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सोमवार, 12 मई 2014

सुबह का सूरज




ऊँची ऊँची दीवारों के उस पार से 
विशाल आसमान खुले दिल से 
मेरी तरफ सोने की गेंद उछाल देता है 
लपकना भूल जाती हूँ मैं 
 टकटकी लगाए देखती हूँ
नीले आसमान की सुनहरीं बाहें 
और सूरज की सुनहरी गेंद 
जो संतुलन बनाए टिका मेरी दीवार पर 
   पल में उछल जाता फिर से आसमान की ओर
छूने की चाहत में मन पंछी भी उड़ता
खिलखिलातीं दिशाएँ !!





गुरुवार, 8 मई 2014

नो वुमेन नो क्राई..नो नो...वुमेन नो ड्राइव

तुम बहुत नाज़ुक हो कोमल हो
बला की खूबसूरत हो तुम
चेहरा ढक कर रखो हमेशा
बुर्के में रहो बिना मेकअप के
आँखों पर भी हो जालीदार पर्दा
काजरारी आँखें लुभाती हैं ............
मर्द मद में अंधा हो जाता है
ग़र कोई मर्द फिसल गया
अपराधी कहलाओगी

तुम बहुत नाज़ुक हो कोमल हो
तुम घर के अंदर महफ़ूज़ हो
तुम्हारे पैर बेहद नाज़ुक हैं
दुनिया की राहें हैं काँटों भरी
मैं हूँ न तुम्हारा रक्षक
बाकि सारी दुनिया है भक्षक ..........
घर की चारदीवारी में रहो
पति परिवार की प्यारी बनकर
मेरे वारिस पैदा करो बस

तुम बहुत नाज़ुक हो कोमल हो
मैं शौहर हूँ और शोफ़र भी
कार की पिछली सीट पर बैठी
राजरानी पटरानी हो तुम मेरी
औरत के लिए ड्राइविंग सही नहीं ...........
डिम्बाशय गर्भाशय रहेंगे स्वस्थ
मुश्किलें और भी कई टलेगीं
ड्राइव करना ही आज़ादी नहीं
मर्द ही निकलते हैं सड़कों पर

ऐ औरत ! ख़ामोश रहो !
आज़ादी की बेकार बातें न करो
सौ दस कोड़े खाकर क्या होगा
जेल जाकर फिर बाहर आओगी
फिर आज़ादी का सपना लोगी
हज़ारों हक पाने को मचलोगी ............
हसरतों की  रंगबिरंगी पर्चियाँ
बनाओ दफ़नाओ,बनाओ दफ़नाओ
बस यही लिखा है तुम्हारे नसीब में

आख़िरी साँस तक लड़ने की ठानी .........
क्या है आज़ादी  समझ गई औरत !





सोमवार, 5 मई 2014

अपनापा




रोज़ की तरह पति को विदा किया
दफ़तर के बैग के साथ कचरे का थैला भी दिया
दरवाज़े को ताला लगाया
फिर देखा आसमान को लम्बी साँस लेकर
सूरज की बाँहें गर्मजोशी से फैली हैं
बैठ जाती हूँ वहीं उसके आग़ोश में..  
जलती झुलसती है देह
फिर भी सुकूनदेह है यूँ बाहर बैठना
चारदीवारी की कैद से बाहर 
ऊँची दीवारों के बीच 
नीला आकाश, लाल सूरज, पीली किरणें 
बेरंग हवा बहती बरसाती रेत का नेह 
गुटरगूँ करते कबूतर, बुदबुदाती घुघुती 
चहचहाती गौरया 

यही तो है अपनापा !!

मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

स्याह चेहरे वाली चिमनी



खिड़की के उस पार 
अचानक नज़र चली गई
दीवार पर खड़ी थी 
स्याह चेहरे वाली चिमनी
सिसकती सी काला धुआँ उगलती
तनी खड़ी तिकोनी टोपी पहने
देर तक काला गहरा धुआँ उगलती
फिर एक खूबसूरत एहसास जैसे
अनदेखी खुशबू फैला देती चारों ओर
महकती रोटियाँ जन्म लेतीं उसकी कोख से
जीवनदान देती, भूख मिटाती सबकी
स्याह चेहरे वाली चिमनी
जाने कब तक 
बस यूँ ही धुआँ उगलती रहेगी
जलती रहेगी आग उसके भीतर
उसका स्याह चेहरा याद दिलाता है 
अनेकों स्याह चेहरे जिनके अंतस में
धधकती रहती है आग 
कैद से निकलने की छटपटाहट
आज़ाद होने की चाहत 
स्याह चेहरे वाली चिमनी 
जाने कब तक 
बस यूँ ही धुआँ उगलती रहेगी !  





गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

खुले आसमान में उड़ने का ख़्वाब



घर के अन्दर पसरी हुई ख़ामोशी ने
मुझे अपनी बाँहों में जकड़ रखा है...
छिटक कर उससे आज़ाद होना चाहती हूँ
घबरा कर घर से  बाहर भागती हूँ .
वहाँ भी धूप सहमी सी है आँगन में
सूरज भी खड़ा है बड़ी अकड़ में
मजाल नहीं हवा की
एक सिसकी भी ले ले...
हौंसला मुझे देते हैं कबूतर के जोड़े
दीवारों पर आ बैठते हैं मेरा साथ देने
घुघुती भी एक दो आ जाती हैं
सुस्ताती हुई बुदबुदाती है जाने क्या
गौरेया को देखा छोटी सी है
निडर फुदकती इधर से उधर
उसकी चहक से ख़ामोशी टूट जाती है
उससे हौंसला पाकर नज़र डालती हूँ
अपनी ठहरी हुई ज़िन्दगी पर
ज़िसके अन्दर कुछ जम सा गया है
सोचती हूँ रगड़ रगड़ कर उतार दूँ
उस पर जमी डर की काई को
फिर से परवाज़ दूँ अपने जमे पंखों को
खुले आसमान में उड़ने का आग़ाज़ करूँ ....