पृथ्वी के होठों पर पपड़ियाँ जम गईं
पेड़ों के पैरों मे बिवाइयाँ पड़ गईं.
पेड़ों के पैरों मे बिवाइयाँ पड़ गईं.
उधर सागर का भी खून उबल रहा
और नदियों का तन सुलग रहा.
और नदियों का तन सुलग रहा.
घाटियों का तन-बदन भी झुलस रहा
और झीलों का आँचल भी सिकुड़ रहा.
और झीलों का आँचल भी सिकुड़ रहा.
धूप की आँखें लाल होती जा रहीं
हवा भी निष्प्राण होती जा रही.
तब
अम्बर के माथे पर लगे सूरज के
बड़े तिलक को सबने एक साथ
निहारा ---
और उसे कहा ---
काली घाटियों के आँचल से
माथे को ज़रा ढक लो .
बादलों की साड़ी पर
चाँद सितारे टाँक लो
और फिर
मीठी मुस्कान की बिजली गिरा कर
प्यार की , स्नेह की वर्षा कर दो
मीठी मुस्कान की बिजली गिरा कर
प्यार की , स्नेह की वर्षा कर दो
धरती को हरयाले आँचल से ढक दो
प्रकृति में, इस महामाया में करुणा भर दो .....!
प्रकृति में, इस महामाया में करुणा भर दो .....!