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शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

तम ने घेरा !

तम ने घेरा मेरे तन को
कुछ न सूझे मेरे मन को.

छोटे छोटे कण्टक-कुल में
उलझा आँचल मेरा !
घायल औ' निष्प्राण हो गया
रोम-रोम मेरे तन का !

तम ने घेरा मेरे तन को
कुछ न सूझे मेरे मन को.

जीवन-पथ में फूल नहीं हैं
फूलों में सुगन्ध नहीं है !
अमृत-रस धारा भी नहीं है
सतरंगी आभा भी नहीं है !

तम ने घेरा मेरे तन को
कुछ न सूझे मेरे मन को.

निशा अन्धेरी चन्द्रहीन है
रवि दिवस भी तेजहीन है !
आशा की कोई किरण नहीं है
निराशा की घनघोर घटा है !

तम ने घेरा मेरे तन को
कुछ न सूझे मेरे मन को.

10 टिप्‍पणियां:

  1. अति सुन्दर अभिव्यक्ति । बधाई ।

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  2. क्यों? इतनी निराशा, इतना अवसाद क्यों? हम देंगे टिपण्णी.
    बहुत सुंदर कविता. कविता पढ़ कर मन मे एक उदासी छा गई. आपकी लेखनी सशक्त है.

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  3. जीवन-पथ में फूल नहीं हैं
    फूलों में सुगन्ध नहीं है !
    अमृत-रस धारा भी नहीं है
    सतरंगी आभा भी नहीं है !

    बहुत सही कहा आपने मीनाक्षी ...जीवन पथ आसान होता तो ज़िंदगी ,ज़िंदगी न लगती :) कुछ दर्द है तभी जीने लायक है यह :)
    लफ्ज़ सुंदर है, भाव सुंदर है ...और आपके ब्लॉग को पढने में हम खोये कुछ इस तरह कि हमारी सब्जी जल गई :)

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  4. सुंदर अभिव्यक्ति!! कविता अच्छी बन पड़ी है, मन में आशा-निराशा समयानुसार आते जाते रहते हैं बस उन्हें शब्दों ढालना ही बड़ी बात है और यह काम आपने बखूबी किया है!!

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  5. माया का अध्यास इसकदर???
    जितनी खूबसूरती से आप बहार को कविता में उतारती हैं उतनी ही सुंदरता से आपने उस कुंठा को भी जगाए रखा है कहीं ऐसा लगने लगता है की घोर निराशा व्याप्त हो गया है किंतु उस जंजीर को तोड़ने की अभिलाषा भी कहीं छिपी…है… ।

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  6. सुन्दर, खूबसूरत अभिव्यक्ति. पसंद आई.

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  7. कभी ऐसा पल आता है कि कोई दिशा नही सूझती. निराशा मे डूबी थी सो पोस्ट कर डाला. आपकी टिप्पणियों से मुस्करा दी और खिलखिला भी उठी.
    आप सबका बहुत बहुत धन्यवाद.

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  8. मीनाक्षी जी कविता तो बहुत खूबसूरत है मगर निराशाजनक क्यों लिखी आपने...आपका चेहरा जब भी देखते है खिला-खिला अहसास देता है मगर आज बुझा-बुझा क्यों है...

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