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रविवार, 17 अगस्त 2008

मेरे भैया ....मेरे चन्दा.... !

रक्षाबन्धन के दिन सुबह से ही 'मेरे भैया , मेरे चन्दा' गीत गुनगुनाते हुए आधी रात हो गई....... 11 साल की थी मैं जब नन्हा सा भाई आया हमारे जीवन में .......अनमोल रतन को पाकर जैसे दुनिया भर की खुशियाँ मिल गई हों....

मेरे भैया , मेरे चन्दा मेरे अनमोल रतन
तेरे बदले मे ज़माने की कोई चीज़ ना लूँ

तेरी साँसों की कसम खाके हवा चलती है
तेरे चेहरे की झलक पाके बहार आती है
इक पल भी मेरी नज़रों से तू जो ओझल हो

हर तरफ मेरी नज़र तुझको पुकार आती है
मेरे भैया , मेरे चन्दा मेरे अनमोल रतन
तेरे बदले मे ज़माने की कोई चीज़ ना लूँ

मेरे भैया , मेरे चन्दा मेरे अनमोल रतन
तेरे बदले मे ज़माने की कोई चीज़ ना लूँ


तेरे चेहरे की महकती हुई लड़ियो के लिए
अनगिनत फूल उम्मीदों के चुने है मैने
वो भी दिन आए कि उन ख्वाबो की ताबीर मिले
तेरे खातिर जो हसीं ख्वाब बुने है मैने...

मेरे भैया , मेरे चन्दा मेरे अनमोल रतन
तेरे बदले मे ज़माने की कोई चीज़ ना लूँ

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

झंडा ऊँचा रहे हमारा










"विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा

इसकी शान न जाने पाए, चाहे जान भले ही जाए"

-- "श्री श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' "



राष्ट्रीय ध्वज राष्ट्र की स्वत्नत्रता , एकता और अस्मिता का प्रतीक होता है. इसके

सम्मान की रक्षा के लिए देशवासी अपने प्राण देने को तैयार रहते हैं. पराधीन

भारत में तिरंगे झंडे को प्रतिष्ठित करना आसान नहीं था. स्वतंत्रता संग्राम के समय

तिरंगे के सम्मान के लिए कई सैनानियों ने अपना बलिदान किया, जिसके

कई उदाहरण आज भी रोमांचित कर देते हैं.

'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो' आन्दोलन के समय पटना विधान परिषद पर तिरंगा झंडा फहराने

के लिए एकत्रित समूह से निकल कर एक युवक आगे बढ़ा. पुलिस की बन्दूकें तनी थीं.

गोली चली. इसके पहले कि वह युवक गोली लगने के बाद ज़मीन पर गिरे, दूसरा

युवक आगे आया. उसने तिरंगा झंडा ऊँचा उठाए हुए कदम बढ़ाया, उसे भी गोली लगी.

इसके बाद तीसरा युवक आगे आकर तिरंगा थाम कर आगे बढ़ा और फिर गोली चली......गोली चलती रही और युवक ढेर होते रहे पर तिरंगा न रुका..... न झुका, आगे

ही आगे बढ़ता गया. अंत में सातवें युवक ने विधान परिषद पर तिरंगा फहरा ही दिया.

झंडे की शान रखने के लिए आज़ादी के दीवानो को भला कौन रोक सकता था.

इस अभियान में महिलाएँ भी पीछे नहीं रहीं. सन 1942 में श्री मती अरुणा आसफ अली ने झंडा फहराया तो असम की कनकलता मलकटरी नामक स्थान पर झंडा फहराते हुए

शहीद हो गई. मिदनापुर मे मातंगिनी हाज़रा ने गोली लगने के बाद भी झंडा हाथ से

नहीं छोड़ा. हमारा राष्ट्रीय झंडा न जाने कितने ही रूपों मे हमारे बीच लहराते हुए विजय

का उल्लास और मंगल का संकेत देता रहा है और देता रहेगा.

14 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि को भारत जब पूर्णता: स्वतंत्र हुआ और संविधान सभी

ने राष्ट्र की बागडोर सँभाल ली तब श्रीमती हंसा मेहता ने अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को

एक नया तिरंगा झंडा भेंट करते हुए कहा "यह उचित है कि इस महान सदन पर जो पहला झंडा फहराया जाने वाला है, वह भारत की महिलाओं का उपहार है."

अगले दिन 15 अगस्त 1947 के शपथ ग्रहण समारोह के बाद राष्ट्रपति भवन के ध्वज-दंड

पर हमारा राष्ट्रीय ध्वज फहरा उठा।

देश विदेश में रहने वाले सभी भारतवासियों को स्वतंत्रता दिवस पर मंगलकामनाएँ.... यही कामना है कि हम अपने देश की आज़ादी की रक्षा करते हुए दुनिया के दूसरे देशों की आज़ादी का सम्मान करें।

इस शुभ दिवस पर पूरे विश्व को शांति और भाईचारे का सन्देश दें .... !

बुधवार, 13 अगस्त 2008

उसकी मुस्कान भूलती नहीं







टाइम टू ग्लो अप --- पहली हैड लाइन को पढ़कर अचानक उसके मुस्कुराते चेहरे पर नज़र गई... 10-12 साल के इस लड़के के चेहरे पर गज़ब की मुस्कान चमक रही थी.... बार बार अपने बालों को हल्का सा झटका देकर पीछे करता लेकिन रेशम से बाल फिसल कर फिर उसके माथे को ढक देते...
बन्द होठों पर मुस्कान थी और चमकती आँखें बोल रही थी... कार के शीशे से अखबार को चिपका कर खड़ा हुआ था...बिना कुछ कहे....बस लगातार मुस्कुराए जा रहा था . ... हरी बत्ती होने का डर एक पल के लिए भी उसे नहीं सता रहा था... लाल बत्ती पर रुकी कई गाड़ियों के बीच में वह कितनी ही बार आकर खड़ा होता होगा. पता नहीं कितनी प्रतियाँ बेच पाता होगा....वह बिना कुछ बोले खड़ा था ...... बेसब्र होकर शीशे को पीट नहीं रहा था.... मन में कई तरह के ख्याल आ रहे थे.... क्या यह बच्चा स्कूल जाता होगा.... घर में कौन कौन होगा.... माँ अपने दुलारे बेटे को कैसे तपती दुपहरी में भेज देती होगी.... किसी अच्छे घर का बच्चा लग रहा था..... टी शर्ट उसकी साफ सुथरी थी.... सलीके से अखबारों का बंडल उठा रखा था लेकिन हाथ के नाखून कटे होने पर भी एक दो उंगलियों के नाखूनों में मैल थी...... जो भी हो उसके चेहरे पर छाई उस मुस्कान ने बाँध लिया था.....सूझा ही नहीं कि जल्दी से एक अखबार खरीद लेती ..... उसे भी जैसे कोई ज़रूरत नहीं थी अखबार बेचने की.... जितनी देर लाल बत्ती रही उतनी देर हम उस बच्चे में अपने देश के हज़ारों बच्चों का मुस्कुराता अक्स देखते रहे .... अनायास ही मन से दुआ निकलने लगी कि ईश्वर मेरे देश के सभी बच्चों को भी इस बच्चे जैसे ही प्यारी मुस्कान देना ...
आज अनुराग जी की पोस्ट पर हाथ में तिरंगे झण्डे लेकर खड़े बच्चे को देखकर सोचा कि आज़ादी के जश्न में लाल बत्ती पर खड़े मुस्कुराते बच्चों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करूँ.....

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

सुलगे मन में जीने की इच्छा सुलगी

जले हुए तन से
कहीं अधिक पीड़ा थी
सुलगते मन की
गुलाबी होठों की दो पँखुडियाँ
जल कर राख हुई थीं
बिना पलक की आँखें
कई सवाल लिए खुली थीं
माँ बाबूजी के आँसू
उसकी झुलसी बाँह पर गिरे
वह दर्द से तड़प उठी...
खारे पानी में नमक ही नमक था
मिठास तो उनमे तब भी नही थी
जब कुल दीपक की इच्छा करते
जन्मदाता मिलने से भी डरते
कहीं बेटी जन्मी तो............
सोच सोच कर थकते
पूजा-पाठ, नक्षत्र देखते ,
फिर बेटे की चाह में मिलते
कहीं अन्दर ही अन्दर
बेटी के आने के डर से
यही डर डी एन ए खराब करता
होता वही जिससे मन डरता
फिर उस पल से पल पल का मरना
माँ का जी जलना, हर पल डरना
बेचैन हुए बाबूजी का चिंता करना
अपनी नाज़ुक सी नन्ही को
कैसे इस दुनिया की बुरी नज़र से
बचा पाएँगें...
कैसे समाज की पुरानी रुढियों से
मुक्त हो पाएँगे....
झुलसी जलती सी ज़िन्दा थी
सफेद कफन के ताबूत से ढकी थी
बिना पलक अपलक देख रही थी
जैसे पूछ रही हो एक सवाल
डी एन ए उसका कैसे हुआ खराब
बाबूजी नीची नज़र किए थे
माँ के आँसू थमते न थे
अपराधी से दोनो खड़े थे
सोच रहे थे अभिमन्यु ने भी
माँ के गर्भ में ज्ञान बहुत पाया था
गार्गी, मैत्रयी, रज़िया सुल्तान
जीजाबाई और झाँसी की रानी ने
इतिहास बनाया
इन्दिरा, किरनबेदी, लता, आशा ने
भविष्य सजाया
फिर हमने क्यों न सोचा....
काश कुछ तो ज्ञान दिया होता...
समाज के चक्रव्यूह को तोड़ने का
कोई तो उपाय दिया होता....
माँ बाबूजी कुछ कहते उससे पहले
दोनो की आँखों से
पश्चाताप के दो मोती लुढ़के
उसके स्याह गालों पर ढुलके
उस पल में ही जलते तन में
अदभुत हरकत सी हुई
सुलगे मन में जीने की इच्छा सुलगी
उस उर्जा से शक्ति गज़ब की पाई
नए रूप में नए भाव से
मन की बगिया महकी !

( जिन कविताओं को पढ़कर इस रचना का जन्म हुआ , सभी उर्जा स्त्रोत जैसी यहीं कहीं छिपीं हुई हैं)

बुधवार, 6 अगस्त 2008

प्रेम चमकते हीरे सा.. !













प्रेम का भाव, उस भाव के आनन्द की अनुभूति...इस पर बहुत कुछ लिखा गया है.. अक्सर बहस भी होती है लेकिन बहस करने से इस विषय को जाना-समझा ही नही जा सकता ... केवल प्रेम करके ही प्रेम को जाना जा सकता है।
प्रेम करते हुए ही प्रेम को पूरी तरह से जाना जा सकता है... नदी में कूदने की हिम्मत जुटानी पड़ती है तभी तैरना आता है ... प्रेम करने का साहस भी कुछ वैसा ही है.. किसी के प्रेम में पड़ते ही हम अपने आप को धीरे धीरे मिटाने लगते हैं...समर्पण करने लगते हैं..अपने आस्तित्त्व को किसी दूसरे के आस्तित्त्व में विलीन कर देते हैं... यही साहस कहलाता है...
प्रेम का स्वरूप विराट है...उसके अनेक रूप हैं... शिशु से किया गया प्रेम वात्सल्य है जिसमे करुणा और संवेदना है तो माँ से किया गया प्रेम श्रद्धा और आदर से भरा है...उसमें गहरी कृतज्ञता दिखाई देती है... यही भाव किसी सुन्दर स्त्री से प्रेम करते ही तीव्र आवेग और पागलपन में बदल जाते हैं.. मित्र से प्रेम का भाव तो अलग ही अनुभूति कराता है, उसमें स्नेह और अनुराग का भाव होता है...
प्रेम के सभी भाव फूलों की तरह एक दूसरे से गुँथे हुए हैं...हमारा दृष्टिकोण , हमारा नज़रिया ही प्रेम के अलग अलग रूपों का अनुभव कराता है।

मेरे विचार में प्रेम चमकते हीरे सा समृद्ध है.... कई रंग हैं इसमें और कई ठोस परतें हैं . हर परत की अपनी अलग चमक है जो अदभुत है... अद्वितीय है !!!

(घुघुतीजी के स्नेह भरे आग्रह का परिणाम है यह पोस्ट... प्रेम भाव को शब्दों का रूप देने के लिए वक्त चुराना पड़ा नहीं तो इस वक्त हम कोई ब्लॉग़ पढ़ रहे होते )