खिड़की के उस पार
अचानक नज़र चली गई
दीवार पर खड़ी थी
स्याह चेहरे वाली चिमनी
सिसकती सी काला धुआँ उगलती
तनी खड़ी तिकोनी टोपी पहने
देर तक काला गहरा धुआँ उगलती
फिर एक खूबसूरत एहसास जैसे
अनदेखी खुशबू फैला देती चारों ओर
महकती रोटियाँ जन्म लेतीं उसकी कोख से
जीवनदान देती, भूख मिटाती सबकी
स्याह चेहरे वाली चिमनी
जाने कब तक
बस यूँ ही धुआँ उगलती रहेगी
जलती रहेगी आग उसके भीतर
उसका स्याह चेहरा याद दिलाता है
अनेकों स्याह चेहरे जिनके अंतस में
धधकती रहती है आग
कैद से निकलने की छटपटाहट
आज़ाद होने की चाहत
स्याह चेहरे वाली चिमनी
जाने कब तक
बस यूँ ही धुआँ उगलती रहेगी !
5 टिप्पणियां:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन उस्ताद अल्ला रक्खा ख़ाँ और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
कभी चिमनियों औधोगिक विकास की परिचायक थीं
स्वयं का सच बयां करती हुई पंक्तियां ...।
रूप, सुगंध और उपयोग, और शायद उससे भी आगे बहुत कुछ - समझ की कोई सीमा नहीं।
@ब्लॉगबुलेटिन- उस्ताद साहब के साथ पोस्ट शामिल करने का बहुत बहुत शुक्रिया
@काजलकुमार और आज चिमनी को देख कर कुछ और ही ख्याल मन में आता है
@संजय सच जो कड़वा होता है
@अनुराग जी,यकीनन सोच सीमाहीन है.
आपका आना अच्छा लगा.. आभार
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