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शनिवार, 24 नवंबर 2007

हे प्राण मेरे, आँखें खोलो !

हे प्राण मेरे, आँखें खोलो 
सृष्टि को रूप नया दे दो ! 
कब तक निश्चल पड़े पड़े 
देखोगे कब तक खड़े खड़े ! 
हे प्राण ..................... 
उठो उठो हे सोए प्राण 
आँखें मूँदे रहो न प्राण ! 
हे प्राण ................. 
मानवता का संहार है होता 
वसुधा मन पीड़ा से रोता ! 
हे प्राण .................... 
कृतिकार के मन का रुदन सुनो
विश्व की करुण पुकार सुनो ! 
हे प्राण ..................... 
हे प्राण मेरे, आँखें खोलो
सृष्टि को रूप नया दे दो !!

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब मीनाक्षी जी। स्वंय की चेतना को झंझोडने के लिये अच्छी कविता।
    - अस्तित्व , आबू दाबी, यू ए ई

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  2. सॄष्टि को नव रूप देने की चाह ही जीवन्तता है। इस चाह को सदैव जोश दिलाते रहना चाहिये।

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  3. जिस प्राण को संबोधित है वह कृतिकार नही है ? ??

    www.aarambha.blogspot.com

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  4. अद्भुत कविता है आपकी. आशा और उम्मीद की यही रोशनी हमारे जीवन का सहारा है. नूतन का स्वागत करने के लिए हमे हमेशा तैयार रहना होगा.

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  5. वाह !! अद्भुत रचना ..मन भाव -विहाब्ल हो गया ...बधाई

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