नियमित सैर के लिए किसी गंभीर बीमारी का होना ज़रूरी नहीं है...बस यूँ ही नियम से चलने की कोशिश है एक. आजकल सुबह सवेरे भी निकलते हैं सैर के लिए... सुबह सवेरे मतलब साढ़े सात आठ बजे......दोष हमारा नहीं...सूरज का है..(दूसरों पर दोष डालना आसान है सो कह रहे हैं) ... उसे ही जल्दी रहती है निकलने की... जाने क्यों कभी आलस नहीं करता.... निकलता भी है तो खूब गर्मजोशी से .... हम भी उसी गर्मजोशी से उसका स्वागत करते हुए सैर करते हैं लेकिन साया बेचारा....बस उसे देखा और कुछ लिखा दिया कविता जैसा.....
सुबह सवेरे सूरज निकला
मैं और मेरा साया भी निकला
सूरज पीछे....साया आगे
हम सब मिल कर सैर को भागे
देखूँ साए को आगे चलता
पीछे मेरे सूरज है चलता
ज्यों ज्यों मेरी दिशा बदलती
त्यों त्यों साए की छाया चलती
आगे सूरज पीछे साया
पीछे सूरज आगे साया
आते जाते पेड़ों की छाया में
छिपता उनमें मेरा साया
आगे पीछे मेरे होता
सूरज की गर्मी से बचता
लुकाछिपी का खेल था न्यारा
साया मेरा मुझको प्यारा
सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसुंदर!
जवाब देंहटाएंखूब .... गहरी अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंmeri aankhon ke aage yah aankhmichauli jivant ho uthi
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर....
जवाब देंहटाएंsundar
जवाब देंहटाएंbahut khub
जवाब देंहटाएंकविता तो खूबसूरत है लेकिन ... साए की छाया ... ये कुछ समझ नहीं आया :)
जवाब देंहटाएंसुन्दर सैर के साथ सुन्दर कविता...
जवाब देंहटाएं@संजय..'साए की छाया चलती' अतीत में ले गई जब तपते रेगिस्तान की धूप से बचने के लिए मेरे साए की छाया में बच्चे कभी कभी चलते हुए स्कूल से घर पैदल ही पहुँचते...
जवाब देंहटाएंwah sair, saya, suraj aur chhaya kya baat hai. sunder srijan ho gaya ye to.
जवाब देंहटाएंbadhayi.
एक अच्छी पोस्ट बधाई |
जवाब देंहटाएंआशा
कविता तो बहुत ही स्वीट है :)
जवाब देंहटाएंलेकिन मेरे साथ थोड़ी दिक्कत ये है की मैं सुबह वाक पे पांच-छः के बीच निकलता हूँ, छः से देरी हो जाए तो नहीं निकलता.. :P
सूरज और साये का खेल ... मज़ा आ गया इस लाजवाब रचना पढ़ के ... जीवन के इस खेल को पढ़ के ...
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