घर के अन्दर पसरी हुई ख़ामोशी ने
मुझे अपनी बाँहों में जकड़ रखा है...
छिटक कर उससे आज़ाद होना चाहती हूँ
घबरा कर घर से बाहर भागती हूँ .
वहाँ भी धूप सहमी सी है आँगन में
सूरज भी खड़ा है बड़ी अकड़ में
मजाल नहीं हवा की
एक सिसकी भी ले ले...
हौंसला मुझे देते हैं कबूतर के जोड़े
दीवारों पर आ बैठते हैं मेरा साथ देने
घुघुती भी एक दो आ जाती हैं
सुस्ताती हुई बुदबुदाती है जाने क्या
गौरेया को देखा छोटी सी है
निडर फुदकती इधर से उधर
उसकी चहक से ख़ामोशी टूट जाती है
उससे हौंसला पाकर नज़र डालती हूँ
अपनी ठहरी हुई ज़िन्दगी पर
ज़िसके अन्दर कुछ जम सा गया है
सोचती हूँ रगड़ रगड़ कर उतार दूँ
उस पर जमी डर की काई को
फिर से परवाज़ दूँ अपने जमे पंखों को
खुले आसमान में उड़ने का आग़ाज़ करूँ ....
8 टिप्पणियां:
बहुत हि अच्छी जानकारी।
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all the best for all that you wish
bahut sundar rachna...
जहाँ चाह हो वहाँ राह भी बन जाती है -अगर सच मे चाह है तो !
बहुत भावपूर्ण रचना .... मन की कसक को कहती हुई ।
पढ़ा वो आर्टिकल और उसके बाद आपकी ये कविता !!
क्या कहूँ?
परवाज़ पर जाने कि सोचना चाहिए .. वो भी कैसे जा सकूं, तैयारी करनी चाहिए ... जाने के बाद सपने तो साकार होने ही हैं ... ये नहीं तो कोई और ... फिर परवाज़ का आनद भी तो साथ होता है ....
आपका सबका शुक्रिया...
@अभि ... न कुछ कह पाते हैं न कुछ कर पाते हैं.. इस विवशता के साथ जीना आसान नहीं...
@दिगम्बर भाई..शायद आपने जुड़ा लेख नहीं पड़ा...13 साल से कोशिश लेकिन आज भी नाक़ाम...
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