा सी गई थी !

गर्वित गगन से आती-जाती शीत-पवन सी साँसें मुझको छू सी रही थीं
महकी-महकी साँसों से दिशाएँ बहकीं, मैं भी उन संग बहक सी रही थी !

शनिवार, 5 जनवरी 2008

मेरे त्रिपदम (हाइकु)



प्रेम सत्य है
रूप रंग सुगन्ध
त्रिपदम सा

निशा स्तब्ध थी
सागर सम्मोहित
लहरें गातीं

धरा ठिठकी
लहरों में उद्वेग
चंदा निहारे

सुर कन्या सी
आलिंगनबद्ध थीं
लहरें प्यारी

रेतीला मन
फिसलते कदम
दिशाहीनता


शीत बसंती
बदलती ऋतुएँ
झरता ताप


संघर्षरत जीते
जाएँ जीवन
आत्मा की शक्ति


गरजे मेघ
दामिनी दमकती
सूरज भागा

हे मेरे मन, आशा का दीप जला !

आज सोचा कि मन में आते भावों को बाँधने की बजाए उसे बहने देना ही सही होगा.
बहता पानी साफ रहता है, रुके हुए पानी से अपने लिए ही नहीं आसपास के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है. कई दिनों से ब्लॉग जगत में बहुत कुछ पढ़ते रहने के बाद लगने लगा कि बस बहुत हो चुका. ज़्यादा पढ़ना भी मुसीबत बन सकता है. अलग अलग ब्लॉगज़ द्वारा बहुत से विचार एक साथ दिल और दिमाग में उतर रहे थे. चाह कर भी प्रतिक्रिया स्वरूप लिखने का समय निकालना सम्भव नहीं लग रहा था. इस समय को भी दूसरे कामों से आँख चुराकर ही निकाल पाएँ हैं.
मानव समाज में अलग अलग रूप से क्लेश, अशांति, वहशीपन, आक्रोश की बहती हवा का प्रभाव ब्लॉग जगत पर भी दिखाई देता है कुछ चिट्ठाकार इन मुद्दों पर लिखकर चिंतन करने को बाध्य करते हैं. कुछ अपनी तीखी प्रतिक्रिया द्वारा समाज और सरकार को जगाने का प्रयास करते हैं, कुछ सीमा तक सफल भी हो जाते हैं.
ब्लॉगर की ताकत का अन्दाज़ा इसी से लगता है कि सरकार के खिलाफ कुछ लिखते ही फौरन हरकत में आ जाती है, उसे अपना आस्तित्व हिलता सा दिखाई देने लगता है.
दिसम्बर की 10 तारीख को एक साउदी ब्लॉगर फुयाद अल फरहान को पुलिस पकड़ कर ले गई क्योंकि ब्लॉगिंग के माध्यम से वह समाज के विकास में आने वाली बाधाओं की अपने ब्लॉग पर चर्चा कर रहा था. दूसरे ब्लॉगरज़ को भी इस ओर ध्यान देने को कह रहा था. पच्चीस दिन से फरहान जेल में है.
दिसम्बर जाते जाते एक और दर्द दे गया जिसे पाकर मन सोचने पर विवश हो गया कि क्यों ...? ऐसा क्यों होता है ? हमारे अन्दर मानव और दानव दोनों का निवास है, इस बात को हम नकार नहीं सकते लेकिन जब मानव दानव के हाथों पराजित होता दिखाई देता है तो मन विचलित हो जाता है. क्यों हम अपने अन्दर के दानव को बाहर आने देते हैं ? मन सोचने पर विवश हो जाता है कि किस प्रकार मानव और दानव के बीच तालमेल बिठाकर मानव समाज को नष्ट होने से बचाया जाए.
मेरे विचार में ब्लॉग जगत से जुड़ा हर लेखन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में समाज के हित की ही सोचता है. सभी अपनी अपनी सोच के अनुसार अच्छी बुरी घटनाओं पर अपने अपने तरीके से प्रतिक्रिया भी करते हैं. ऐसा तो हो नहीं सकता कि हर कोई एक ही जैसा सोच कर हर विषय पर अपने विचार प्रकट करे.
अखबारों में, टीवी में या अंर्तजाल पर भ्रष्टाचार के प्रति जो इतना आक्रोश दिखाई देता है, यही साबित करता है हम समाज से बुरे तत्त्वों को निकाल बाहर करना चाहते हैं.
"दोषों का पर्दाफाश करना बुरी बात नहीं है. बुराई यह मालूम होती है कि किसी के आचरण के गलत पक्ष को उदघाटित करके उसमें रस लिया जाता है और दोषोदघाटन को एकमात्र कर्तव्य मान लिया जाता है. बुराई में रस लेना बुरी बात है, अच्छाई में उतना ही रस लेकर उजागर न करना और भी बुरी बात है. सैंकड़ों घटनाएँ ऐसी घटती हैं, जिन्हें उजागर करने से लोक-चित्त में अच्छाई के प्रति अच्छी भावना जगती है." यह पंक्तियाँ श्री हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी के लेख "क्या निराश हुआ जाए' से ली गई हैं.
जीवन में कितने धोखे मिले, कितनी बार किसी ने ठगा, कितनी बार किसी ने विश्वासघात किया. समाज के घिनौने रूप को देख कर पीड़ा होती है, भुलाए नहीं भूलती. यदि इन्हीं बातों का हिसाब किताब लेकर बैठेंगे तो जीना दूभर हो जाएगा.
प्रेम ही सत्य है – इस मूल-मंत्र को हम जान लें तो जीना आसान ही नहीं खूबसूरत भी हो जाए. प्रेम अपने आप से , प्रकृति से , जीव-जंतुओं से और फिर मानव-मानव से, बस फिर अपने महान भारत देश को ही नहीं, विश्व को पाने की भी संभावना हो जाएगी.
आज से कोशिश करूँगीं कि अपने ब्लॉग में गद्य को भी उतना ही महत्व दूँ जितना कि पद्य को देती आई हूँ.

शुक्रवार, 4 जनवरी 2008

लीच/जौंक

जाने किस झोंक में मैंने
जौंको को अपनी पीठ पे छोड़ दिया !

मीठा मीठा दर्द जिन्होंने मेरे खून में घोल दिया
जाने क्यों उठती आहों को मैंने आने से रोक लिया.

आँख मींच कर लीच को मैंने बाँहों में भींच लिया
साँस खींच कर आते दर्द को खून में सींच लिया.

कुछ लीचें मेरी अपनी हैं, मेरी मज्जा से ही बनी हैं
ये लीचें कुछ न्यारी हैं जो मेरे ही खून से सनी हैं.

इन पंक्तियों को पढ़कर सबसे पहला भाव मन में क्या आ सकता है ?
उसे टिप्पणी के रूप में देंगे तो आभार होगा.

मेरी भी आभा है इसमें

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें

भीनी-भीनी खुशबूवाले
रंग-बिरंगे
यह जो इतने फूल खिले हैं
कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था
कल इनको मेरे सपनों ने सहलाया था

पकी सुनहली फसलों से जो
अबकी यह खलिहान भर गया
मेरी रग-रग के शोणित की बूँदें इसमें मुसकाती हैं

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें

" नागार्जुन "

गुरुवार, 3 जनवरी 2008

आप सबके बड़प्पन को प्रणाम !

फुर्सत के पल मिलते ही अभी मैंने अपना मेल एकाण्ट खोला तो चेहरा खुशी से खिल उठा . मेल खोलते जा रहे थे और पढ़ते जा रहे थे. लगा कि मेल भेजते वक्त सबके चेहरे पर मुस्कान ही होगी जैसे राह चलते किसी को गिरते देख कर हँसीं निकल जाती है. सच मानिए कभी कभी गलती करके माफी माँगने का अलग ही आनन्द है.
कल शाम एक जन्मदिन की पार्टी पर छोटे बेटे को लेकर अजमान जाना पड़ा, लौटते लौटते रात के दो बज गए.
आज सुबह बड़े बेटे को लेकर कॉलेज गई जहाँ मुझे ठहरना था क्योंकि अक्सर एग्ज़ाम के दिनों में बेटे पर दर्द कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हो जाता है. दोपहर एक बजे घर आते ही दोपहर खाना बनाया , खाया और खिलाया. न चाह कर भी नींद को अपने करीब आने से रोक नहीं पाए. अच्छी तरह मालूम है कि भोजन करने के एकदम बाद सोना ज़हर का काम करता है, फिर भी सो गए थे. उठने के बाद हालत खराब होनी ही थी सो हो गई.
तब सोचा कि अर्बुदा के हाथ की चाय पी जाए और नन्हे-मुन्ने जुड़वाँ इला इशान से खेला जाए तो तन-मन दोनो प्रफुल्लित हो जाएँगें. मीनू आटीं मीनू आटीं कहते हुए दोनों की होड़ लग जाती है कि सबसे ज़्यादा कौन अपनी बातों से लुभाएगा. एक मज़ेदार खेल होता है वहाँ. दोनो बच्चे अपनी प्यारी प्यारी बातों से हम दोनों को बात करने का अवसर ही नहीं देते लेकिन हम भी मौका पाकर अपनी बात कर ही लेते हैं.
वहाँ भी पैगी डॉट कॉम पर चर्चा हुई. सोचा कि चाय पीने के बाद तो ज़रूर इस विषय पर लिखना ही है.
जब सेहतनामा के संजय जी का मेल आया कि एक डोमेन का आमंत्रण मिला है तो हमारा माथा ठनका क्योंकि उससे पहले उस डोमेन पर विकास जी से भी बात हुई तब तक हम कुछ समझ नहीं पाए थे कि वे हमारे ब्लॉग परिवार के सदस्य हैं या कोई और .. आशा जी से निमंत्रण मिला था जिसे हमने उनकी साइट समझी और पैगी की पगली पढ़ लिया.
नहीं अब इस विषय पर बात करने का जोश ठंडा सा पड़ता जाता है . अब सोचते हैं "बीती बात बिसार दे , आगे की सुध ले" सो कल की बातें भुलाकर आज इस समय हमारे साथ कुछ गीतों का आनन्द लीजिए जो अभी मैं सुन रही हूँ --


दीवाना मस्ताना हुआ दिल........




जाता कहाँ है दीवाने ......




हूँ अभी मैं जवाँ ए दिल ......




जानूँ जानूँ रे ......

मंगलवार, 1 जनवरी 2008

नव वर्ष के प्रथम दिवस पर 'विश्व प्राँगण"











नववर्ष के प्रथम दिवस का सूर्योदय एक नई आशा की किरण लेकर आया. एक नई सुबह खिलखिलाती सी, जगमगाती सी अपने सुन्दर रूप से मुझे मोहित कर रही थी. मंत्र-मुग्ध सी मैं आकाश के एक कोने से चमकते सूरज को देख रही थी तो दूसरी ओर आँखों से ओझल होता फीकी हँसी हँसता शशि न चाहते हुए भी विदा ले रहा था.

नए वर्ष का मंगल गीत गाते हुए पंछी वृक्षों की फैली बाँहों में नाचते हुए चारों दिशाओं को मोहित कर रहे थे.

यह सुन्दर दृश्य देखकर विश्व प्राँगण में उतरी हर ऋतु की सुन्दरता का रूप याद आने लगा.


विश्व-प्राँगण में उतरीं ऊषा की किरणें
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

सूर्योदय की चंचल किरणें मुस्काईं
अपने ही स्वर्णमयी यौवन से शरमाईं
पीतवर्ण सरसों आँचल सी लहराई
अन्न धन हाथों में अपने भर लाई.

विश्व-प्राँगण ग्रीष्म के ताप से तप्त हुआ
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

ओस पसीने सा चमका धरती के माथे पर
प्यास बुझाने की तृष्णा थी सूखे अधरों पर
धानी आँचल फटा हुआ कृशकाय तन पर
वीरानापन छाया था वसुधा के मुख पर.
विश्व-प्राँगण में पावक पावस अति छाए
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

जगी प्यास जब घनघोर घटाएँ छाईं
रिमझिम बूँदें लेकर मोहक वर्षा-ऋतु आई
नभ की कजरारी अखियाँ प्यारी भाईं
दामिनी चपला ने भी अदभुत सुन्दरता पाई.

विश्व-प्राँगण ठिठुर गया काँपा सीसी कर
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

शरदऋतु के आते सब सकुचाए दुबके कोने में
मानव, पशु-पक्षी सब ओझल हुए किसी कोने में
तड़प उठी वसुधा पपड़ी फटे होठों पर होने से
तरु-दल भी पाले से मुरझाए शीत के होने से.


विश्व-प्राँगण में सूखा सा पतझर छाया
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

अस्थि-पंजर बन कृशकाय तन लहराया
प्यासी बेरंग आँखों में पीलापन छाया
पावक पावस ने वसुधा का मन भरमाया
मधु-रस पाने का स्वर सूखे होठों पर आया.

विश्व-प्राँगण में ऋतुराज बसंत पधारे
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

ऋतुराज जो आए संग बासंती पवन भी लाए
रंग-बिरंगे महकते फूलों की बहार लुटाने आए
वसुधा के सुन्दर तन पर धानी आँचल लहराए
रोम-रोम में उसके सुष्मिता अनोखी छा जाए.

नभ पर सुन्दर अति सुन्दर सुरचाप सजे
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

चंदा की मदमाती किरणें उतरीं बहकी-बहकी
रवि-किरणें थी चंचल चपला से चहकी-चहकी
वसुधा के आँगन में कलियाँ बिखरीं महकी-महकी
नीलम्बर की सतरंगी सुषमा है लहकी-लहकी.

विश्व-प्राँगण में बिखरी चंदा की किरणें
धरती ने जब ली अँगड़ाई !
चंदा की चंचल चाँदी से किरणें सजीं हुईं
नभ की साड़ी अनगिनत तारों से टंकी हुई
चोटी जगमग करते जुगनुओं से भरी हुई
लहराते दुग्ध धवल आँचल से ढकी हुई.

विश्व-प्राँगण में उतरा मानव का विज्ञान
धरती ने जब ली अँगड़ाई !

विश्व-प्राँगण है प्रकृति का सुन्दर आँगन
रंग-बिरंगे फूलों का सुगन्धित उपवन
धीरे धीरे नीरसता से जो भरता जाता है
प्रदूषण से अब बेरंग हुआ वो जाता है.

विश्व-प्राँगण के सुन्दर आँग़न में वसुधा जब ले अँगड़ाई तो प्रकृति का सुन्दर मोहक रूप ही दिखाई दे उसमें, नव वर्ष में यही कामना है.