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मंगलवार, 5 जुलाई 2011

गुलमोहर और ताड़


मेरे घर के सामने

हर रोज़ ध्यान लगाने की कोशिश करती हूँ ....
आँखें खुलते ही शीशे की दीवार से पर्दा हटा देती हूँ ...
दिखता है विस्तार लिए नीला आसमान ... 
उस पर उसी के बच्चे से बादल
हँसते-रोते सफ़ेद रुई के फोहे से 
कभी कभी तो धुँए के तैरते छल्लों से लगते  ...
ध्यान हटाती हूँ ...
आँखें नीचे उतरने लगती हैं पेडों पर ....

गुलमोहर और ताड़ के पेड़
कैसे एक साथ खड़े हैं...बाँहों में बाँहें डाले...
गुलमोहर की नाज़ुक बाँहें नन्हें नन्हें 
हरे रोमकूप से पत्तों सी कोमल...
ताड़ की सूखी खुरदरी... 
तीखी नोकदार फैली हुई सी बाँहें.....
फिर भी शांत..ध्यानमग्न हो जैसे एक दूसरे में...
मेरा ही ध्यान क्यों टूट जाता है....!! 

अपनों के बीच भी हम कहाँ रह पाते हैं
अपना मान कर एक दूसरे को ...!!




13 टिप्‍पणियां:

  1. मानव स्वभाव से ही चंचल है.....

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  2. apnon ke bich bhi hum kahan rahte hain apna maan ke ..... is sach ko bina kisi todmarod ke rakh diya aapne ... bahut sahi

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  3. अब्सट्रैक्ट, रचना लगी मुझे. एक पेंटिंग की तरह.

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  4. चिंतन और दर्शन से भरी रचना. धन्यवाद

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  5. वृक्षों के बहाने सार्थक सन्देश देती रचना ।
    काश पेड़ों से ही कुछ सीख सकें ।

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  6. @समीरजी..चंचल तो है ही..दानव और देवता के बीच बचता भटकता हुआ...
    @रश्मिजी....आभार
    @संगीताजी...सच है..चिंतन दूर तक ले जाता है ..
    @डॉअमर..शुक्रिया
    @अभिषेक..सच है..सब अपने अपने दृष्टिकोण से पेंटिंग देखते है...
    @रेखाजी... शुक्रिया
    @रश्मि..शुक्रिया
    @डॉ.दराल....काश.....आमीन...

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  7. आपके घर के सामने .......सचमुच अब तो ये एक युग बनता जा रहा है जिसे रोज़ जीने का मन करता है दीदी । आप लिखती रहें यूं ही और ये युग यूं ही बीतता रहे

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  8. सुंदर भावाव्यक्ति सार्थक चिंतन का बधाई

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